उच्च शिक्षा में फ़ीस बढ़ाने की साज़िश पर भाषाई छल का पर्दा!

संजीव कुमार

 

भाषा के छल से क्या नहीं किया जा सकता! जनाब जावड़ेकर साहब ने हिन्दुस्तान टाइम्स को एक साक्षात्कार दिया है. उनसे पूछा गया कि क्या स्वात्तता से फीस के ढांचे में बदलाव भी आयेगा, तो उनने जवाब दिया, “केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के मामले में ऐसा कतई नहीं होने जा रहा. यहां तक कि राज्य भी अपनी फीस तय करते हैं, इसलिए वहाँ भी कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी. निजी संस्थान अपनी फीस का ढांचा खुद तय करते हैं, वह जारी रहेगा. इस तरह स्वायत्तता से फीस के फ़ॉर्मूले में कोई बदलाव नहीं आयेगा.”

इस पूरे वक्तव्य में पहले के तीन वाक्य निरर्थक हैं. निजी संस्थान, केन्द्रीय विश्वविद्यालय और राज्य विश्वविद्यालय—तीनों जगह फीस तय करने का अधिकार विश्वविद्यालय के निकायों के हाथ में ही है, इसलिए इनकी अलग-अलग चर्चा करने का कोई मतलब नहीं. यह सिर्फ़ बात को घुमाना है. असल बात यह है कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और राज्य के विश्वविद्यालयों में सरकारी वित्तपोषण और अकादमिक समुदाय की भागीदारी वाली जनतांत्रिक कार्यप्रणाली के कारण फीस का स्तर नियंत्रित रहा है, और यह कथित स्वायत्तता इन्हीं दोनों चीज़ों को खत्म करने जा रही है.

उनका आख़िरी वाक्य प्रथमदृष्टया गलत नहीं है, क्योंकि स्वायत्तता मात्र से फीस के फोर्मुले का सीधा सम्बन्ध नहीं है. लेकिन गहरे स्तर पर उसका सम्बन्ध है और उसे ही झुठलाने के लिए पहले के तीन वाक्यों का रायता पसारा गया है. पहली बात तो यह कि जिन संस्थानों को कथित स्वायत्तता दी गयी है, उन्हें अपने नए पाठ्यक्रम लागू करने, नए विभाग और स्कूल और कैंपस खोलने के लिए यूजीसी की परमिशन दरकार नहीं होगी, पर साथ ही उसकी ओर से कोई वित्तपोषण भी नहीं मिलेगा. क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें विद्यार्थियों से लाखों में फीस वसूलनी होगी? जावड़ेकर साहिब बताएं कि सरकार पैसा नहीं देगी तो फीस बढ़ाये बगैर यह काम कैसे होगा? दूसरी बात, स्वायत्तता के नाम पर जब आप संस्थानों को सार्वजनिक जवाबदेही से मुक्त कर देंगे तो इसका असर निश्चित रूप से व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करने वाली जनतांत्रिक कार्यप्रणाली पर पडेगा, विश्वविद्यालयों के अन्दर की हाइरार्की अधिक मज़बूत और निर्णायक होने लगेगी. ऐसे में फ़ीस बढ़ोत्तरी पर जो अंकुश इस कार्यप्रणाली के कारण लगते रहे हैं, वह ख़त्म हो जाएगा. जहां-जहां ऑटोनोमस कॉलेज की योजनायें पहले लागू हुई हैं, वहाँ वहाँ शिक्षकों की काउंसिल और यूनियन ध्वस्त हो गयीं, जनतांत्रिक कार्यप्रणाली से जो नियंत्रण पैदा होता है, उसकी धज्जियां उड़ गयीं और वे कॉलेज निजी संस्थान की तरह काम करने लगे.

इन दो बातों को ध्यान में रखें, तब समझ आयेगा कि जावड़ेकर साहिब का वक्तव्य भाषा-छल का कैसा नमूना है! उनकी बात का मतलब यही है कि सरकार फीस बढाने को नहीं कहेगी, और अगर उसके द्वारा ही पैदा की गयी नयी परिस्थितियों के दबाव में फीस बढ़ती है तो उसमें सरकार क्या कर सकती है! वैसे भी जब वित्त मंत्रालय के GFR 2017 (जनरल फाइनेंसियल रूल्स 2017) के तहत यह तय कर दिया गया है स्वायत्त संस्थाओं को अपने खर्च का कम-से-कम एक तिहाई और आगे चलकर पूरा का पूरा खर्च अपने द्वारा उगाहे गए राजस्व/रेवेन्यु से चलाना है तो फीस बढ़ोत्तरी का कोई आरोप जावड़ेकर साहिब अपने फ़ैसले पर क्यों आने दें? वह तो वैसे भी होना ही है!

संजीव कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं

 



 

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