मोहन भागवत के बयान के पीछे का वह घातक सच जिसे विपक्ष भी नहीं देख पा रहा है!

पाणिनि आनंद

मोहन भागवत ने अपने बयान में साफ साफ कहा है कि अगर संविधान में इजाज़त मिले तो सेना बनाने में 6-7 महीने लग सकते हैं लेकिन संघ तीन दिन में सेना दे देगा. वो बताते तो हैं कि संघ एक सैन्य संगठन नहीं है लेकिन साथ ही स्पष्ट कहते हैं कि संघ सेना खड़ी करने का दम रखता है. भागवत अगर सेना बनाने में 6-7 महीने का समय वाली बात कह रहे हैं तो वो एक पूरी व्यवस्था की रफ्तार पर और देश के कौशल पर सवाल खड़ा कर रहे हैं. हालांकि संघ लगातार इस बारे में सफाई दे रहा है कि उनका आशय यह नहीं था.

भागवत के इस बयान पर विपक्ष को मुद्दा मिल गया है. वो इसे सेना के अपमान और तिरंगे का अपमान बता रहे हैं. वो कह रहे हैं कि भागवत ने शहादतों का अपमान किया है. यह कितना दयनीय है कि विपक्ष वो नहीं देख रहा जो भागवत दिखा रहे हैं और दिखाना चाहते हैं. विपक्ष कैंसर के लिए दर्द की दवा जैसी प्रतिक्रियाएं दे रहा है और इस तरह भागवत के बयान के असल मुद्दे कहीं खो गए हैं.

दरअसल, भागवत अपने इस वक्तव्य में दो बातें कह रहे हैं. पहली यह कि तीन दिन में सेना बना सकते हैं. सवाल यह नहीं है कि वो क्या वाकई तीन दिन में सेना बना सकते हैं. सवाल यह है कि ऐसी तैयारी संघ ने क्यों कर रखी है. क्या सिखाया जा रहा है शाखाओं में, शिविरों में और बौद्धिकों में कि लोग संगठित लड़ाई के लिए तैयार हैं. क्या किसी लोकतंत्र में किसी एक विचारधारा या संगठन को सेना बनाने या सेना जैसी तैयार करने का हक होना चाहिए. ऐसी तैयारी की इजाज़त संघ को किसने दी और ऐसी सेना क्या देश के हित में किसी भी तरह से सही ठहराई जा सकती है?

नक्सलियों ने सेना बनाने की कोशिश की और कुछ टुकड़ियां तैयार भी हुईं लेकिन वो अपने जैसे लोगों पर ही गोली चलाने से ज़्यादा कहीं आगे नहीं बढ़ पाए. उनके इस कृत्य को गलत ठहराते हुए उनके खिलाफ बड़े ऑपरेशन भारत सरकार चला रही है. ऐसी ही कोशिशें बिहार में हुईं जब अगड़ी जातियों ने रणबीर सेना बनाकर दलितों को काटना शुरू किया. बिहार कई साल उस आग में और हिंसा में जलता रहा. ऐसी ही सशस्त्र सैन्य तैयारियां कई सांप्रदायिक गुट करते रहे हैं और उसका परिणाम हम दंगों के रूप में झेलते आए हैं.

भागवत का आशय यदि यह था कि संघ भी सेना की तरह ही बाढ़ राहत, प्राकृतिक आपदा की स्थितियों में लोगों की मदद करता है तो फिर देश के तमाम छोटे-छोटे संगठनों को, गुरुद्वारों को, मिशनरियों, नागरिक समितियों को भी सेना बनाने का अधिकार दे दिया जाना चाहिए क्योंकि संघ से कहीं तत्परता से वे इस तरह का योगदान समाज को देते रहे हैं. लेकिन अगर भागवत का आशय युद्ध करने से है, शस्त्र प्रयोग से है, नियंत्रण से है तो निःसंदेह यह बहुत चिंता की बात है.

संघ का मूल विचार एक तरह की सांप्रदायिक सोच की ज़मीन पर खड़ा है. उसका न वृहद हिंदू परंपरा से कोई वास्ता है और न ही देश की साझा विरासत से. वो जिस चश्मे से देश और समाज को देखते हैं, संविधान और भारतीय समाज उससे विपरीत है. ऐसे में टकराव स्वाभाविक है. लेकिन टकराव में अगर कोई एक धड़ा सेना खड़ी करने की बात कहे और उसकी तैयारी रखे तो यह खतरे का संकेत है. देश और समाज को इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए.

दूसरी अहम बात है संविधान से जोड़कर इस बात को रखना. संघ जिस सपने को लेकर आगे बढ़ा है वो स्वप्न उनकी शैली के हिंदुत्व वाला हिंदू राष्ट्र है. वो जानते हैं कि ऐसा बिना सत्ता पर संपूर्ण नियंत्रण के संभव नहीं है. और वे यह भी जानते हैं कि इस संपूर्ण नियंत्रण को स्थायी बनाने के लिए संविधान को बदलना ज़रूरी है. संविधान परिवर्तन और उसे अपने अनुकूल रचना संघ की नीयत का सबसे अहम हिस्सा है. संघ हमेशा से यह स्वप्न देखता आया है जब संविधान को अंबेडकर और भारतीय समाज के हाथ से निकालकर संघ की टेबल पर रख दिया जाएगा. फिर संघ का विधान ही संविधान होगा.

भागवत बेवजह ही नहीं कह रहे कि संविधान अगर इजाज़त दे तो संघ ऐसा तीन दिन में कर सकता है. इस विचार के पीछे वो मंशा है जो संविधान के ज़रिए संघ को वैधता देने का स्वप्न आंखों में पालकर रखती है. वो मंशा, जो चाहती है कि संविधान संघ को वैधता दे. विशेष महत्व दे. संघ के अनुकूल और अनुरूप हो. यह सोच विभाजन की सोच है और संविधान के मूल स्वरूप के विरुद्ध है. संघ के हाथों देश की सत्ता का स्वप्न संघ ने हमेशा से देखा है, भागवत का ताज़ा बयान उसी का एक प्रतिबिंब है.

भारत में आज जो सरकार है वो संघ द्वारा नियंत्रित सरकार है. लेकिन इस सरकार की भी सीमाएं हैं और वो सीमाएं हैं संसद में संख्या और संविधान. संघ चाहता है कि यह संख्या बढ़े और संविधान बदलने का मौका मिले ताकि सत्ता में संघ का अस्तित्व स्थायी बन सके. तीन दिन में सेना बनाने का और सेना बना पाने की क्षमता रखने की स्वीकारोक्ति का बयान भागवत नाहक नहीं दे रहे.

अगले कुछ दिन भागवत उत्तर प्रदेश में होंगे. वहां संघ के बीच इस बयान को लेकर एक गर्माहट दिखाई देगी. सूबे के मुख्यमंत्री के पास पहले से ही हिंदू युवा वाहिनी जैसी सेना है. ये सारी बातें मिलकर एक माहौल बनाती हैं जिसमें समावेशी समाज के कुछ हिस्सों के लिए भय है और कुछ के लिए भय के माहौल में खुलकर खेलने की अराजक आज़ादी. और यह भारत जैसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक है.

अफसोस यह है कि संविधान बचाने का नारा देने वाले विपक्षी दल इसे पहचान नहीं रहे. वो सेना और तिरंगे के मान तक सिमट के रह गए हैं. खेल उससे कहीं आगे का है.


लेखक आज तक डिजिटल के संपादक हैं. यह लेख Dailyo से साभार प्रकाशित है. 

First Published on:
Exit mobile version