रामशरण जोशी
मुख्यधारा की दोनों पार्टियों-नवाज़ शरीफ़ की मुस्लिम लीग और भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल पार्टी ने ‘चुनाव रिग्गिंग ‘ या ‘चुनाव धांधली ‘ के आरोप लगाये हैं. दोनों पार्टियों के नेताओं को कहना है की फौजी नेतृत्व ने सुनियोजित ढंग से संसद (नेशनल असेंबली ) और प्रांतीय असेंबली (या विधानसभाओं ) के चुनावों में व्यापक स्तर पर धांधलियां कराई हैं. इस काम में कट्टरपंथी तंजीमों ( सगठनों ) का इस्तेमाल किया गया.राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के वोट काटने के लिए फ़र्ज़ी उम्मीदवार खड़े किये गए.मुख्यधारा के दलों व नेताओं को हराया गया और पठान नेता इमरान खां के पार्टी – तहरीके-ए- इन्साफ के उम्मीदवारों को जिताया गया. हालांकि, इस दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. साधारण बहुमत के लिए इमरान को फौज समर्थित दूसरे दलों से मदद लेनी पड़ेगी . बेशक़, इन आरोपों में कितनी सच्चाई है, यह जांच का विषय है.वैसे पाक के चुनाव आयोग ने ऐसे आरोपों को फौरी तौर पर खारिज कर दिया है.
तात्कालिक टिप्पणी का यह एक पक्ष है. लेकिन इन चुनाव परिणामों का एक दूसरा पक्ष भी जो मेरी दृष्टि से भारतीय सन्दर्भ में कहीं अधिक अहम् है. इस पक्ष का सीधा संबंध पाकिस्तान के अवाम या जनता से है
इस स्तम्भ में मैं उस मंज़र को पेश कर रहा हूँ जिसे भारतीय मीडिया ने लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया है.बौद्धिक क्षेत्र भी खामोश से हैं.
कल्पना करिये, इन चुनावों में पाकिस्तान के आतंकी संगठनों के अधिकांश उम्मीदवार चुनाव जीत जाते. यहाँ तक कि कुख्यात आतंकी नेता हाफिज सईद के बेटे और दामाद भी चुनाव जीत जाते , तब क्या होता? भारत के अधिकाँश चैनल पाक समाज को तालिबानी घोषित कर रहे होते. पंचम स्वर में ‘ ध्रुवीकरण ‘ का राग अलापा जा रहा होता. अर्नब गोस्वामी स्कूल के एंकर अपने अपने चैनलों पर ‘आतंकवाद व मुम्बई घटना ‘ पर कान फोड़ बहसें करा रहे होते और ‘ हिंदुत्व ‘ का डंका पीट रहे होते. भाजपा ,विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल के प्रवक्ता कहा रहे होते कि उन्हें मालूम था कि पाकिस्तान में तालिबानों का राज है. इस देश को ‘आतंकी राष्ट्र ‘ घोषित किया जाए. इस देश के साथ सभी प्रकार के राजनयिक सम्बन्ध समाप्त किये जाएं. देश विरोधियों का सफाया किया जाए. यह राग मई, 2019 के आम चुनावों तक चलता रहता.. लेकिन,उनके मंसूबों पर पानी फिर गया है. पाक अवाम ने नरमपंथियों और माध्यम मार्गियों को चुनाव जिता कर आतंकपरस्त और आतंकजीवियों को निहत्था कर दिया है. हमारे चैनल खामोश हैं. इन चैनलों पर आतंकी तंज़ीमों की शिकस्त पर कोई चर्चा या बहस नहीं है.
वास्तव में चुनाव नतीजों की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि 2008 के मुबई विस्फोट काण्ड के मास्टरमाइंड हाफ़िज़ सईद के गुर्गे उम्मीदवारों का सफाया हो गया. यहाँ तक कि आतंकी सईद के बेटे और दामाद,दोनों ही चुनाव हार गए. प्रचार था कि सईद के प्रोक्सी उम्मीदवारों को फौज का पूरा सर्थन था. फिर भी इन दोनों की शिकस्त से आतंकी गुटों को धक्का ज़रूर लगा है और हाफिज सईद की साख पथराई है.कट्टरपंथी और आतंकी दल या प्रोक्सी से चुनाव लड़नेवाली प्रतिबंधित तंजीमों को ज़बरदस्त हार का सामना करना पड़ा है.सईद समर्थित ‘अल्ला-ओ-अकबर तेहरीक’ का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता..ख़बरों के मुताबिक, प्रतिबंधित गुटों से सम्बद्ध सैंकड़ों निर्दलीय उम्मीदवार चुनावों में खड़े हुए थे. लेकिन,संसद या विधानसभा, दोनों में से किसी भी सदन में पहुँचने में नाकाम रहे हैं.यहाँ तक कि मुहम्मद अहमद लुधियानवी , जिनको पहले प्रतिबंधित सूची में रखा गया था और बाद में उनका नाम हटा दिया गया,भी चुनाव नहीं जीत सके. यही हाल ‘मिली मुस्लिम लीग’ के उम्मीदवारों का हुआ.इसका ताल्लुक सईद से माना जाता है. उन्होंने इसके चुनाव प्रचार में शिरकत भी की थी.बावजूद इसके, ‘मज़हबी राष्ट्र’ पाकिस्तान की अवाम ने इसके उम्मीदवारों को सिरे से नकार दिया.सुन्नी ज़मात की कट्टरपंथी तंजीम ‘तहरीक -ए- पाकिस्तान‘ ने 100 से अधिक उम्मीदवारों को खड़ा किया था. सभी हार गए.ऐसी हार का सामना ‘मुताहिदा मजिलिस-ए-अम्ल‘ को करना पड़ा. इस मजलिस को पकिस्तान के विभिन्न मज़हबी संगठनों का सबसे बड़ा’ महागठबंधन ‘ माना जाता है. इसने भी बड़े पैमाने पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे. लेकिन,आठ सीटों पर ही इनका दबदबा रहा,अन्य सीटों पर बुरी तरह से हार रहे थे.
