विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य दिवस: क्‍या हम भारत को और बीमार बनाने के लिए सरकारें चुनते हैं?

डॉ. ए.के. अरुण


एक फरवरी 2018 को जब लोकसभा में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने स्वास्थ्य बीमा योजना की घोषणा की तब लोगों को सुनने में यह मोदी की ‘मास्टर स्ट्रोक’ योजना लगी। आयुष्मान भारत की नाम की इस बीमा योजना को दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना बताया गया, लेकिन घोषणा के कुछ ही दिनों के अन्दर इस पर सवाल खड़े होने लगे। एक तो विश्लेषकों को शुरू में समझ ही नहीं आया कि 12 हजार करोड़ से ज्यादा की इस महत्वाकांक्षी बीमा योजना में राशि आवंटन की क्या व्यवस्था होगी। दूसरे, इस योजना के लाभ के लिये ‘प्रीमियम’ कौन चुकाएगा? जैसे ही यह बात साफ हो गई कि ‘मोदी हेल्थ केयर’ के नाम से प्रचारित इस बीमा योजना में केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी 30-40 प्रतिशत राशि खर्च करनी है तब लगभग 5 राज्यों ने इस योजना से अपना हाथ खींच लिया। इनमें ओडिशा, तेलंगाना, केरल, पंजाब और दिल्ली की सरकारों ने इसे आयुष्मान भारत के नाम पर बड़ी बीमा कम्पनियों को फायदा पहुंचाने वाली योजना बता कर अपना पल्ला झाड लिया।

जैसे तैसे भाजपा शासित राज्यों में यह योजना जब लागू कर दी गई तब इस योजना से जुड़ी कुछ दूसरी खबरें भी आनी शुरू हो गईं। एक खबर उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले से आई। खबर के अनुसार जिले में कोई 2 लाख 70 हजार गरीब परिवारों को इस योजना से जोड़ा गया, लेकिन इस सूची में गरीब परिवारों के लोगों के नाम के बजाय वहां के नेता, अफसर, चिकित्सक एवं कारोबारियों का नाम शामिल था। मामला जब सुर्खियों में आया तो पता चला कि इस सूची में राज्यसभा सांसद एवं बीजेपी के नेता, उनके विधायक पुत्र व परिवार के लोगों के नाम तथा व्यापारियों के नाम भी इस योजना के लाभार्थी की सूची में है। हरदोई के कई प्रमुख चिकित्सकों के भी नाम इस योजना के लाभार्थी सूची में पाए गए। हालांकि मामला जब उजागर हुआ तो हरदोई के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. एस.के. रावत ने जांच की बात कहकर पल्ला झाड़ लिया। जाहिर है योजना के पहले चरण में ही योजना के लूट और कुछ दुरुपयोग की खबरें आनी शुरू हो गईं और योजना पर सवाल उठने लगे।

इस पृष्ठभूमि में जब हम भारत के लोगों के स्वास्थ्य की चर्चा करते हैं तो एक अलग ही दृश्‍य सामने आता है। देश में लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति आज भी अच्छी नहीं है। विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि कुछ अपवादों को छोड़कर देश के लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में रोगियों की हालत दयनीय है। संक्रामक रोगों से ग्रस्त मरीज भी अस्पताल के बाहर खुले और गन्दे में रहने को मजबूर हैं। अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी है तो गम्भीर रोगियों को भी मेडिकल जांच के लिये महीनों/बरसों तक प्रतीक्षा सूची में इन्तजार करना पड़ता है।

यह बीमारी सत्‍तर साल पुरानी है

आइये सत्तर साल पहले की स्वास्थ्य की स्थिति पर नजर डालें। सन 1943 में अंग्रेजों ने भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की वास्तविक स्थिति जानने के लिये स्वास्थ्य सर्वेक्षण और विकास समिति (भोर समिति) का गठन किया था। भोर समिति ने सन् 1945 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी और स्वास्थ्य सेवा के विकास के लिए एक श्रेणीबद्ध प्रणाली के गठन का सुझाव दिया। इस सुझाव के अनुसार प्रत्येक 20,000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना की बात थी। समिति ने स्पष्ट कहा था कि स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकांश लाभ ग्रामीण क्षेत्रों को मिलना चाहिये। विडम्बना देखिए कि आजादी के बाद सन् 1950 में जो भारतीय स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर उभरी उसमें 81 प्रतिशत सुविधाएं शहरों में स्थापित की गईं। आज भी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की स्थिति कोई अच्छी नहीं है। सन् 1960 के अन्त तक जब देश में बढ़ती विषमता की वजह से जन आन्दोलन उभरने लगे तब सरकार को मानना पड़ा कि सरकारी सुविधाएं गांव तक नहीं पहुंच रही हैं। स्वास्थ्य के बारे में सरकार ने भी माना कि डाक्टरों से गांव में जाकर सेवा देने की उम्मीद लगभग नामुकिन है। फिर सरकार ने सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा को विकसित करने का मन बनाया। इसी नजरिये से डॉ. जे.बी. श्रीवास्तव की अध्यक्षता में एक और समिति बनी। इस समिति ने सुझाव दिया कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधा के लिये बड़ी संख्या में स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार किये जाएं। इसके लिये भारत ने विदेशी बैंकों से कर्ज लेना शुरू किया।

