अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार क्या भारतीय विश्वविद्यालयों का माफ़ीनामा है ?

जब पूरब का ऑक्सफोर्ड कहलाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय का कैंपस छात्रों और पुलिस प्रशासन के बीच जद्दोजहद के आंगन पर तप रहा था, उसी समय भारतीय मूल के अभिजीत बनर्जी को मिले नोबेल पुरस्कार की गूंज दुनिया में सुनाई दे रही थी। पिछले एक सप्ताह से भारत की इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया नोबेल पुरस्कार की खबरों से भरी पड़ी है, तो दूसरी तरफ यही मीडिया जब टाइम्स हायर एजुकेशन की रैकिंग में भारत का सुपर 300 रैंकिंग में नामों निशान नही था तब आज जश्न की रंगत में डूबी रहने वाली मीडिया सत्ता प्रतिष्ठान और विपक्ष को सांप सूघ गया था। क्योंकि पता था कि इस दुर्गति का कलंक हम सब के माथे पर भी है।

इसलिए सभी ने चुप्पी साधना बेहतर समझा। यानी भारतीय जनमानस की नजरों से ये खबर नदारत कर दी गयी। क्योंकि भारत की जनता जान जाती कि विश्व गुरु कहलाने वाले भारत का कोई भी संस्थान सुपर 300 में भी अपनी जगह सुरक्षित नहीं रख सकी।

बस पूछना यही है कि आखिर कब तक हम भारतीय मूल की उपलब्धियों पर जश्न मनाकर गदगद होते रहेंगे? हम अपने विश्वविद्यालयों को कटघरे में खड़ा करके क्यों नहीं पूछते कि, ये उपलब्धि आप क्यों हासिल नहीं कर सके? आखिर कब तक दूसरों के उजालों में अपने दामन पर लगे दाग छुपाते रहेंगे?

इसका बिल्कुल मतलब नहीं कि हम अभिजीत बनर्जी को मिले पुरस्कार पर जश्न ना मनाये! हां ये भी जरूर पूछे कि भारत  के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन NIRF (National institute ranking framework) में प्रथम स्थान बनाने वाला संस्थान वैश्विक रैकिंग की कसौटी पर सुपर 300 के बाहर क्यों कर दिया जा रहा है?

हम खुद सोचे कि मंदिर मस्जिद में मग्न रहने वाला भारतीय समाज (मीडिया, कोर्ट, सरकार) यदि थोड़ा सा भी समय देता तो आज दुनिया के सुपर 100 विश्वविद्यालयों में हमारे विश्वविद्यालयों की संख्या दहाई अंकों में विराज मान होती।

भारत की शिक्षा पद्धति का आधारभूत स्तंभ समझी जाने वाली राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) की सभी पुस्तकों के प्रथम पन्ने पर अंकित होता है कि स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से कैसे जोड़ा जाय? जबकि जरूरत है इस पंक्ति को पलट देने की कि हमारे परिवार और समाज को स्कूलों से कैसे जोड़ा जाय? क्योंकि जब परिवार और समाज के अंदर अपनी-अपनी जाति और धर्म की महानता का टॉनिक पिलाया जायेगा लैंगिक दोगलापन का व्यवहारिक नजारा दिखाई देगा, खुलेआम परिवार में झूठ मक्कारी के तरीकों का नजारा देखा जायेगा। ऐसे में मासूम सा बालक स्कूल की रंटत विधा के खोखले शब्दों से भला कैसे अपने को रचनात्मक संसार में खड़ा कर पायेगा ? ऐसे में असंभव होगा सृजनात्मकता, तर्कशीलता की बुनियादों पर खड़ा होकर वैज्ञानिक सीख, तर्कशील और आधुनिक सोच वाले मनुष्य का निर्माण करना।

अंत मे बस इतना ही कि हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पहले नोबेल (शिक्षा के क्षेत्र में) का जश्न मनाए, साथ में उस जमीन को भी ना भूले जिस जमीन ने तपाकर हीरा बनाया।

थोड़ा हम सोच कर देखें कि दुनिया के विकसित या अविकसित राष्ट्रों के विधार्थी अपने माता-पिता से कहें कि हमें दुनिया के सुपर 300 रैंकिंग के अंदर वाले संस्थान में प्रवेश लेना है, तो हमारा महान देश उस सूची से बाहर खड़ा मिलेगा।

आइये, मिलकर मंथन करें, वरना वो दिन दूर नहीं जब हमारे विश्वविद्यालयों पर कॉर्पोरेट जगत की ललचायी नजर लगी हूई है, इससे पहले उनके हाथों में कमान पहुंचे। अपने आप को और समाज को सजग बनायें। साथ ही अपने समाज की खोखली पड़ चुकी बुनियादों को बदलकर इंकलाब की आवाज उठाएं ताकि सड़-गल चुके विमर्शों की परिपाटियों से बाहर निकल कर नए सपनों को गढ़ा जा सके।

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