इन चुनाव परिणामों से एक बात साफ़ है कि देश की सर्वसाधारण जनता प्रचारित रूप से किसी भी प्रकार केमज़हबी कट्टरवाद व आतंकवाद के पक्ष में नहीं है. यदि ऐसा रहता तो आतंकी नेता हाफिज सहीद के बेटे हाफिज ताल्हा को सरगोधा इलाके से जीतना चाहिए था. उनके दामाद खालिद वलीद को भी चुनाव जीत जाना चाहिए था. लेकिन आम अवाम ने इन दोनों ही खारिज नहीं किया बल्कि हाफ़िज़ सईद की मज़हबी बुनियाद्परस्ती और दहशतगर्दी को कूड़ेदान के हवाले कर दिया.सभी जानते हैं, मदरसों में तालिबानी संस्कृति का दबदबा है. इस दबदबा की शुरुआत जनरल जिया-उल-हक ने की थी और अमेरिका की सहायता से बढ़ता रहा. इसका अलग इतिहास है.लेकिन, समाज को पीछे धकलने में इसका बड़ा रोल रहा है.शिया बनाम सुन्नी दंगा-फसादात रहे हैं.हिन्दू,ईसाई समुदायों के प्रति नफरत का माहौल रहा है.सारांश में, पूरा पाक समाज दहशतगर्दी की गिरफ्त में माना जाता रहा है.इन सबके बावजूद,सईद के आतंकी गुर्गों की हार इस बात का सुबूत है कि वहां का आम जन चरमपंथी या कट्टरपंथी नहीं है और न ही उसे आतंकवाद का समर्थक कहा जा सकता है। इससे इनकार नहीं, इमराम खां के चोले में दक्षिणपंथी ताकतों की ही जीत हुई है.लेकिन, अवाम ने उन ताकतों के हवाले देश को नहीं किया जो इस्लामाबाद में कट्टरपन और आतंकवाद के नंगे नाच के मंसूबे बाँध रही थी. चूंकि इस लेखक ने पाकिस्तान की यात्राओं में वहां के अवाम को करीब से देखा है. एक रंग के ब्रुश से जनता को नहीं पोत सकते.बेशक कट्टरवाद व आतंकवाद के समर्थक तत्व हैं.हर समाज में ऐसे तत्व होते हैं. मूल सवाल यह है कि जनता उनके हाथों में कितनी कमान देश की सोंपती ?
यही सवाल भारत पर भी लागू होता है. .कल्पना करें, भाजपा का चोला हटा कर,आरएसएस और उसके उसके आनुषागिक संस्थाएं ( विश्व हिन्दू परिषद् , बजरंग दल आदि ) अपने असली नाम से चुनाव लड़ें, तो कितनी सीटें जीत सकेंगे? इसका प्रयोग, नरेन्द्र मोदी,मोहन भागवत करके देख लें ! पता चल जाएगा.हिन्दू महासभा साढ़े पांच सौ प्रत्याशी खड़ा करे तो उसके कितने लोग लोकसभा में पहुँच सकेंगे ? बेशक, जनता आवेश में आती है,भावुक भी हो जाती है लेकिन आधनिक लोकतंत्र के परिवेश में निपट नग्न धार्मिक व आतंकवादी शक्तियों के हवाले देश को करेगी, इससे असहमति है मेरी. यह सही है मुखौटों की शिकार वह होती रही है लेकिन ‘दिगम्बरपन’ उसे पसंद नहीं है.मैं समझता हूँ,लोकतंत्र में जनता के व्यापक सरोकारवाले पक्ष के पक्षधर होने चाहिए..भारतीय मीडिया में पाक जनता के इस उजले पक्ष को सामने रखा जाना चाहिए. इससे उम्मीद की किरणें फूट रही हैं. दोनों देशों के मसले फौज से नहीं, अवाम -अवाम संवाद द्वारा ही हल हो सकते हैं. ध्रुवीकरण के बजाय, समरसता का राग गूंजना चाहिए.
( देश के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक रामशरण जोशी मीडिया विजिल सलहाकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।)