पुण्य प्रसून वाजपेयी
‘ न…न… फरवरी में टूटेगी नहीं लेकिन बिखर जायेगी!’
‘बिखर जायेगी से मतलब….?’
‘मतलब यही कि कोई कल तक जो कहता था, वह पत्थर की लकीर मान ली जाती थी। पर अब वही जो कहता है उसे कागज पर खिंची गई लकीर के तौर पर भी कोई मान नहीं रहा है।’
‘तो होगा क्या ?’
‘कुछ नहीं, कहने वाला कहता रहेगा क्योकि कहना उसकी ताकत है। और खारिज करने वाला भविष्य के ताने बाने को बुनना शुरु करेगा। जिसमें कहने वाला कोई मायने रखेगा ही नहीं।
तब तो सिरफुटव्वल शुरु हो जायेगा! टकराव कह सकते है! और इसे रोकेगा कौन सा बडा निर्णय ये सबसे बडे नेता पर ही जा टिका है।’
‘स्वयंसेवक महोदय की ऐसी टिप्पणी गले से नीचे उतर नहीं रही थी क्योकि भविष्य की बीजेपी और 2019 के चुनाव की तरफ बढ़ते कदम के मद्देनजर मोदी सत्ता के एक के बाद एक निर्णय को लेकर बात शुरु हुई थी। दिल्ली में बारिश के बीच बढ़ी ठंड के अहसास में गरमाती राजनीति का सुकून पाने के लिये स्वयंसेवक महोदय के घर पर जुटान हुआ था। प्रोफेसर साहेब जिस तरह एलान कर चुके थे कि मोदी अब इतनी गलतियां करेगें कि बीजेपी के भीतर से ही उफान फरवरी में शुरु हो जायेगा, पर उस पर मलहम लगाते स्वयंसेवक महोदय पहली बार किसी मंझे हुये राजनीतिज्ञ की तर्ज पर समझा रहे थे कि भारत की राजनीति को किसी ने समझा ही नहीं है।
‘आपको लग सकता है कि 2014 में कांंग्रेस ने खुद ही सत्ता मोदी के हाथो में सौंप दी। एक के बाद दूसरी गलती कैसे 2012-13 में कांग्रेस कर रही थी, इसके लिये इतिहास के पन्नों को पलटने की जरुरत नहीं है। सिर्फ दिमाग पर जोर डाल कर सबकुछ याद कर लेना है ।’
‘और अब ..?’
‘मेरे ये कहते ही स्वयंसेवक महोदय किसी ईमानदार व्यापारी की तरह बोल पडे …’अभी क्या! हम लोग तो कोई कर्ज रखते नहीं है।’
‘ तो मोदी खुद ही कांग्रेस को सत्ता देने पर उतारु हैं!’
‘यानी प्रोफेसर साहेब गलत नहीं कह रहे है कि मोदी अभी और गलती करेगें ।’
‘जी, ठीक कहा आपने। लेकिन इसमें थोड़ा सुधार करना होगा। क्योंकि मोदी की साख जो 2017 तक थी, उस दौर में यही बातें इसी तरह कही जातीं तो आप इसे गलती नहीं मानते।’
अब प्रोफेसर साहेब ही बोल पडे़ – ‘मतलब ?’
‘मतलब यही कि 2014 से 2017 का काल भारत के इतिहास में मोदी काल के तौर पर जाना जायेगा। पर उसके बाद 2018-19 संक्रमण काल है। जहाँ मोदी हैं ही नहीं। बल्कि मोदी विरोध के बोल और निर्णय, थीसीस के उलट एंटी थीसीस रख रहे हैं। और ये तो होता ही या होना ही है।’
‘तब तो बीजेपी के भीतर भी एंटी थीसीस की थ्योरी होगी?’
