बीएसपी से गठबंधन होता तो जीत कर भी हार जाते राहुल!

तब यह मिथक मजबूत होता कि कांग्रेस, बीजेपी को सीधी लड़ाई में नहीं हरा सकती।

पंकज श्रीवास्तव


राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों ने काँग्रेसअध्यक्ष राहुल गाँधी का कद राजनीति के आकाश में कई गुना बढ़ा दिया है। उनका आत्मविश्वास देखने लायक है। यह आत्मविश्वास का ही नतीजा है कि उन्होंने एक ऐसा जोखिम लिया, जिसकी वजह से वे हार भी सकते थे या जीतते तो  इसका सेहरा उनके सिर कतई न बँधता। तब बीजेपी विरोधी राजनीति के केंद्र में राहुल नहीं मायावती होतीं।

2017 में यूपी में बीजेपी को मिली धुआँधार जीत के बाद ‘महागठबंधन’ विपक्ष के एक मजबूरी बन गया। सपा और बसपा जैसे पुराने दुश्मन साथ आने को मजबूर हुए। गठबंधन का पहला टेस्ट उपचुनाव थे। कांग्रेस की जमीनी हालत पतली जान कर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन में कांग्रेस को तवज्जो नहीं दी और कांग्रेस प्रत्याशी होने के बावजूद गोरखपुर और फूलपुर जैसे प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव जीत लिया।

स्वाभाविक था कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत के लिए आतुर राहुल गाँधी हर हाल में सपा और बसपा को अपने पाले में रखते। बीएसपी का तो उनके लिए खास महत्व था क्योंकि मध्यप्रदेश में 15.6 फीसदी, राजस्थान में 17.8फीसदी और छत्तीसगढ़ में 11.6 फीसदी दलित आबादी है और राजनीतिक पंडितों ने यह बात प्रचारित कर रखी है कि दलित आँख मूँदकर मायावती के पीछे है।

इसमें शक नहीं कि तीनों राज्यों में महागठबंधन बनता तो बीजेपी की बेहद बुरी हार होती। मध्यप्रदेश और राजस्थान में बीजेपी ने जैसा संघर्ष दिखाया, वह मुमकिन न हो पाता। लेकिन यह मिथक और मजबूत होता कि कांग्रेस या राहुल गाँधी सीधी लड़ाई में बीजेपी को हरा नहीं सकते। उन्हें हमेशा सहारे की जरूरत रहेगी। ऐसे में जीत के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महागठबंधन में भी दोयम दर्जा ही हासिल होता।

कांग्रेस की क़िस्मत अच्छी थी कि मायावती ने समझौते की इतनी कड़ी शर्तें रख दीं (मध्यप्रदेश में 50 सीटें!) की कुछ बड़े नेताओं की दिली इच्छा के बावजूद गठबंधन नहीं हो सका। राहुल गाँधी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। यह एक बड़ी संभावना पर पानी फेरने जैसा था क्योंकि राजनीतिक पंडितों ने मान लिया था कि मायावती के हाथी पर सवार अजित जोगी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत की संभावना में पलीता लगा देंगे और नतीजे के बाद वही किंग मेकर साबित होंगे वहीं मध्य प्रदेश में खासतौर पर कांग्रेस के नुकसान की भविष्यवाणी की गई थी।  

लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि राहुल गाँधी का जोखिम उठाना काम आया। वरना गठबंधन से मिली जीत के बाद मीडिया उन्हें ‘पप्पू’ ही बनाए रहता। बीजेपी भी यही बताने की कोशिश करती कि यह राहुल की नहीं मायावती की जीत है। चैनलों के कैमरे के केंद्र में तब राहुल नहीं मायावती होतीं। राहुल जीत कर भी हार जाते। अब कांग्रेस राजस्थान और मध्यप्रदेश में बिना बीएसपी की मदद के भी सरकार बना सकती है। हालाँकि मायावती ने समर्थन का ऐलान कर दिया है।  

नतीजे यह भी बताते हैं कि मायावती लखनऊ या दिल्ली में बैठकर रिमोट से दूसरे प्रदेशों में बीएसपी का संगठन मजबूत नहीं कर सकतीं। इसके लिए जमीनी संघर्ष करना होगा औरस्थानीय स्तर पर नेतृत्व पैदा करना होगा। यह संयोग नहीं कि बीएसपी का प्रदर्शन इन प्रदेशों में पहले के मुकाबले खराब हुआ।

जिस मध्यप्रदेश में मायावती को सबसे ज़्यादा उम्मीद थी, वहाँ बीएसपीको 5 फीसदी वोट और दो सीटें मिलीं हैं। पिछली बार यहाँ 6.29 फीसदी वोट मिले थे और उसने चार  सीटें जीती थीं। 1993 में बीएसपी को मध्यप्रदेश में 11 सीटें (7.05 फ़ीसदी वोट) और 1998 में भी 11 सीटें (6.15 फ़ीसदीवोट) मिली थीं। 2003 में दो सीटें (7.26 फीसदी वोट) और 2008 में 7 सीटें (6.29फ़ीसदी वोट) मिली थीं। यानी पहले के मुकाबले बीएसपी पीछे चली गई।

बीएसपी छत्तीसगढ़ में अजित जोगी की जनता कांग्रेस (छत्तीसगढ़) के साथ मिलकर लड़ी पर उसे महज़ 3.9 फीसदी वोट मिले और दो प्रत्याशी ही जीत सके। 2013 में 4.27 फीसदी वोट पाकर उसने एक सीट हासिल की थी। ऐसा लगता है  कि इस गठबंधन ने अनुमान से उलट बीजेपी का नुकसान किया जिससे कांग्रेस की आँधी उठी जबकि तमाम सर्वेक्षण लहर का भी अनुमान नहीं लगा पाए थे।  

बीएसपी ने राजस्थान में पिछले के मुकाबले थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया।इस बार उसे 4 फीसदी वोट के साथ छह सीटें हासिल हुईं जबकि पिछली बार 3.37 फीसदी वोट के साथ उसे महज़ तीन सीटें मिली थीं। 2008 में उसका प्रदर्शन सबसे अच्छा था जब उसे 7.60 फीसदी वोट के साथ छह सीटें हासिल हुईं थी।

इससे एक बात यह भी साबित होती है कि यूपी के बाहर दलितों को बीएसपी का प्रतिबद्ध वोटर नहीं कहा जा सकता। दलित, स्थानीय राजनीति के हिसाब से तमाम दूसरी पार्टियों का साथ देते हैं। मायावती उनकी प्रतिबद्धता को लेकर अति आत्मविश्वास का शिकार हो गईं। जबकि राहुल का आत्मविश्वास और जोखिम लेने की क्षमता ने उन्हें ‘नायक’ का नया अवतार दिया है। अब मोदी विरोधी महागठबंधन के केंद्र में राहुल होंगे और यूपी में भी सपा और बसपा गठबंधन कांग्रेस को हल्के में नहीं ले पाएगा। राहुल की कांग्रेस यूपी में अकेले लड़कर भी संभावना बन सकेगी।

(लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।)    



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