चुनावी फ़्रिज का बीफ़ और पत्रकारिता के सागर में रिसता ज़हर !

dayasagar

 

 

 

 

 

 

 

ऊपर की फ़ेसबुक पोस्ट को ग़ौर से देखिये। दया सागर नाम के सज्जन हिमाचल प्रदेश में एक बड़े अख़बार के संपादक हैं। इनकी प्रोफाइल बता रही है कि लखनऊ के हैं और आईआईएमसी से पत्रकारिता पढ़कर निकले हैं। पता चला है कि कई अख़बारों में काम कर चुके हैं, यानी ख़ासे अनुभवी हैं। ज़रा उनकी भाषा पर ग़ौर करें जो 2 जून की शाम की गई पोस्ट में दर्ज है–
“ग़रीब मुसलमानों को दो जून की रोटी और सस्ती दाल दे दो साहेब। वे गाय को मार कर कभी फ्रिज में नहीं रखेंगे। गाय को लेकर उनके मन में भी दया है। सीधे सादे लोगों को तो वे अल्लाह मियां की गाय कहकर नवाजते हैं।”

दयाभाव से छलछलाती और ‘साहेब’ को संबोधित इस पोस्ट में जो कहा जा रहा है, वह बड़ा स्पष्ट है। दरअस्ल संपादक महोदय इस अफ़वाह पर मुहर लगा रह हैं कि दादरी में मारे गये अख़्लाक़ के घर फ्रिज में गोमांस ही रखा था। संदर्भ मथुरा लैब की रिपोर्ट है, हाँलाकि वे यह बता नहीं रहे हैं। चूँकि संपादकजी विश्व हिंदू परिषद या संघ के कार्यकर्ता तो हैं नहीं, इसलिए वे इसका ज़िम्मेदार ‘महंगाई’ को ठहरा रहे हैं। यह ‘सहमति निर्माण’ के खेल का ज़बरदस्त उदाहरण है जिसके ज़रिये मुसलमानों की यह तस्वीर हिंदुओं के मन में बैठाई जा रही है कि ”मुसलमान गाय को काटकर फ्रिज में रख लेता है।” यह महीन काम है जिसके लिए बुद्धिजीवियों वाला अंदाज़ चाहिए, यह योगियों और साक्षियों के वश का नहीं है।

सागर संपादक का यह तर्क विस्तारित होकर वहाँ तक पहुँचता है कि बीफ़ खाने वालों को मार डालना उचित है। या अख़्लाक़ की हत्या उसकी करनी का नतीज है। ऐसा सोचने वालों को न संविधान की परवाह है और न तमाम अदालती फै़सलों की जो लोगों के खान-पान की आज़ादी का हक़ देता है। कई राज्यों में अगर बीफ़ प्रतिबंधित है तो कई राज्यों में यह सामान्य भोजन। इस विविधिता का नाम ही भारत है। पूर्वोत्तर और केरल के बीजेपी नेताओं के लिए बीफ़ एक सामान्य भोजन है और जब तक असम और केरल में चुनाव थे, यह मुद्दा ग़ायब था। उत्तर प्रदेश में अमित शाह के कैंप गाड़ने के साथ ही ऐसे सारे तमाम मुद्दे उतराने लगे हैं

ग़ौर से देखिये तो अपने मूल में यह एक कुटिल पोस्ट है जिसका इरादा वही है जो किसी दंगाई का हो सकता है। तथ्य यह है कि मथुरा लैब की रिपोर्ट या कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि दादरी कांड के बाद अख़्लाक़ के घर फ्रिज में रखे माँस का नमूना लिया गया था। फिर संपादक जी को यह इलहाम हुआ कहाँ से ? जो लोग मंदिरों में गाय का माँस फेंककर दंगा कराने में माहिर रहे हैं, वे बिसहड़ा में भी ऐसा कर सकते हैं। यह ‘मिशन यूपी’ के लिए मुज़्फ्फ़रनगर दोहराने में जुटे रणनीतिकारों का मीडिया मैनेजमेंट है जिसका शिकार अमर उजाला के दया सागर ही नहीं, न जाने कितने संपादक और रिपोर्टर हो चुके हैं। कुछ जानबूझकर इस साज़िश में शामिल हैं तो कुछ टीआरपी बटोरने का लक्ष्य हासिल कर रहे हैं।

अख़लाक़ की हत्या 28 सितंबर 2015 की रात 10:30 बजे के आसपास हुई। हमलावरों की भीड़ जुटाने और उनमें उन्माद जगाने के लिए एक अफवाह भी फैलाई गई कि अख़लाक़ और उनके परिवार ने गोहत्या की है और गाय का मांस खाया है।

ग्रेटर नोएडा पुलिस ने इस केस में हत्या समेत कई धाराओं में मुकदमा दर्ज करके तफ्तीश और कार्रवाई शुरू की लेकिन इस पहलू पर भी ख़बरें साथ-साथ चलती रहीं कि क्या अख़लाक़ और उनके परिवार ने सचमुच में गोमांस खाया था या महज़ अफवाह फैलाकर उन्हें मार डाला गया?

