इतिहास के द्वंद्वों को वर्तमान में जीना इतिहास बोध के ख़िलाफ़ है – लालबहादुर वर्मा

भगतसिंह स्मृति जनोत्सव

 

दो दिवसीय भगतसिंह स्मृति जनोत्सव की शुरुआत 31 मार्च को सीरी फोर्ट स्थित अपर्णा आर्ट गैलरी में हुई। आयोजन का आरम्भ दलित लेखिका और  सामाजिक कार्यकर्ता रजनी तिलक की स्मृति में दो मिनट के मौन से हुई, ज्ञातव्य है कि सुश्री तिलक को इस आयोजन के दूसरे सत्र का हिस्सा होना था। इसके बाद दिवगंत कवि एवं लेखक केदारनाथ सिंह को याद करते हुए जनोउत्सव के उद्घाटन सत्र में ममता सिंह और गौरव अदीब ने उनकी कविताओं का पाठ किया।

पहले सत्र “साहित्य का ‘स’ और क्रांति का ‘क’ में बोलते हुए प्रो अली जावेद ने उर्दू साहित्य में प्रतिरोध की परंपरा पर विस्तार से बात की। प्रसिद्ध कहानीकार और संस्कृतिकर्मी नूर ज़हीर ने धर्म और कट्टरवाद के प्रतिरोध को साहित्य की ज़रूरी कार्यवाही बताते हुए कहा कि भगतसिंह द्वारा लिखा गया लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ को समाज के कोने-कोने में पहुँचाना ज़रूरी है। नास्तिकता को बढ़ाया जाना ही इस अन्धविश्वास से बाहर निकलने का एक मात्र रास्ता है।” प्रख्यात कवि राजेश जोशी ने कहा कि “प्रतिरोध की आवाज जैसे ही कानों तक पहुंचती है सत्ता अपना काम करने लगती है। प्रतिरोध की आवाज ऊँची हो रही है इसका मतलब है कि जनता मज़बूत हो रही और जब भी जनता मज़बूत होती है सत्ता और भी मज़बूती से दमन करती है।” चार्ली चैपलिन और ब्रेख्त ने बताया था कि प्रतिरोध चीख़ कर नहीं हो सकता। जनता की मज़बूती ही प्रतिरोध के आवाज को बुलंद कर सकती है और इसमें सबसे ज्यादा योगदान साहित्य का ही होता है। उन्होंने हास्य के महत्व को बताते हुए कहा कि हास्य सत्ता को हिलाने का दम रखता है। वर्तमान सरकार को निशाने पर लेते हुए कई चुटकुले भी सुनाए और मजाकिया लहजे में सरकार को ढाई आदमी की सरकार बताया।धर्म और आस्तिकता को अलग करके देखने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए उन्होने कहा कि पत्थर पर सर पीटने वाला आदमी आस्तिक तो है परन्तु धार्मिक नहीं है। श्रोताओं के सवालों का जवाब देते हुए राजेश जोशी ने भगतसिंह के मजबूत विचार का जिक्र किया और उन्होंने कहा कि अगर भगतसिंह को फांसी नहीं होती तो उन्हें मारे जाने की कोशिश होती क्योंकि अंग्रेजों ने 1917 की क्रांति को देखा था। भगतसिंह में उस तरह के क्रांति लाने की क्षमता थी। इस बात से अंग्रेज वाकिफ हो गए थे, इसलिए अंग्रेज नहीं चाहता थे कि दूसरा लेनिन पैदा हो,  गांधी मजदूर के नेता नहीं हो सकते क्योंकि उन्होंने कभी मजदूर को प्रमोट नहीं किया। सत्र का संचालन करते हुए युवा कवि और लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने समकालीन साहित्य में बढ़ती हुई अराजक प्रवृत्तियों पर चिंता प्रकट की।

दूसरा सत्र महिला कविता पाठ का था जिसमें अनामिका, शुभा, मृदुला शुक्ला और सुजाता ने हिस्सेदारी की। इसके बाद “होना औरत और रखना ज़बान मुँह में” विषय पर परिचर्चा हुई।  पैनल में कवयित्री और स्त्री विमर्शकार अनामिका, सामाजिक कार्यकर्ता और कवि-लेखक शुभा, लेखक, स्कॉलर शीबा और डॉक्यूमेण्टरी मेकर मीरा चौधरी शामिल थीं। साहित्य के क्षेत्र में स्त्रियों के आने से वह एक स्पेस के रूप में किस तरह बदला है और अपनी अस्मिता का दावा लेखिकाओं- कवयित्रियों ने किस तरह साहित्य में किया है अनामिका ने इस पर अपने विचार रखे। संगठनों के भीतर काम करने वाली महिलाओं के अनुभव और पितृसत्ता की संगठनों के भीतर पैठ पर शुभा ने एक थियरेटिकल समझ के साथ अपने अनुभवों को साझा किया। शीबा ने मुस्लिम महिलाओं की आज़ादी और हक़ों के मुताल्लिक़ अपनी बातें रखते हुए स्त्रीवादियों को भी मोनोलिथ नज़रिए के प्रति आगाह किया। मीरा चौधरी जिंका अधिकांश काम दंगा प्रभावित क्षेत्रों में है ने बताया कि स्त्री के लिए इस तरह के लीक से हटकर काम करनेको अपने ही घर के भीतर पर्याप्त विरोध झेलना पड़ता है। दूसरे राउण्ड की बातचीत में स्त्री और स्त्रीवाद के सम्मुख हालिया चुनौतियों पर बात करते हुए स्पष्ट कहा गया कि स्त्रीवादियों और अलग-अलग संघर्षरत समूहों में आपसी सम्वाद क़ायम किया जाना बेहद ज़रूरी हो गया है। हमें आपस में ही बहुत कुछ सीखने-सिखाने और समझने की ज़रूरत है ताकि मीडिया के दुष्प्रचार से बचते हुए सार्थक काम किए जा सकें। श्रोताओं के प्रश्नों और पैनलिस्ट्स के उत्तरों से सत्र और समृद्ध बना। सत्र का संचालन युवा कवि और स्त्रीवादी लेखिका सुजाता ने किया। इस अवसर पर दखल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित सीरियाई कवि मराम अल-मसरी की हिन्दी में अनूदित कविता-पुस्तक “मांस, प्रेम और स्वप्न” का विमोचन भी हुआ।

