महाराष्ट्र का प्रहसन और संवैधानिक नैतिकता का सवाल

दो दिन पहले ही मैंने संवैधानिक नैतिकता का हवाला दिया था. अच्छा लगा, सर्वोच्च न्यायालय ने भी आज इसका उल्लेख किया.

बाबासाहेब आंबेडकर ने चार नवंबर, 1948 और 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में इस अवधारणा पर बोला था. उन्होंने जॉर्ज ग्रोट को विस्तार से उद्धृत किया था. इन दोनों विद्वानों ने जिस तरह से इस अवधारणा को प्रस्तुत किया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है और आज के दौर में उसे समझा जाना चाहिए. यह संवैधानिक नैतिकता ही है, जिससे सत्ता का इक़बाल बुलंद होता है और वह अपने लिए आदर व स्वीकार अर्जित करती है. इस संबंध में बहुत बढ़िया और संक्षिप्त लेख प्रताप भानु मेहता का है, जो सेमिनार में प्रकाशित है.

बहरहाल, महाराष्ट्र की राजनीतिक हलचल के हवाले से सांसदों व विधायकों के पाला बदलने या आलाकमान के पाले में रहने के बाबत एक पहलू समझा जाना चाहिए. अक्सर बेहद लापरवाह ढंग से कह दिया जाता है कि हमारी संसदीय प्रणाली वेस्टमिंस्टर सिस्टम (ब्रिटिश व्यवस्था) पर आधारित है. यह ग़लत है. ब्रिटेन में संसद, राज्य विधायिका और सिटी काउंसिल के लिए उम्मीदवारों का चुनाव किसी पार्टी का आलाकमान नहीं करता है. यह उस उम्मीदवार के क्षेत्र के पार्टी सदस्य करते हैं. वहां प्रधानमंत्री या विपक्षी नेता पार्टी के सांसदों द्वारा नहीं चुना जाता है. वह भी पार्टी के सदस्यों के द्वारा चुना जाता है.

सांसद पार्टी या नेता के रुख के ख़िलाफ़ भी खुले तौर पर राय रख सकते हैं और संसद में वोट दे सकते हैं. उदाहरण के लिए मौजूदा लेबर नेता जेरेमी कॉर्बिन को ले सकते हैं, जो 1983 से सांसद चुने जाते रहे हैं और कई बार विपक्ष और सरकार में लेबर पार्टी के रहने पर नेता/प्रधानमंत्री के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोट दे चुके हैं. पर, उनकी उम्मीदवारी बनी रही क्योंकि उन्हें अपने क्षेत्र के लेबर सदस्यों का समर्थन था. इसी तरह वे पार्टी के अधिकतर सांसदों के विरोध के बाद भी पार्टी के नेता हैं और अगर पार्टी चुनाव जीतती है, तो वे प्रधानमंत्री बनेंगे.

इस तरह से तमाम ख़ामियों के बाद भी वहाँ लोकतंत्र नीचे से ऊपर की ओर है. अमेरिका में भी ऐसा है. वहाँ भी हाऊस, सीनेट और व्हाइट हाऊस के लिए उम्मीदवार स्थानीय पार्टी सदस्य चुनते हैं. हमारे यहाँ ऐसा नहीं है, सो विधायक और सांसद अपने हितों के हिसाब से मौक़ा देखकर चौका मारते रहते हैं या फिर आलाकमान के इशारों पर चलते रहते हैं. इस व्यवस्था के कारण पार्टियों के सदस्य और आम मतदाता चुनाव के बाद अप्रासंगिक हो जाते हैं.

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