रविंदर गोयल
पिछले कुछ दिनों से एक दिलचस्प नज़ारा देखने को आ रहा है. चोर मचाये शोर की तर्ज़ पर वर्त्तमान में अघोषित इमरजेंसी के सूत्रधार, इमरजेंसी और उसके कुकर्मों पर इतना जोर जोर से बोल रहे हैं कि इमरजेंसी विरोध की गंभीर, अहम् ,विचारशील और जिम्मेवार आवाजें बहुत सुनाई नहीं दे रही हैं.
यूँ तो यह नौटंकी हर साल ही होती है पर इस साल बात कुछ और ही है. इमरजेंसी विरोध अभियान में मोदी, जेटली वेकिय्याह नायडू से लेकर सरकारी तंत्र के सभी लगे हुए हैं. ऐसे में वर्तमान हालात से त्रस्त कई इमानदार साथी तो येन केन प्रकारेण इमरजेंसी और इंदिरा गाँधी की खूबियाँ गिनाने लगे हैं. या बहुत ही भोलेपन से इमरजेंसी की ज्यादितियों का ठीकरा संजय गाँधी के सर पर फोड़ इंदिरा या इमरजेंसी की तरफदारी कर रहे हैं. कुछ तो यह कह रहे हैं की जिस ‘तानाशाह’ इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था, उसी इंदिरा गांधी ने चुनाव भी कराए थे, जिसमें वे और उनकी पार्टी बुरी तरह पराजित हुई थीं. जिस जनता ने इंदिरा गांधी को आपातकाल के लिए यह निर्मम लोकतांत्रिक सजा दी थी उसी जनता ने तीन साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत के साथ जिता दिया. इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं. जाहिर है कि देश की जनता ने इंदिरा गांधी को लोकतंत्र से खिलवाड़ करने के उनके गंभीर अपराध के लिए माफ कर दिया था.
अपनी लाख सदिच्छाओं के बावजूद उपरोक्त सोच सही नहीं है. इमरजेंसी के बारे में निम्न 3 बातों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए
- .इमरजेंसी इंदिरा गाँधी द्वारा खुली तानाशाही का ऐलान था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं के उससे पहले जनवादी अधिकार सबको मिले हुए थे. मेहनती लोगों के अधिकार तो बाधित थे पहले भी. हजारों कम्युनिस्ट कार्यकर्ता जेलों में बंद थे.बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय पुलिस सरकार चला रहे थे .लेकिन इमरजेंसी उस समय बढती तानाशाही की मुहीम का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था.
- आज जब भाजपाई इमरजेंसी के सवाल पर भाषण देते हैं तो उनकी मंशा यह नहीं है कि भविष्य में इमरजेंसी के हालात दोहराए न जाएँ. उनके इस चर्चा से कई उद्देश्य साधने की मंशा है. उनकी चीख-चिल्लाहट को सरकारी नाकामियों को छुपाने की कोशिश के रुप में भी देखा जा सकता है. यह भी कहा जा सकता है कि संघी कांग्रेस को कोसने के लिए गाहे-बगाहे आपातकाल का जिक्र अपने उन कार्यों पर नैतिकता का पर्दा डालना चाहते हैं जिनकी तुलना आपातकालीन कारनामों से की जाती है. और सबसे बड़ी बात कि वो इमरजेंसी और उसके दोहराव को रोकने के लिए उठ रही चर्चा को अपने ऊंचे शोर में दबा देना चाहते हैं.
- और अंतिम बात, 77 में जनता पार्टी द्वारा इंदिरा तानाशाही को करारा धक्का लगा था. सभी सोचने वाले लोगों ने उस समय जनता पार्टी की मदद की थी. लेकिन वो तज़रबा आगे नहीं बढ़ सका. जनता पार्टी टूट फूट की शिकार हुई और उसीका एक महत्वपूर्ण घटक, जनसंघ, आज फिर तानाशाही का आगाज़ करने की जुगत भिड़ा रहा है. इसका कारण है की इन सबकी पक्षधरता पैसे वाले शोषक तबकों के साथ है और इनका केवल कुर्सी हथियाने का झगडा है। ऐसे में जरूरी है की जब तक समय इज़ाज़त देता है, हमें इस या उस चुनावी पार्टी का पल्ला पकड़ने के फेर में रहने के बजाय, मेहनती तबकों की लड़ाई लड़ने वाले विभिन्न तबकों, जैसे विभिन्न कम्युनिस्ट संगठन, विभिन्न समाजवादी संगठन, स्वराज अभियान और अन्य ईमानदार गैर संगठन बद्ध व्यक्तियों के बीच एका कायम करने का प्रयास करना चाहिए और आमजन की मांगों पर आन्दोलन का प्रयास करना चाहिए.
तय है की यदि अन्य चुनावबाज पार्टियों ने संघ को पटकनी दे भी दी, तो शीघ्र ही वो तानाशाही के पथ पर चल देंगे. यदि देश में जनतंत्र को मजबूत और सुरक्षित करना है तो तज़रबा गवाह है की वो मजदूरों-किसानों के हक़ में जुटे संगठनों के दम पर ही हो सकता है. यदि इस बीच प्रगतिशील ताकतों की कमजोरी के चलते चुनावबाज पार्टियों से कुछ उम्मीद लगाओगे तो तज़रबा जनता पार्टी के शासन से कुछ भिन्न नहीं होगा. यह गलत नहीं है कि – those who forget history are condemned to relive it. किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
नयी तरकीब लाजिम है नयी तामीर की खातिर
हुआ क्या तू अगर कुछ गिरती दीवारों को थाम आया.
(लेखक सत्यवती कॉलेज के पूर्व शिक्षक हैं।)