एक महीने में 12 फ़ीसदी बढ़े पेट्रोल-डीज़ल के दाम ! मीडिया में सन्नाटा !

गिरीश मालवीय

एक चुटकुला है- एक जागरूक आदमी दूसरे आम आदमी से पूछता है, आपको पता है कि पेट्रोल डीजल कितना महंगा हो गया है ? आम आदमी हँसते हुए कहता है बढ़े होंगे जी ,मैं तो अपने स्कूटर मैं पहले भी 200 का पेट्रोल डलवाता था अब भी दो सौ का डलवाता हूँ ! यह भारतीय समाज की हकीकत हैं !

शायद आप भी यह नहीं जानते होंगे कि तेल कंपनियों ने पेट्रोल-डीजल की कीमत में कितना इज़ाफा कर दिया है ? पिछले एक महीने में तेल कंपनियों ने पेट्रोल-डीजल के दामों में 12 फ़ीसदी का इज़ाफा कर दिया है।  इंडियन ऑयल के मुताबिक 1 जुलाई से 15 अगस्त के बीच पेट्रोल की कीमतों में 5 रुपए की बढ़ोतरी हुई है,जबकि डीजल की कीमतों में 4 रुपए का उछाल आया है।

ओर यह सब कुछ बेहद ख़ामोशी से हुआ है , क्योकि अब तेल कंपनियों को यह अधिकार मिल चुका है कि वह हर दिन अपने दाम बढ़ा सकती हैं।पहले सिर्फ डेढ़ दो रुपये की वृद्धि पर सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा सकता था, लेकिन अब कोई आवाज उठाने को राज़ी नही है।

हद तो यह है कि इस मुद्दे को मुद्दा बनाने में मीडिया में कोई दिलचस्पी नहीं है। दरअसल आज के कारोबारी मीडिया का रोल यह है कि वह जनहित की अपेक्षा सरकारी हित को अधिक तरजीह देता है, इसलिए जब नयी व्यवस्था में शुरुआत के दिनों पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए तो उसने इस बात को खूब उछाला, लेकिन आज 12 प्रतिशत की वृद्धि होने पर वह मुँह खोलने को तैयार नही है

एक छोटा सा उदाहरण देखिए-

साल 2014 के जून के महीने में ब्रेंट क्रूड ऑयल की कीमत 115 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी तब पेट्रोल की कीमत 82 रु चली गयी थी और देश में हाहाकार मच गया था आज उसी आयल की कीमत 49 रु है और पेट्रोल की क़ीमत  69 रु के आसपास है। यदि इस हिसाब से देखें तो कल जब क्रुड ऑयल की कीमत वापस 110 से 115 के बीच चली जाएगी तो आपको पेट्रोल 150 रु लीटर मिलने से दुनिया की कोई ताकत नही रोक पायेगी।

जून 2010 से पहले पेट्रोल, डीजल, एलपीजी इत्यादि की कीमतें सरकार द्वारा नियंत्रित और निर्धारित होती थीं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में रोज-रोज बदलती कच्चे तेल की कीमतें, पेट्रोल, डीजल इत्यादि की कीमतों को प्रभावित नहीं करती थीं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के बढ़ने के कारण होने वाले नुकसानों की भरपाई ‘ऑयल बांड’ जारी करके कर दी जाती थी और जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतें कम होती थीं तो ‘ऑयल बांड’ वापस खरीद लिये जाते थे।

वर्ष 2010, जून माह में सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बाजार पर छोड़ना तय कर दिया, लेकिन आप को आश्चर्य होगा कि उस वक्त भी तेल कम्पनियो को कोई नुकसान नही होता था। फिर एक दौर आया जब डीजल और पेट्रोल के दाम सरकारी नियंत्रण से छूटकर सरकारी तेल कंपनियों द्वारा तय होने लगे और कच्चे तेल के 15 दिनों के औसत मूल्यों के आधार पर दोनों तेलों के दाम तय किये जाते थे। यह दौर भी लम्बा चला, जून 2010 में जब तेल की कीमतों पर नियंत्रण समाप्त किया गया तो मात्र एक ही महीने में पेट्रोल की कीमत 6 रुपए प्रति लीटर बढ़ गई थी।

यानी कहा जा सकता है कि नियंत्रण समाप्त होते ही पेट्रोलियम कंपनियों ने अधिकतम लाभ कमाने की दृष्टि से नई व्यवस्था का नाजायज लाभ उठाया था ओर आज साल 2017 में भी यही कहानी दोहराई गयी । इस बार भी एक महीने में दाम 5 रुपये तक बढे हैं।

जहाँ तक अंतरराष्ट्रीय तेल की कीमतों में रोज बदलाव के तर्क के आधार पर पेट्रोल-डीजल के दाम बदलने की बात की गयी थी, तो आपको याद दिला दूं कि बड़ी-बड़ी कंपनियाँ तेल खरीद के सौदे अग्रिम तौर पर ही करती हैं। इसलिए कीमतों में बदलाव उन्हें प्रभावित नहीं करता। एक तर्क दिया जाता है कि विकसित देशों में भी ऐसा होता है, तो यह तर्क भी गलत है। वहां तेल की कीमतें प्रतियोगिता के आधार पर कंपनियां अलग-अलग तय करती हैं, जबकि हमारे यहां सभी तेल कंपनियों द्वारा इकट्ठा मिलकर कीमत तय की जाती है। यानी ये कंपनियां कार्टेल बनाकर कीमतों को ऊंचा रख सकती हैं। चीन में भी दाम 10 दिनों में एक बार बढ़ाया घटाया जाता है, कोरिया थाईलैंड ओर ब्रिटेन में आज भी साप्ताहिक दाम बढ़ाने घटाने की व्यवस्था है,अतः यह तर्क भी खोखला है। तेल के दामों पर सरकार अब तक एक स्टेबलाइजर का रोल निभाती आई थी, इस भूमिका से पैर पीछे खींच लेने से अब बेहद परेशानी पैदा होगी।  इकनॉमी में व्यवहारगत उतार-चढ़ाव पैदा होंगे जिससे सामान्य व्यवहार में दिक्कतें आएगी, जो जीएसटी की व्यवस्था पर भी अपना असर डालेगी।

अब यह समझते हैं कि मोदी सरकार इस व्यवस्था पर राजी क्यो हो गयी ? एक समय वो इसी व्यवस्था की विरोधी हुआ करती थी । दरअसल, ईंधन के दाम रोजाना घटाने-बढ़ाने की छूट मिलने पर रिलायंस इंडस्ट्रीज और एस्सार ऑयल जैसी प्राइवेट कंपनियां भी अपने हिसाब से कीमतें तय करने के लिए आजाद हो गयी हैं। पहले उन्हें सरकारी कंपनियों की तरफ से तय कीमतों पर पेट्रोल और डीजल की बिक्री करनी पड़ती थी। अब वह कार्टेल में घुसकर आसानी से अपनी बात मनवा सकेंगी, क्योकि सरकार खुद अपनी ऑयल कम्पनियों के पर कतर देगी। टेलीकॉम के क्षेत्र में बीएसएनएल का भट्टा भी इसी तरह से बैठाया गया था।

वैसे आप चाहें तो गाय और हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर लगे रह सकते हैं। लूट का साम्राज्य यूँ ही चलता रहेगा। लुटेरे यही चाहते हैं।




गिरीश मालवीय

लेखक इंदौर (मध्यप्रदेश )से हैं , ओर सोशल मीडिया में सम-सामयिक विषयों पर अपनी क़लम चलाते रहते हैं ।



 

First Published on:
Exit mobile version