‘वाह वाजपेयी जी। आपने नब्ज पर अंगुली रख दी।’
मेरे कहने से स्वयंसेवक महोदय जिस तरह उचक कर बोले, उसमें चाय की चुस्की या उसकी गर्माहट तो दूर, पहली बार मैंने तमाम चर्चाओं के दौर में महसूस किया कि डूबते जहाज में अब संघ भी सवार होने से कतरा रहा है। क्योंकि जिस तरह का जवाब स्वयंसेवक महोदय ने इसके बाद दिया वह खतरे की घंटी से ज्यादा आस्तित्व के संघर्ष का प्रतीक था।
‘आपको क्या लगता है कि राजनाथ सिंह संकल्प पत्र तैयार करेगें ? या फिर गडकरी सामाजिक संगठनों को जोड़ने के लिये निकलेगें? या जिन भी जमीनी नेताओं को 2019 के चुनाव के मद्देनजर जो काम सौंपा गया है, वह उस काम में जुट जायेगें? या फिर ये नेता खुश होंगे कि उन्हें पूछा गया कि आप फलाँ- फलाँ काम कर लें? मान्यवर इसे हर कोई समझ रहा है कि लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी का भविष्य कैसा है? और 2014 में जब जीत पक्की थी जब संकल्प पत्र किसने तैयार किया था ? बेहद मशक्कत से तैयार किया गया था, पर संकल्प पत्र पर अमल तो दूर संकल्प पत्र तैयार करने वाले को ही दरकिनार कर दिया गया ।’
‘किसकी बात कर रहे है आप..?’
‘अरे प्रोफेसर मुरली मनोहर जोशी जी की। और उस संकल्प पत्र में क्या कुछ नही था। किसान हो या गंगा। आर्थिक नीतियाँ हों या वैदेशिक नीतियाँ। बकायदा शोध सरीखे तरीके से बीजेपी सत्ता की राह को जोशी जी ने मेहनत से बनाया। पर हुआ क्या? मोदी जी ने जितनी लकीरे खींचीं, जितने निर्णय लिए, उसका रिजल्ट क्या निकला? राजनीतिक तौर पर समझना चाहते हैं तो तमाम सहयोगियों को परख लीजिये। हर कोई मोदी-शाह का साथ छोड़ना चाहता है। बिहार – यूपी में कुल सीट 120 हैं। और यहाँ के हालात बीजेपी के लिये ऐेसे बन रहे हैं कि अपने बूते 20 सीट भी जीत नहीं पायेगी। जातीय आधार पर टिकी राजनीति को सोशल इंजिनियरिंग कहने से क्या होगा। कोई वैकल्पिक समझ तो दूर उल्टे पारंपरिक वोट बैंक जो बीजेपी के साथ रहा, पहली बार मोदी काल में उसपर भी ग्रहण लग रहा है। तो बीजेपी में ही कल तक के तमाम कद्दावर नेता अब क्या करेगे। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि राफेल का सवाल आने पर प्रधानमंत्री इंटरव्यू में कहते हैं कि उन पर कोई आरोप नहीं लगा है। दूसरा, ये निर्णय सरकार का था। यानी वह संकेत दे रहे हैं कि दोषी रक्षा मंत्री हो सकते हैं, वह नहीं! और इस आवाज को सुन कर पूर्व रक्षा मंत्री पार्रिकर संकेत देते हैX कि राफेल फाइल तो उनके कमरे में पड़ी है जिसमें निर्णय तो खुद प्रधानमंत्री का है। फिर इसी तरह सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण देने के एलान के तुरंत बाद नितिन गडकरी ये कहने से नहीं चूकते कि इससे क्या होगा। यानी ये तो बुलबुले हैं। लेकिन कल्पना कीजिये,फरवरी तक आते-आते जब टिकट किसे दिया जायेगा और कौन से मुद्दे पर किस तरह चुनाव लड़ा जायेगा, तब ये सोचने वाले मोदी-शाह के साथ कौन सा बीजेपी का जमीनी नेता खड़ा होगा। और खड़ा होना तो दूर, बीजेपी के भीतर से क्या वाकई कोई आवाज नहीं आयेगी?’
