लेकिन महात्मा गाँधी ने किसी ऐसे व्यक्ति या विचारधारा को देशद्रोही नहीं कहा जो उनके ख़िलाफ़ थी या असहमत थी। जबकि जनता के लिए उनकी ऐसी कोई भी बात पत्थर की लकीर ही होती।
भारत छोड़ो आंदोलन कांग्रेस की तेजस्विता का आकाश था। लोग दीवानों की तरह उसका झंडा लेकर सड़क पर उतर पड़े थे। यह दिन अचानक नहीं आया था। सुगबुगाहट दो साल से चल रही थी। 1 सितंबर 1939 को दूसरे महायुद्ध की घोषणा हो गई थी। ब्रिटिश सरकार ने बिना भारतीयों से पूछे भारत को युद्ध में झोंक दिया। इसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने प्रांतीय मंत्रिमंडलों से इस्तीफा दे दिया। नारा दिया गया–न एक पाई, न एक भाई। कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया जो अक्टूबर 1940 से लेकर जनवरी 1942 तक, यानी लगभग 15 महीने चला। पहले सत्याग्रही विनोबा भावे थे और दूसरे जवाहरलाल नेहरू। धीरे-धीरे कांग्रेस के तमाम बड़े नेता पकड़े लिए गए। लगभग 30,000 लोग जेल गए।
ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों का समर्थन पाने के लिए 23 मार्च 1942 सर स्टीफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। आज़ादी की लड़ाई बहुत आगे बढ़ चुकी थी जबकि अंग्रेज किसी न किसी बहाने अपना लंगर डाले ही रखना चाहते थे। हालाँकि वे जानते थे कि युद्ध ने उनकी हालत पतली कर दी है। यह युद्ध ही था जिसने पूरी दुनिया के राजनीतिक समीकरण बदल दिए थे।
वैसे युद्ध की स्थिति में अंग्रेज़ों पर चोट की जाए या नहीं, इसे लेकर कांग्रेस में भी मतभेद था। राजगोपालाचारी से लेकर नेहरू तक नहीं चाहते थे कि युद्ध के दौरान आंदोलन चले। नेहरू खासतौर पर जर्मनी और इटली के फासिस्ट अभियान के खिलाफ थे जिसका सामना ब्रिटिश कर रहे थे। यूँ तो कांग्रेस हमेशा ही फ़ासीवाद को ख़तरा बताती रही थी, लेकिन महात्मा गाँधी इस अवसर पर निर्णायक चोट करने के पक्ष में थे। 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में प्रसिद्ध ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ। प्रस्ताव में अहिंसक रूप से जितना संभव हो, उतने बड़े स्तर पर जन संघर्ष का आह्वान किया गया था। हालाँकि यह भी कहा गया था कि अगर कांग्रेस के सभी नेता गिरफ्तार हो जाएँ तो ‘स्वाधीनता की इच्छा एवं प्रयास करने वाला प्रत्येक भारतीय स्वंय अपना मार्गदर्शक बने। प्रत्येक भारतीय अपने आपको स्वाधीन समझे, केवल जेल जाने से ही काम नहीं चलेगा।’
9 अगस्त को नेताओं की गिरफ्तारी के साथ ही आंदोलन देशव्यापी होने लगा। शुरुआत में शहरों में श्रमिकों की हड़तालें हुईं, नौजवान और छात्रों ने उग्र प्रदर्शन किया और जल्दी ही यह ग्रामीण अंचलों में फैला। सरकार ने 538 जगह गोलियाँ चलाईं। चह बार मशीनगन का इस्तेमाल हुआ। कम से कम 7000 व्यक्ति मारे गए।
कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के जेल चले जाने पर नेतृत्व उन लोगों के हाथ आया जो गिरफ्तारी से बच गए थे। पार्टी के अंदर को समाजवादी दल था- कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, उसके नेता भूमिगत होकर आंदोलन चलार हे थे। राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, एस.एम.जोशी प्रमुख थे। 9 अगस्त को बम्बई के गोवालिया टैंक मैदान में अरुणा आसफ अली ने मुंबई के मैदान में झंडा फहराकर सनसना फैला दी थी। एक और प्रमुख समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण थे 1941 में जेल में रहते हुए सशस्त्र संघर्ष चलाने पर विचार कर रहे थे। उन्होंने वहीं से एक गुप्त पत्र कलकत्ता में सुभाष बोस को भेजा था जिसमें भारत में मार्क्सवादी-लेनिनवादी शैली की क्रांति करने की बात थी। लेकिन जनवरी 1941 में नजरबंद बोस भारत से निकल गए और जर्मनी पहुँच गए।
1942 के आंदोलन ने जनमानस में वाकई बिजली भर दी थी। महात्मा गाँधी महानायक थे। लेकिन तमाम राजनीतिक धाराएँ इस आंदोलन के ख़िलाफ़ थीं। 1934 से ही पाबंदी झेल रही कम्युनिस्ट पार्टी युद्ध में रूस के शामिल हो जाने की वजह से अब उसे ‘जनयुद्ध’ कहने लगी थी। हालाँकि अंग्रेज संशकित थे कि कम्युनिस्ट पार्टी मौके का फायदा उठाकर बोल्शेविक क्रांति जैसी तैयारी कर रही है। (ऊपर से देखने पर वे फासीवाद-विरोधी और युद्ध समर्थक प्रतीत होते हैं किंतु भीतर से वे साम्राज्यवाद विरोधी हैं और उनकी शस्त्रों की माँग का इन दोनों में से किसी भी विचारधारा से संबंध हो सकता है- लॉर्ड लिनलिथगो को बिहार के गवर्नर स्टेवर्ट का पत्र, 6 मई 1942)। 1946 के नौसेना विद्रोह से यह आशंका पुष्ट भाी हुई।