दिल्ली से दादरी पहुंचने वाले रिपोर्टरों ने इस पहलू पर ख़बरें फ़ाइल करना शुरू किया। ज़्यादातर ने दावा किया कि ग्रेनो पुलिस ने अख़्लाक़ के घर से मांस का सैंपल जांच के लिए उठाया है। कुछ ने यहां तक दावा कर दिया था कि पुलिस ने गोश्त फ्रीज़ से निकाला था। TOI,HT, The Indian Express समेत हिंदी के बड़े अख़बार खंगालकर इसकी पड़ताल की जा सकती है। हिंदी अख़बार और टीवी के धुरंधर क्राइम रिपोर्टर इनसे भी बदतर रिपोर्टिंग कर रहे थे। तथ्य यह है कि ग्रेनो पुलिस ने अख़लाक़ के घर से मांस का कोई सैंपल कभी नहीं उठाया था।

दादरी कांड की केस डायरी में साफ लिखा है कि मांस घटनास्थल यानी कि ट्रांसफार्मर के पास से उठाया गया। भारतीय मीडिया की धुलाई करने वाली अंग्रेज़ी वेबसाइट न्यूज़ लॉन्ड्री ने भी ग्रेनो पुलिस से बात करके एक तथ्य को साफ किया है। NL की रिपोर्ट में दादरी के सर्किल ऑफिसर अनुराग सिंह कहते हैं कि हमने ना कभी अख़लाक़ के घर से सैंपल उठाया और ना ही कभी इस तरह का कोई बयान जारी किया। इसके बावजूद भारतीय मीडिया झूठी ख़बरें के हवाले से अपने दर्शकों-पाठकों को बेवकूफ़ बना रहा है।

सैंपल पर एक रिपोर्ट वारदात के फौरन बाद दादरी के वेटनरी ऑफिसर ने तैयार की थी। उन्होंने सैंपल को मटन बताया था लेकिन मथुरा लैब की रिपोर्ट इसके उलट है। इसमें सैंपल को बीफ़ बताया गया। ये रिपोर्ट पब्लिक होने के बाद भारतीय मीडिया एक बार फिर अपने पाजामे से बाहर हो गई और आदतन फर्ज़ी ख़बरें दिखाना शुरू कर दिया। India Today, Economic Times, DNA, Times of India, Hindustan Times, Zee News और ABP समेत ज़्यादातर ने लिखा कि ‘अख़्लाक़ के घर से लिए गया सैंपल मटन नहीं बीफ़ था।’

दादरी या मथुरा लैब से हुई रिपोर्ट में कहीं ज़िक्र नहीं है कि सैंपल अख़्लाक़ के घर से उठाया गया। किसी पुलिस अफसर ने इस तरह का बयान जारी नहीं किया। इसके बावजूद मीडिया अपनी मनगढ़ंत ख़बरें चला रहा है। इसपर प्राइम टाइम में बहस तक करवा रहा है। बहरहाल, इसी दौरान बीबीसी के रिपोर्टर वीनीत खरे ने नोएडा के एसएसपी को फोन करके ख़बर छापी। बीबीसी के मुताबिक सैंपल अख़लाक़ के घर का नहीं बल्कि ट्रांसफार्मर के पास से उठाया गया था। न्यूज़ लॉन्ड्री ने भी अपनी ख़बर में इसी तथ्य को साफ़ किया है लेकिन मुख्यधारा का मीडिया लगातार फर्ज़ी खबरों और बहसों के ज़रिए उन्माद को हवा देने की कोशिश कर रहा है।

यह किसी एक सागर का मामला नहीं है…मीडिया का पूरे सागर में ही ज़हर फैलता जा रहा है..! अपने आप नहीं, इसके पीछे तमाम आला दिमाग़ जुटे हैं, जैसे किसी प्रोजेक्ट में जुटते हैं। 

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