धीरे-धीरे भारत अंतरराष्‍ट्रीय बैंकों के कर्ज के जाल में फंसता चला गया। 1991 से तो भारत सरकार ने खुले रूप से अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की आर्थिक नीतियों को ही लागू करना आरम्भ कर दिया। इसका देश के आम लोगों के जीवन पर गहरा असर भी दिखा। स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी खर्च में कटौती तथा स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के परिणाम स्वरूप बीमारी से जूझते आम लोगों की तादाद बढ़ने लगी। दवा कम्पनियों ने भी दवाओं पर कीमतों का नियंत्रण समाप्त करने का दबाव बनाया और दवाएं महंगी होने लगीं। दवाओं के महंगा होने का सबसे दुखद पहलू था जीवन रक्षक दवाओं का बेहद महंगा हो जाना।

इस बीच धीरे-धीरे जीवन रक्षक दवाएं बनाने वाली देशी कम्पनियां दम तोड़ने लगीं। नई नीतियों की आड़ में गैट (जेनरल एग्रीमेंट आफ ट्रेड एन्ड टैरिफ) के पेटेन्ट प्रावधानों का दखल शुरू हो गया और नतीजा हुआ कि देश के पेटेन्ट कानून 1971 को बदल दिया गया। दवाइयां बेहद महंगी हो गईं। उदाहरण के लिये टी.बी. की दवा आइसोनियाजिड, कुष्ठ रोग की दवा डेप्सोन और क्लोफजमीन, मलेरिया की दवा सल्फाडौक्सीन और पाइरीमेतमीन इतनी महंगी हो गई कि लोग इसे खरीद नहीं पा रहे थे। स्वास्थ्य पर बाजार का स्पष्ट प्रभाव दिखने लगा था। सन् 1993 में विश्व बैंक ने एक निर्देशिका प्रकाशित की। शीर्षक या- ‘‘इन्वेस्टिंग इन हेल्थ।’’ इसमें साफ निर्देश था कि कर्जदार देश फंड-बैंक के इशारे पर स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी मामलों में बजट कटौती करें। धीरे धीरे स्वास्थ्य का क्षेत्र मुनाफे की दुकान में तब्दील होता चला गया। गम्भीरता से विचार करें तो ‘आयुष्मान भारत’ या ‘स्वास्थ्य बीमा योजना’ या ‘मोदी हेल्थ केयर’ की पृष्ठभूमि में यह कहानी आपको सहज दिख जाएगी।

भारत में कैंसर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, श्वास की बीमारियाँ, तनाव, अनिद्रा, चर्मरोगों व मौसमी महामारियों में बेइन्तहा वृद्धि हुई है। बढ़ते रोगों के दौर में जहां मुकम्मल इलाज की जरूरत थी वहां दवाओं को महंगा कर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा को निजी कम्पनियों के हाथों में सौंप दिया गया। सन् 2000 के आसपास निजी अस्पतालों की बाढ़ सी आ गई। कारपोरेट अस्पतालों की संख्या बढ़ी और धीरे-धीरे आम मध्यम वर्ग अपने उपचार के लिये निजी व कारपोरेट अस्पतालों का रुख करने लगा। प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था एक तो मजबूत भी नहीं हो पाई थी ऊपर से ध्वस्त होने लगी और दूसरी ओर बड़े सरकारी अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगी। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थाओं में इलाज एवं निदान के लिये एक-दो वर्ष की वेटिंग मिलने लगी। भीड़ का आलम यह कि अस्पतालों में अफरातफरी और अव्यवस्था का आलम आम हो गया। निजीकरण की वजह से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे सुपर स्पेशिलिटी अस्पतालों में भी इलाज महंगा कर दिया गया। महंगे इलाज की वजह से ‘‘स्वास्थ्य बीमा’’ लोगों के लिये तत्काल जरूरी लगने लगा और देखते-देखते कई बड़ी कारपोरेट कम्पनियां स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में कूद पड़ीं और स्वास्थ्य बीमा का क्षेत्र मुनाफे का एक बड़ा अखाड़ा सिद्ध हो गया।