मसला सिर्फ कम्युनिस्टों का नहीं था। फ़ासीवाद की जीत की आशंका से हर तरफ घबराहट थी। अगस्त 1941 में मृत्यु शैया पर पड़े गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर विश्वास जता रहे थे कि रूसी ही ‘दानवों’ को रोकने में समर्थ होंगे। दानव यानी जर्मनी का हिटलर। उधर सुभाषचंद्र बोस हिटलर के सहयोगी जापानियों की फ़ौजी मदद के सहारे भारत को आज़ाद कराने का सपना देख रहे थे। वे महात्मा गाँधी की अहिंसा के सिद्धांत से अलग हो चुके थे। कांग्रेस से उनके बाहर होने का सबसे बड़ा कारण भी यही था। हालाँकि वे गाँधी जी के महत्व को अच्छी तरह समझते थे। अपनी आज़ाद हिंद फौज में उन्होंने गाँधी और नेहरू के नाम पर ब्रिगेड बनाई थी और महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि उन्होंने उसी वक्त दी थी। वे समझते थे कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई में देश के हर कोने में आम लोगों को खड़ा करने का चमत्कार करना सिर्फ बापू के वश में था। वे इस नवीन भारत के जनक हैं।
उधर पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कर चुकी मुस्लिम लीग ही नहीं, गोलवलकर का आरएसएस भी इस आंदोल से पूरी तरह अलग रहा। हिंदू महासभा ने तो अंग्रेजी सेना में हिंदुओं की भर्ती के लिए बाकायदा कैंप लगवाए। 4 सितंबर 1942 को महासभा नेता वी.डी. सावरकर ने स्थानीय निकायों, विधायिकाओं और सरकारी सेवा में बैठे हिंदू महासभा के सदस्यों का आह्वान किया कि वे अपने स्थान पर रोजमर्रा का काम करते रहें। महासभा के एक बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो बंगाल की सरकार में मंत्री ही थे।
1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी तो 8 जून 1942 को गुरु गोलवरकर ने संघ कार्यकर्ताओंके अखिल भारतीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति पर दिए गए भाषण में अंग्रेज़ी राज को स्वाभाविक बताते हुए कहा-
“समाज की पतित अवस्था के लिए संघ दूसरों को दोष देना नहीं चाहता। जब लोग दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने लगते हैं तब उके मूल में उनकी दुर्बलता रहती है। दुर्बलों पर अन्याय का दोष बलवानों के माथे मढ़ना व्यर्थ है…दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की संघ की इच्छा नहीं है। यदि यह हम जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली निगलती है तो उस बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है। यह निसर्ग-नियम भला हो, बुरा हो, वह सब समय सत्य ही है। यह नियम यह कहने से कि वह अन्यायपूर्ण है, बदलता नहीं।”
(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड-1 पृष्ठ 11-12, भारतीय विचार साधना,नागपुर, 1981)
यानी संघ के मुताबिक बड़ी मछली ब्रिटेन अगर भारत जैसी छोटी मछली को हज़म कर रही है तो यह प्राकृतिक नियम के तहत था।
फिर भी महात्मा गाँधी या काँग्रेस के किसी भी अन्य बड़े नेता ने आंदोलन के साथ न आने वालों या कांग्रेस का विरोध करने वालों को देशद्रोही नहीं कहा। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर गाँधी जी किसी को देशद्रोही कह देते तो उसके माथे पर कलंक का ऐसा टीका लग जाता जिसे किसी सूरत में मिटाया नहीं जा सकता था। लेकिन वे जानते थे कि असहमत होना देशद्रोही होना नहीं है।
स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्पों के आधार पर गढ़े गए नए भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी को इसीलिए सर्वोपरि माना गया। मतभेदों की मंथन से ही नए भारत का नवनीत निकलना था। वैचारिक मतभेद तो कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं में आम बात थी। और वह खुलकर अपने विचार लिखते थे जिसकी समाचार माध्यमों में खुलकर चर्चा होती थी। सरदार पटेल शुरुआत में कश्मीर को सिरदर्द बताते हुए इससे दूर रहने की वकालत कर रहे थे तो आंबेडकर की राय थी कि जम्मू-कश्मीर का मुस्लिम बहुल इलाका पाकिस्तान को दे दिया जाए। श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो 1942 में अंग्रेजों की कृपापात्र सरकार में मंत्री बनकर आंदोलनकारियों का दमन कर रहे थे, पर उन्हें भी देशद्रोही न कहकर नेहरू मंत्रिमंडल में जगह दी गई।
लेकिन 77 साल बाद 2019 में जब ‘करो या मरो’ की याद में यह लेख लिखा जा रहा है तो देश में एक ऐसी सरकार है जो ‘डरो या मरो’ की नीति पर चल रही है। जिसके ख़िलाफ़ बोलना ‘देशद्रोह’ है। और यह बताने के लिए सरकार से पहले उन्हीं कैंपों में प्रशिक्षित ट्रोल टिड्डी दल टूट पड़ते हैं, जहाँ कभी महात्मा गाँधी के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देना सिखाया जाता था।