ये सब शर्मो हया धोकर गटर में डाल देने वाले हिन्दी के संपादक हैं !

हिंदी चैनलों ने हिंदी भाषा के साथ जैसा खिलवाड़ किया है, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। मसला चैनल के पर्दे पर नज़र आने वाली लिखावट में वर्तनीदोष का हो या भ्रष्ट उच्चारण वाले एंकरों का, बीमारी इतनी ज़्यादा बड़ी है कि इसे ही दवा मान लिया गया है। यानी चैनलों के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है।  

2 अप्रैल को भोपाल के माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय और विदेश मंत्रालय के सौजन्य से दिल्ली में एक संगोष्ठी हुई। इसमें मुख्य अतिथि बतौर शामिल विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने तमाम दिग्गज संपादकों को हिंदी को लेकर तमाम नसीहतें दीं, जो कहीं उनका कोई सहयोगी देता तो न्यूज़रूम से बाहर निकाल दिया जाता या आउटडेटेड घोषित कर दिया जाता। जब सुषमा स्वराज की चिंता पर कई नामचीन संपादक वाह-वाह करके ट्वीट करने लगे (ज़ाहिर है, सुषमा के ट्विटर एकाउंट को नत्थी करते हुए) तो चर्चित युवा मीडिया समीक्षक विनीत कुमार से रहा नहीं गया। उन्होंने इसे ताबड़ तोड़ मालिश (टीटीएम) करार देते हुए इन वर्तमान और पूर्व संपादकों को फेसबुक के ज़रिये उनके ‘हिंदी प्रेम’ को आईना दिखाया है । पढ़िये–   

ये सब शर्मो हया धोकर गटर में डाल देने वाले हिन्दी के संपादक हैं

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भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के हिन्दी की दुर्दशा पर चिंता जताए जाने की अदा पर राहुल देव, अजीत अंजुम, उमेश उपाध्याय जैसे संपादक, टीवी और मीडिया सेमिनारों के चमकीले चेहरे मार लहालोट हुए जा रहे हैं. बेशर्मी की हद तक जाकर वो जो अपडेट कर रहे हैं, उन्हें सुषमा स्वराज तक पहुंचाने की( वर्चुअली ही सही) पूरजोर कोशिश और नंबर बनाने में लगे हैं..लेकिन

ये हिन्दी समाचार चैनलों के लिए काम करनेवाले वो दिग्गज चेहरे हैं जिन्हें आधे घंटे के एक कार्यक्रम के लिए हिन्दी के नाम तक नहीं सूझते. अजीत अंजुम को भाषा पर महारथ हासिल है लेकिन चैनल सास,बहू और संस्पेंस के जरिए अनुप्रास अलंकार के आगे जाकर हांफने लग जाता है.

 

 

 

इधर राहुल देव अंग्रेजी से एमए होने के बावजूद मीडिया सेमिनारों में हिन्दी की कंठी-माला जपते थकते नहीं. ये तस्वीर एक पत्रिका के पूरे पेज में छपे विज्ञापन की है. उस वक्त ये सीएनइबी के सीइओ हुआ करते थे. जो विज्ञापन आप पत्रिका में देख रहे हैं, उसकी कटआउट से पूरे शहर को पाट दिया गया था. यहां तक कि फ्लाईओवर से गुजरते हुए ये विज्ञापन दिखाई देते.

 

चैनल की भाषा भी हिन्दी थी और उसके सीईओ भी हिन्दी पर जान लुटा देनेवाले लेकिन विज्ञापन अंग्रेजी में. मतलब ये कि ये जिन कुर्सियों पर बैठकर काम करते आए हैं, चाहते तो चैनलों के जरिए लोगों के बीच हिन्दी का एक बेहतर रूप पेश कर सकते थे. कुछ नहीं तो इसे गैरजरूरी ढंग से हिंग्लिश होते जाने से रोक सकते थे लेकिन नहीं..ऐसा करते तो फिर बाजार की पिछाड़ी बर्दाश्त करने की ताकत कैसे जुटा पाते..

अब सुषमा स्वराज हिन्दी भाषा को लेकर जिस तरह की चिंता जाहिर कर रही है, ये उनके आगे लहालोट हो जाने और नंबर बनाने का मुद्दा नहीं है, शर्म से सिर झुकाकर चुप मार जाने का है..अपने किए पर अफसोस करने का है. लेकिन शर्म भी जो एक चीज होती तब न..

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हिन्दी चैनलों के संपादक/बॉस एंकर सुषमा स्वराज की हिन्दी चिंता पर जिस कदर टीटीएम में लगे हैं, एक बार पलटकर सुषमा स्वराज पूछ दें कि आपने अपने चैनलों के जरिए किस तरह की हिन्दी को विस्तार दिया तो शर्म से माथा झुक जाएगा. इन संपादकों को इतनी भी तमीज नहीं है कि ये समझ सकें कि वो जो चिंता जाहिर कर रही है, उनमे हम संपादकों के धत्तकर्म भी शामिल हैं. आखिर उन्हें लाइसेंस हिन्दी चैनल चलाने के दिए जाते हैं, हिंग्लिश के तो नहीं ही न..

.विनीत कुमार

 

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