निजीकरण व वैश्वीकरण के लिये भले कांग्रेस की सरकारें जिम्मेवार हैं लेकिन बाद में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए की सरकारों ने तो और भी जोरशोर से निजीकरण एवं बाजारीकरण को बढ़ाया। कहने को भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वदेशी जागरण मंच के नाम पर स्वदेशी के नारे तो लगाए लेकन बाजारीकरण एवं निजीकरण को बेशर्मी से आगे बढ़ाया। नतीजा स्वास्थ्य और शिक्षा का क्षेत्र निजी मुनाफे के लिये सबसे बेहतरीन प्रोडक्ट के रूप में बढ़ने लगा। अब जब बीमारियाँ लाइलाज हैं, दवाएं महंगी हैं और और आम लोग इतनी महंगी दवाएं और इलाज नहीं ले सकते, तो उन्हें स्वास्थ्य बीमा की मीठी चटनी के बहाने तसल्ली दी जा रही है।

बीमार भारत की तस्‍वीर

भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 0.9 फीसदी है, जो गरीबो और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी दूर है जिनकी संख्या कुल आबादी का करीब तीन-चौथाई है। पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर स्वास्थ्य को कम आवंटन किया है (कुल बजट के अनुपात के संदर्भ में)। सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। उस पर भी ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की मूल दिशा परिवार नियोजन और शिशु जीविका व सुरक्षित मातृत्व (सीएसएसएम) जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों की ओर मोड़ दी गई है जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा कागज़ी लक्ष्यों के रूप में देखा जाता है।

एक अध्ययन के अनुसार पीएचसी का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है। नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य अधिरचना की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है, साथ ही स्वास्थ्य संबंधी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है। यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक से बाद शुरू हुई जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने का आरंभ हुआ। चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है। कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन लगातार घटता हुआ दिखा। चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को दिया जाता है जो कि 1 फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास संबंधी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है।

भारतीय अपने इलाज खर्च का 78 प्रतिशत स्वयं वहन करते हैं

मशहूर स्वास्थ्य पत्रिका लैनसेट में प्रकाशित एक विश्लेषण के अनुसार भारत में स्वास्थ्य पर निजी खर्च 78 प्रतिशत के लगभग है। इसका अर्थ यह हुआ कि मात्र 22 प्रतिशत चिकित्सा-व्यय ही सरकार के खाते में आता है। मतलब आम भारतीय अपनी चिकित्सा के लिए सरकार पर नहीं, खुद पर निर्भर है। एक अध्ययन के अनुसार चीन में चिकित्सा व्यय का 61 प्रतिशत, श्रीलंका में 53 प्रतिशत, भूटान में 29 प्रतिशत, मालदीव में 14 प्रतिशत, जबकि थाईलैंड में 31 प्रतिशत जनता स्वयं खर्च करती है।

‘लैनसेट’ में प्रकाशित एक आलेख ‘फाइनेंसिंग हेल्थ केयर फॉर ऑल: चैलेन्जेज ऐण्ड अपॉचुनिटीज़’ के डॉ. ए.के. शिवकुमार के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 3.9 करोड़ लोग मात्र खराब स्वास्थ्य के कारण गरीबी के गर्त में धकेल दिए जाते हैं। ग्रामीण भारत में वर्ष 1995 के 15 प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2014 में 48 प्रतिशत लोग आर्थिक स्थिति के कारण अपना इलाज नहीं करा सके जबकि शहरों में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत रहा जो कि 1995 में 10 प्रतिशत था। विचलित करने वाला तथ्य यह है कि अस्पताल में इलाज कराने वालों में 47 प्रतिशत ग्रामीण शहरी लोगों ने कर्ज लेकर और संपत्ति बेचकर खर्च जुटाया। डॉ. शिव कुमार प्रधानमंत्री द्वारा गठित उस उच्चस्तरीय कमेटी के सदस्य रहे हैं जो सर्वजन के लिए स्वास्थ्य सुलभ कराने के लिए गठित की गई थी। उनका कहना है कि स्वास्थ्य का क्षेत्र आम आदमी की पहुंच से बाहर है। भविष्य में यह क्षेत्र कर आधारित बनाना होगा। निरोधात्मक चिकित्सा तथा प्राथमिक चिकित्सा को बिल्कुल मुफ्रत तथा नगदविहीन करना होगा, जबकि अनुपूरक चिकित्सा को आंशिक रूप से शुल्क आधरित बनाया जा सकता है। सरकार को यह जिम्मेदारी लेनी होगी और इसके लिए खर्च की व्यवस्था कर-ढांचे से ही करनी होगी।

