रवीश कुमार
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सुनील दत्त ने कई दशक पहले दर्द का रिश्ता फ़िल्म बनाई थी। मशहूर फ़िल्म आनंद भी कैंसर के एक प्रकार पर थी। भारतीय उपमहाद्वीप में इमरान खान को क्रिकेट के बाहर कैंसर के अस्पताल के लिए ही जाना गया। जो उन्होंने अपनी माँ की याद में बनाई थी। तब तक लगता था कि कैंसर बड़े लोगों की बीमारी है मगर आज हम देख रहे हैं कि इसकी चपेट में हर तबके के लोग हैं। ग़रीब भी और अमीर भी।
मनमोहन सिंह के समय जब ग़ुलाम नबी आज़ाद स्वास्थ्य मंत्री थे तब झज्जर में एम्स का कैंसर के लिए अलग से कैंपस बनाने की योजना बनी थी। 2010 में शिलान्यास भी हुआ मगर आठ साल बीत जाने के बाद इस कैंपस का पहला चरण पूरा हो रहा है। वह भी पूर्व स्वास्थ्य सचिव सी के मिश्रा की तत्परता के कारण यहाँ तक पहुँचा है। हो सकता है प्रधानमंत्री मोदी उस कैंपस का उद्घाटन करें। लेकिन अभी मंज़िल बहुत दूर है। एम्स का डॉ बी आर आंबेडकर आई आर सी एस केंद्र ही एकमात्र जगह है जहाँ ग़रीब से लेकर वीआईपी का कम ख़र्चे में इलाज हो जाता है। बाक़ी अस्पतालों का हाल बहुत बुरा है। दिल्ली के आस पास पहले कैंसर के चार-पाँच अस्पताल थे, अब तीस चालीस के क़रीब खुल गए हैं। प्राइवेट ही ज्यादा हैं।
डॉ अभिषेक ने बताया कि “ ब्रिटेन में दस लाख की आबादी पर रेडिएशन थेरेपी की चार से पाँच मशीनें हैं। भारत में एक मशीन है। इस लिहाज़ से भारत को 1300 रेडिएशन की मशीनें चाहिए। इस वक़्त प्राइवेट और सरकारी मिलाकर 600-650 मशीनें ही हैं। एक मशीन 7-8 करोड़ की आती है। “ भारत को अभी बुनियादी ढाँचा बनाने की दिशा में काम करना है। काम हो रहा है मगर राज्यों के स्तर पर स्थिति अच्छी नहीं है।
भारत के स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा हैं जो इस वक्त्त तेलंगाना राज्य के चुनाव प्रभारी हैं। कुछ समय पहले अपने राज्य हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने की लड़ाई लड़ रहे थे। उससे पहले उत्तराखंड के चुनाव प्रभारी थे। मंत्री जी ही बता सकते हैं कि वे स्वास्थ्य मंत्री कब थे ! इतना अहम मंत्रालय संभालने वाला शख़्स अगर चुनावों में व्यस्त रहेगा तो हेल्थ को लेकर कब सक्रिय होगा। मंत्रियों को भी अपने साथी को खो देने की दुख की इस घड़ी में इन सवालों को भी बेहद सख़्ती से देखना होगा।
ओबामा जब राष्ट्रपति थे तब उनके साथ जॉन बिडेन उपराष्ट्रपति थे। उनके बेटे को कैंसर हुआ। उपराष्ट्रपति होते हुए भी बिडेन अपने बेटे के इलाज का ख़र्चा नहीं उठा सके। घर बेचने की नौबत आ गई थी। बाद में बेटे की मौत के बाद बिडेन ने कहा कि वे राजनीति से सन्यास लेकर कैंसर के ख़ात्मे और रोकथाम के लिए काम करेंगे। बिडेन और उनकी पत्नी ने अमरीका भर में दौरा किया। कैंसर पर रिसर्च करने वालों से बात की। अस्पतालों का दौरा किया। डॉक्टरों से समझा। फिर पाँच साल का एक कार्यक्रम तैयार किया। जिसे ओबामा ने स्वीकार किया था। इसे व्हाइट हाउस मूनशॉट प्रोग्राम कहा जाता है। इसका लक्ष्य है कैंसर से बचाने के रिसर्च और उपायों को जल्दी अंजाम पर पहुँचाना।
अमरीका में हर साल पाँच लाख लोग कैंसर से मर जाते हैं। 2016 में सत्रह लाख अमरीकन को कैंसर था। भारत में यह आँकड़ा निश्चित ही अधिक होगा। बिडेन ने क़ानून भी पास कराया जिसे the 21stCentury Cures Act कहते हैं। इसके तहत कैंसर मूनशॉट प्रोग्राम को अगले सात साल में 1.8 अरब डॉलर दिया जाएगा। बिडेन इस एक्ट को लेकर इतने सक्रिय थे कि खुद बीस सिनेटर से मुलाक़ात की। इस एक्ट के लिए राज़ी किया।
काश ऐसी ज़िद भारत के किसी नेता में आ जाए। कैंसर होते ही मरीज़ के साथ पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है। कई संस्थाएँ कैंसर के मरीज़ों के लिए काम करती हैं मगर इसे लेकर रिसर्च कहाँ है, जागरूकता कहाँ है, तैयारी क्या है?
लेखक वरिष्ठ टी.वी.पत्रकार हैं।