इस ‘नारद-नारद’ के पीछे क्या है?

कृष्‍णप्रताप सिंह । फ़ैज़ाबाद

इस देश के जो भी पत्रकार अपनी जनता को भयों व भ्रमों के कुहासे में भरमाना या सुलाना नहीं चाहते, उसे वाकिफ और सचेत रखने में भूमिका निभाना चाहते हैं और उससे जुड़े अपने सपनों व सरोकारों के लिए चिंतित हैं, उनके लिए किंचित और सन्नद्ध व सावधान होने के दिन आ गए हैं।

इसलिए कि उनके बीच के जिन महानुभावों की कारस्तानियों के चलते हिन्दी पत्रकारिता की प्रतिरोध की लम्बी परम्परा लुप्त होने के कगार पर जा पहुंची है, जिनके कारण उसे बार-बार ‘हिन्दू पत्रकारिता’ में बदल जाने के लांछन झेलने पड़ते हैं और जिन्हें आजकल ‘मोदी-मोदी’ के जाप में ही अपने सारे कर्मों की सार्थकता नजर आती है, अब वे उसके समूचे संसार पर कब्जे को उतावले हो उठे हैं। इसके लिए, जैसा कि बहुत स्वाभाविक है, उन्होंने वही रास्ता अपनाया है, जिस पर चलकर कभी वे किसी ‘अपने’ के श्रीमुख से अंतरराष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस तक में यह बे-पर की उड़वा देते हैं कि उनके पुरखे तो हजारों साल पहले ही वायुयान उड़ाने की तकनीक से वाकिफ  थे और कभी गणेश के धड़ पर हाथी के सिर के प्रत्यारोपण को शल्य चिकित्सा का बेमिसाल नमूना बताने लग जाते हैं।

हां, चूंकि आगे की राह आमतौर पर उन्हें सूझती नहीं है और प्रतिगामिता उनका सबसे प्रिय शगल है, वे पुराण काल में जाकर देवर्षि नारद को उठा ले आए हैं और उनके सिर को ‘आद्य पत्रकार’ के मुकुट से सुशोभित करना चाहते हैं। इस क्रम में वे नारद की जयंती को हिन्दी पत्रकारिता का 30 मई से भी बड़ा उत्सव बना देने के फेर में हैं और उनकी छवि बदलकर उन्हें ‘पत्रकारिता का देवता’ बना रहे हैं, तो इसके पीछे उनके कई निश्चित उद्देश्य हैं, जिन्हें समझे जाने की जरूरत है।

अब यह तो कोई बताने की बात भी नहीं कि आम जनमानस हर पल ‘नारायण-नारायण’ जपते रहने के बावजूद नारद को अनुकूलित सूचनाओं की मार्फत इधर-उधर की ‘लगाने’ व ‘बझाने’ वाले घुमंतू के रूप में ही जानता है और किसी को नारद तभी बताता है, जब उसके ‘लगाने-बझाने’ से आजिज आ जाए। ऐसे में यकीनन, जो उन्हें ‘आद्य पत्रकार’ बनाना चाहते हैं, उनके निकट पत्रकारों का यही सबसे आदर्श रूप होगा। इसलिए भी कि मदान्ध व मतांध सत्ताओं के प्रतिरोध में किंचित भी दिलचस्पी न लेकर कभी ‘हर-हर मोदी’, कभी ‘घर-घर मोदी’ और कभी ‘मोदी-मोदी’ की उनकी रटंत की नारद के ‘नारायण-नारायण’ से गजब की संगति बैठती है और उन्हें लगता है कि वे उसकी नजीर देकर सत्ताधीशों के नाम-जाप की अपनी आदत को पत्रकारिता के दोषों के बजाय गुणों के शामिल कर सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि किसी दिन वे फिर थोड़ा और पीछे लौट जायें और उन संजय में भी अपनी जड़ें तलाशने लगें जो महाभारत के दिनों में बेहद निस्पृहभाव से धृतराष्ट्र को उसका आंखों देखा हाल बताते रहे थे और उस महायुद्ध में हो रहे विनाश को रोकने को लेकर उनका अपना कोई पक्ष नहीं था।

साफ है कि पत्रकारों को नारद व संजय से जोडने के उनके मन्सूबे सफल हो गए तो हमारी पत्रकारिता की उस परम्परा की जड़ें तो कतई सलामत नहीं रह पाएंगी, अभी जिनकी याद दिलाकर उसकी पतनशील प्रवृत्तियों को काबू करने की कोशिशें की जाती हैं।