दिल्‍ली का जनस्‍वास्‍थ्‍य मॉडल

आजादी के बाद पहली बार देखा जा रहा है कि निजीकरण व बाजारीकरण के मजबूत घेरेबन्दी के बावजूद एक एकदम नयी पार्टी (आम आदमी पार्टी) ने स्वास्थ्य सेवा को आम लोगों के लिये शत प्रतिशत मुफ्त कर दिया है। आम आदमी पार्टी के इस ‘मोहल्ला क्लिनिक’ ने तो जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के 70 वर्ष पुराने सपने को मानो पंख दे दिया हो जिसमें प्रारम्भिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की कल्पना थी। आज दिल्ली में यहां की दो करोड़ की आबादी में लगभग 50 प्रतिशत यानि एक करोड़ लोग ‘मोहल्ला क्लिनिक’ का लाभ ले चुके हैं। जन स्वास्थ्य सेवा का यह दिल्ली मॉडल आज पूरी दुनिया के लिये कौतूहल का विषय बना हुआ है। संयुक्त राष्ट्र संघ और युनिसेफ सहित दर्जनों देशों के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने दिल्ली में ‘आम आदमी मोहल्ला क्लिनिक’ के कार्यप्रणाली को देखा, समझा और सराहा है।

इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस का थीम है- ‘‘यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज-एवरीवन एवरीवेयर।’’ अर्थात सबके लिये सब जगह एक जैसा स्वास्थ्य। नारा अच्छा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की दृढ़ इच्छा भी होगी लेकिन दुनिया भर की सरकारों का कुछ पता नहीं कि सभी नागरिकों के स्वास्थ्य की उन्हें वास्तव में कितनी चिन्ता है। अपने देश में कोई तीन दशक पहले हमारी सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मिलकर घोषणा की थी- ‘‘सन् 2000 तक सबके किये स्वास्थ्य’’। सन् 2000 बीत गया, न तो सबको स्वास्थ्य मिला और न ही कोई पूछने वाला है कि जब हजारों करोड़ रुपये खर्च कर इस नारे को रट रहे थे तो फिर सबके स्वास्थ्य की बात कहां छूट गई? सरकारी संकल्पों की यह स्थिति कोई नई नहीं है और न ही इन संकल्पों के नाम पर सार्वजनिक धन की लूट। बहरहाल अब रोगों की वैश्विक चुनौती ने पूरी दुनिया को आशंकित कर दिया है तो संकल्प को पुनः दुहराने की मजबूरी लाजिमी है।

यदि हम अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की वास्तव में चिंता करते हैं तो हमें जनपक्षीय स्वास्थ्य नीति और जनसुलभ सहज स्वास्थ्य सुविधाएं स्थापित करने की पहल का स्वागत करना चाहिये। मोहल्ला क्लिनिक एवं सर्वसुलभ स्वास्थ्य के लिये प्रतिबद्ध दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन स्पष्ट कहते हैं कि केन्द्र सरकार के इशारे पर दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल मोहल्ला क्लिनिक के रास्ते के रोड़ा बने हुए हैं जबकि आप सरकार ने दिल्ली में एक हजार मोहल्ला क्लिनिक की योजना बनाई हुई है। दिल्ली वाले खुशकिस्‍मत हैं कि उनके अस्पतालों में आम आदमी पार्टी की सरकार ने बिलिंग काउन्टर भी खत्म कर दिये हैं।

गन्दी राजनीति से ऊपर उठकर सरकारें यदि चाहें तो आम आदमी की सेहत सुधार सकती हैं। कम से कम स्वास्थ्य सेवाएं तो सुलभ हो ही सकती हैं। बढ़ती बीमारियों और महंगे स्वास्थ्य सेवाओं से निजात पाने में स्वास्थ्य बीमा से ज्यादा सुलभ एवं निःशुल्क अथवा सस्ती चिकित्सा सुविधाएं लोगों के लिये मददगार हो सकती हैं और ‘‘सबके लिये उम्‍दा स्वास्थ्य-सब जगह’’ का विश्व स्वास्थ्य संगठन का सपना भी पूरा हो सकता है। यह सम्भव है। संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर जनता के लिये यदि सरकारें सच्चे दिल से सोचेंगी तो जनता भी उन्हें सर पर बिठाएगी। सरकार! राजनीति से ऊपर उठिये और मानवता के लिये कुछ कीजिए, इसीलिये जनता आपको चुनती है।



लेखक जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं

 

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