भयावह मंदी की आहट में मोदी-2 सरकार 100 दिन पूरे होने का जश्न मना रही है !

जैसी हालत है, वह 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की खुशगवारी के प्रचार से सुधर नहीं सकती। विशेषज्ञ मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आगामी दो महीने बेहद संकटपूर्ण हैं। लेकिन साहेब को को उपलब्धियों के ढोल नगाड़े बजाने से फुर्सत नहीं है। सरकार की गलत आर्थिक नीतियों ने देश की अर्थव्यवस्था को तबाही के कगार पर पहुंचा दिया है। रिजर्व बैंक के आंकड़े बता रहे हैं कि मार्च 2017 के अंत तक बैंकों की तरफ से उपभोक्ता वस्तुओं के लिए रिकॉर्ड 20791 करोड़ रुपये का लोन दिया गया। लेकिन जैसे ही नोटबंदी की गई इसमें 73 फीसदी की गिरावट आई है। वित्त वर्ष 2017-18 में इसमें 5.2 फीसदी की कमी हुई।

साल 2018-19 में इसमें 68 फीसदी की भारी कमी देखने को मिली और नोटबंदी के बाद बैंकों ने महज 5623 करोड़ रुपये ही लोन दिया। यह दिखा रहा है कि माँग किस तेजी से कम हुई है और माँग में तेजी आएगी कहां से!

जब लाखो लोग एक झटके में बेरोजगार हो जाएंगे! स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2019 नामक रिपोर्ट से पता चलता है कि बीते दो वर्षों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 50 लाख लोगों ने अपना रोज़गार खो दिया है।

(Source: The State of Working India Report 2019)

जीडीपी की वृद्धि दर गिरते गिरते 8 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तक आ पुहंची है लेकिन यह भी वास्तविक नहीं है, असलियत तो यह है कि वृद्धि दर शून्य प्रतिशत पर पहुंच गयी है। यह मैं नहीं- जानेमाने अर्थशास्त्री अरुण कुमार कह रहे हैं। दरअसल भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र की ही है, इसलिए यहां आने वाली कमी का असर अब संगठित क्षेत्र पर भी पड़ने लगा है।

असल में, तिमाही विकास दर की गणना सिर्फ 3,000 कंपनियों के आंकड़ों से होती है। इसमें असंगठित क्षेत्र तो दूर, पूरे संगठित क्षेत्र को भी शामिल नहीं किया जाता, इसीलिए जीडीपी की वृद्धि की वास्तविक दर को कम करके आंका जाना चाहिए ऑटोमोबाइल, FMCG जैसे क्षेत्रों में आ रही गिरावट भी इसकी तस्दीक कर रही है।

ऑक्सफोर्ड से पढ़े हुए अर्थशास्त्री पुलापरे बालाकृष्णन ने प्रतिष्ठित पत्रिका इकॉनमिक और पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में प्रकाशित ‘अनमूव्ड बाई स्टैबिलिटी’ शीर्षक शोध पत्र में लिखा है कि “मैक्रोइकॉनमिक नीतियां साल 2014 से ही अर्थव्यवस्था को कमजोर करने वाली रही हैं। सरकार ने अपनी दोनों ही भुजाओं- एक मौद्रिक नीति और दूसरी राजकोषीय नीति का प्रयोग अर्थव्यवस्था में मांग को घटाने के लिए किया। इससे निवेश भी प्रभावित हुआ।”

उन्होंने कहा कि मोदी सरकार अपनी मैक्रोइकॉनमिक नीतियों के असर का अंदाजा नहीं लगा पाई। उन्होंने कहा, “इसके साथ ही इसमें सरकार की तरफ से चूक भी शामिल है। सरकार ने अवसंरचना और नौकरियां दोनों को बढ़ाने का वादा किया था, जिसे सरकार द्वारा व्यय बढ़ाने से ही पूरा होता। इससे निजी निवेश में बढ़ोतरी होती। लेकिन व्यवस्थित रूप से यह प्रयास नहीं किया गया।”

लेकिन सरकार को आक्सफोर्ड या हार्वर्ड में पढ़े लिखे लोगो की जरूरत है कहां ? उनका काम तो हार्ड वर्क से चलता है और इन हार्ड वर्क वालो ने अर्थव्यवस्था की बारह बजाने में वाकई हार्ड वर्क ही किया है और तुर्रा यह है कि अब इस बात का जश्न भी मनाया जा रहा है। मनाइए जश्न अर्थव्यवस्था की बर्बादी की और बजाइये ढोल नगाड़े ।

रोम जल रहा है और नीरो बंसी बजाने में मगन है !

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