‘आप गलतियो का जिक्र कर रहे थे..’..मेरे ये पूछते ही स्वयसेवक महोदय कुर्सी से खडे हो गये। बकायदा चाय की प्याली हाथ में लेकर खड़े हुए और एक ही सांस में बोलने लगे-‘अब आप ही बताइये आरक्षण के खिलाफ रहनी वाली बीजेपी ने सवर्णों को राहत देने के बदले बांट दिया। बारीकी से परखा आपने सवर्णों में जो गरीब होगा उसके माप-दंड क्या क्या हैं? यानी जमीन से लेकर कमाई के जो मापदंड शहर और गांव के लिये तय किये गये हैं. उसमें झूठ-फरेब- घूस सब कुछ चलेगा। क्योंकि 8 लाख से कम सालाना कमाई, 5 एकड से कम कृर्षि जमीन, एक हजार स्कावयर फिट से कम की जमीन पर घर, और म्यूनिस्पलटी इलाके में सौ यार्ड से कम का रिहाइशी प्लाट होने पर ही आरक्षण मिलेगा। और भारत में आरक्षण का मतलब नौकरी होती है। जो है नहीं। ये तो देश का सच है। लेकिन कल्पना कीजिये, जब पटेल से लेकर मराठा और गुर्जर से लेकर जाट तक देश भर में नौकरी के लिये आरक्षण की गुहार लगा रहा है, तो आपने कितनों को नाराज किया या कितनो को लालीपॉप दिया। असल में अभी तो मोदी-शाह की हालत ये है कि जो चाटुकार दरबारी कह दें और इस आस से कह दें कि इससे जीत मिल जायेगी। बस वह निर्णय लेने में देर नहीं होगी। पर बंटाधार तो इसी से हो जायेगा।’
‘तो रास्ता क्या है?’ अब प्रोफेसर साहेब बोले। और ये सुन कर वापस कुर्सी पर बैठते हुये स्वयंसेवक महोदय बोल पड़े, ‘रास्ता सत्ता का नहीं बल्कि सत्ता गंवाने का ठीकरा सिर पर ना फूटे, इस रास्ते को बनाने के चक्कर में समूचा खेल हो रहा है।’
‘तो क्या अखिलेश के बाद अब मायावती पर भी सीबीआई डोरे डालेगी ?’
‘नही प्रोफेसर साहेब, ये गलती तो कोई नहीं करेगा। लेकिन आपने अच्छा किया जो मायावती का जिक्र कर दिया। क्योंकि राजनीति की समझ वहीं से पैदा भी होगी और डूबेगी भी।’
‘क्यों ऐसा क्यों ….?’
मेरे सवाल करते ही स्वयंसेवक महोदय बोल पड़े- ‘वाजपेयी जी समझिये, .मायावती दो नाव की सवारी कर रही हैं। और मायावती को लेकर हर कोई दो नाव पर सवार है। पर घाटा मायावती को ही होने वाला है।’
‘वह कैसे…?’
‘प्रोफेसर साहेब जरा समझें, मायावती चुनाव के बाद किसी के भी साथ जा सकती हैं। कांग्रेस के साथ भी और बीजेपी के साथ भी। और ये दोनो भी जानते हैं कि मायावती उनके साथ आ सकती हैं। और मायावती ये भी जानती हैं कि अखिलेश यादव के साथ चुनाव से पहले गठबंधन करना उनकी मजबूरी है, या कहें दोनो की मजबूरी है। क्योंकि दोनो ही अपनी सीट बढ़ाना चाहते हैं। पर अखिलेश और मायावती दोनो समझते हैं कि राज्य के चुनाव में दोनो साथ रहेगें तो सीएम का पद किसे मिलेगा! लड़ाई इसी को लेकर शुरु होगी तो वोट ट्रांसफर तब नहीं होगें। लेकिन लोकसभा चुनाव में वोट ट्रासफर होगें। क्योंकि इससे चुनाव परिणामो के बाद सत्ता में आने की ताकत बढे़गी। पर मायावती के सामने मुश्किल यह है कि जब चुनाव के बाद मायावती कहीं भी जा सकती हैं तो उनके अपने वोटबैंक में ये उलझन होगी कि वह मायावती को वोट, किसके खिलाफ दे रही है। और जिस तरह मुस्लिम-दलित ने बीजेपी से दूरी बनायी है। और अब आरक्षण के सवाल ने टकराव के नये संकेत भी दे दिये हैं तो फिर मायावती का अखिलेश को फोन कर सीबीआई से न घबराने की बात कहना अपने स्टैंड का साफ करने के लिये उठाया गया कदम है। पर सत्ता से सौदेबाजी में अभी सबसे कमजोर मायावती के सामने मुश्किल ये भी है कि कांग्रेस का विरोध उसे मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तिसगढ में और कमजोर कर देगा।’
‘चाय खत्म करने से पहले एक सवाल का जवाब तो आप ही दे सकते हैं ‘…. प्रोफेसर साहेब ने स्वयंसेवक से पूछा ‘ संघ क्या सोच रहा है?’
‘हा हा हा …ठहाका लगाते हुये स्वयंसेवक महोदय बोल पड़े – ‘संघ सोच नहीं रहा देख रहा है।’
‘तो क्या संघ कुछ बोलेगा भी नहीं ….?’
‘संघ बोलता नहीं बुलवाता है। और कौन बोल रहा है, और आने वाले वक्त में कौन -कौन बोलेगा….इंतजार कीजिये, फरवरी तक बहुत कुछ होगा।’
लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।