यों, इन मंसूबों के पीछे उनकी एक बड़ी मजबूरी भी छिपी है। आज जब हम कहते हैं कि कोलकाता से प्रकाशित हिन्दी के पहले समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ ने 1827 में चार दिसम्बर को 19 महीनों की उम्र में ही अस्ताचल जाना कुबूल कर लिया था, लेकिन अपनी उम्र लम्बी करने के लिए हिन्दुस्तानियों के हित की चिंता की अपनी घोषित प्रतिबद्धता छोड़ सत्ता का चरण-चुम्बन नहीं किया था, भले ही उसके सम्पादक युगलकिशोर शुक्ल किसी वक्त ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारी रहे थे, तो ये बेचारे सत्ता व सत्ताधीशों के साथ अपनी चिपकन को लेकर थोड़े बहुत अपराधबोध से तो पीड़ित होते ही होंगे। उन्हें याद तो आता ही होगा कि ऐसे चिपकुओं को अभी कुछ बरस पहले तक वे खुद भी सत्ता के दलाल कहा करते थे, पत्रकार नहीं।

अब इतनी असुविधाजनक याद के बीच उन्हें ‘उदंत मार्तंड’ को हिन्दी का पहला समाचारपत्र या युगल किशोर शुक्ल को पहला पत्रकार मानना भला कैसे गवारा हो सकता है? वे कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि इस पत्रकारिता की परम्परा नारद से नहीं आयरिश नागरिक जेम्स आगस्टस हिकी से जुड़ती है, जिन्होंने 1780 में 29 जनवरी को अंग्रेजी में ‘कलकत्ता जनरल एडवर्टाइजर’ नामक पत्र शुरू किया। भारतीय एशियायी उपमहाद्वीप का किसी भी भाषा का वह पहला समाचार पत्र था। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज की पत्नी की अनेकानेक हरकतों के आलोचक बनकर उनके कोप के शिकार हुए जेम्स आगस्टस हिकी जेल गए तो उन्होंने ‘देश का पहला उत्पीड़ित सम्पादक’ होने का श्रेय भी अपने नाम कर लिया था।

1854 में कोलकाता से आरम्भ हुए हिन्दी के पहले दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण’ के सम्पादक श्यामसुंदर सेन ने 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम छिडने पर जो प्रतिरोध की पत्रकारिता की जो मिसाल बनाई, वह अभी तक बेमिसाल है! अंग्रेजों की नाराजगी मोल लेकर सेन ने न सिर्फ उस संग्राम की उनके लिए खासी असुविधाजनक खबरें छापीं बल्कि विभिन्न कारस्तानियों को लेकर उनके वायसराय तक को लताड़ते रहे। बागी सैनिकों द्वारा फिर से तख्त पर बैठा दिये गये बादशाह बहादुरशाह जफर के उस संदेश को भी उन्होंने खासी प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिसमें हिन्दुओं-मुसलमानों से अपील गयी थी कि वे अपनी आजादी के अपहर्ता अंग्रेजों को बलपूर्वक देश से बाहर निकालने का पवित्र कर्तव्य निभाने के लिए कुछ भी उठा न रखें।

इससे झुंझलाए अंग्रेजों ने 17 जून, 1857 को देशद्रोह का आरोप लगाकर सेन को अदालत में खींच लिया और इसके लिए ‘समाचार सुधावर्षण’ के 26 मई, 5, 9 व 10 जून के अंकों में छपी रिपोर्टों को बहाना बनाया। सेन चाहते तो माफी मांगकर सजा से बच सकते थे। उन्हीं जैसे दूसरे मामलों में फंसाये गए अन्य भारतीय भाषाओं के कई सम्पादकों ने माफी मांग भी ली थी। लेकिन सेन के देशाभिमान को यह गवारा नहीं हुआ।

काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने अदालत में दलील दी कि चूंकि देश की सत्ता अभी भी विधिक रूप से बादशाह बहादुरशाह जफर में ही निहित है और अंग्रेज भी उन्हें बादशाह मानकर ही पेंशन देते हैं, इसलिए उनके संदेश का प्रकाशन देशद्रोह नहीं हो सकता। देशद्रोही तो अंग्रेज़ हैं जो गैरकानूनी रूप से मुल्क पर काबिज हैं। उनकी यह दलील चल गई और देश पर अंग्रेजों के कब्जे को उनकी ही अदालत में उन्हीं के चलाए मामले में गैरकानूनी करार देने वाली जीत दिला गई।

पर अब हमारी पत्रकारिता की ऐसी अनेक जीतों के नायकों को परे धकेलकर कुछ महानुभाव उनकी जगह नारद को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं ताकि हम आप सब कुछ भूलकर सिर्फ और सिर्फ मोदी की जीत याद रखें। वे इसके अलावा भी बहुत कुछ चाहते हैं। मसलन यह कि ‘मनुस्मृति’ के उन अंशों को जो दलितों व स्त्रियों के खिलाफ हैं, प्रक्षिप्त मानकर उसके प्रणेता मनु को उनकी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए। साफ है कि उनकी तरफ से झूठ बहुत संभलकर बोला जा रहा है और सच की कोई भी असावधानी उस पर भारी पड़ सकती है।

 

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