 

 

दूसरे दिन की शुरुआत संस्कृतिक टीम “संगवारी” के जनगीत गायन से हुई। इसके बाद आयोजित सत्र “थियेटर और हाशिया” में राकेश कुमार, अरविंद गौड़, नूर ज़हीर और ईश्वर शून्य ने भागीदारी कीसत्र की शुरुआत करते हुए नूर ज़हीर ने कहा कि “कम्युनिस्ट पार्टी हमे ओन नहीं करती है। थिएटर के मौजूदा हालत जिनमे ग्लैमर हावी हो रहा है और हाशिये के सवाल गायब होते जा रहे हैं इस समय से पहले अगर हम नजर दौड़ाएंगे तो हमारे दिमाग में एक ही सवाल आता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने थिएटर से हाथ क्यों खींच लिया। थिएटर को कम्युनिस्ट पार्टियों ने नजरअंदाज कर दिया है हाशिये के सवाल में ये भी एक सवाल है और इसपर चर्चा करने की जरूरत है। पहले थिएटर आर्टिस्टों के लिए रिहर्सल करने की जगह पार्टी आफिस हुआ करता था जिसके दरवाज़े अब बन्द है। कलाकार पार्कों में, छत पर रिहर्सल करने को मजबूर हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि” जन जो भी तैयार करता है अपर क्लास उसको पकड़ लेता है, या उसको लील जाता है । इसका उदाहरण राजीव गांधी द्वारा ‘हम होंगे कामयाब’ हथियाना है और भी कई उदाहरण हैं। मेनस्ट्रीम के भरोसे हाशिये के सवाल को नही उठाया जा सकता है। हाशिये को इतना बड़ा बनाना पड़ेगा कि वही मेनस्ट्रीम बन जाए।” अरविंद गौड़ ने हाशिये को विस्तार से परिभाषित करते हुए पार्टियों की भूमिका की आलोचना की और कहा कि वर्ग के साथ वर्ण के सवाल भी मजबूती से उठाने होंगे। ईश्वर शून्य ने थियेटर की दुनिया मे बाज़ार और ग्लैमर के प्रवेश के साथ बदलते माहौल पर चिंता जताते हुए नए रास्तों के तलाश पर ज़ोर दिया तो वरिष्ठ रंगकर्मी राकेश कुमार ने देश भर में किए जा रहे वैकल्पिक प्रयोगों पर विस्तार से बात करते हुए कहा कि लोक विधाओं का अधिकाधिक प्रयोग और कम ख़र्चे मे नाटक करना हाशिये को सीखना होगा। हाशिया असल मे इतना बड़ा है कि असल मुख्यधारा वही है। सत्र का संचालन युवा रंगकर्मी राजेश चंद्रा ने किया।  

 

 

इसके बाद के सत्र “शायर न बनेंगे दरबारी” में राजेश जोशी और गौहर रज़ा का काव्य पाठ हुआ। युवाओं से खचाखच भरे हाल में कविता पाठ के दौरान फरमाइशें और तालियाँ लगातार गूँजती रहीं। सत्र की अध्यक्षता प्रो लालबहादुर वर्मा ने की और प्रसिद्ध आलोचक अजय तिवारी मुख्य अतिथि के रूप में मंच पर उपस्थित रहे।

 

भोजनवकाश के बाद का सत्र उषा ठाकुर के कबीर गायन के साथ आरम्भ हुआ। “गाँधी लाठी और अहिंसा” नामक इस सत्र में इतिहासज्ञ प्रो लालबहादुर वर्मा, वरिष्ठ आलोचक प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल, जे एन यू की प्रो सुचेता महाजन और युवा गांधीवादी एक्टिविस्ट सौरभ बाजपेयी ने भागीदारी की जिसमें ‘गांधीवाद जैसी कोई चीज़ है कि नहीं’, अहिंसा की अवधारणा और वक़्त के साथ गाँधी के अहिंसा सम्बन्धी विचारों में क्या परिवर्तन आते हैं और आज के बेहद हिंसक माहौल में दूसरी विचारधाराओं, ख़ासकर भगत सिंह की विचारधारा, के बरअक्स गाँधी कितने संभव हैं’ जैसे बहसतलब सवालात पर विचारोत्तेजक परिचर्चा हुई।  

सत्र में भागीदारी करते हुए प्रो. लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि “मौजूदा दौर रास्ता किसी एक विचारधारा से नहीं निकलता है, चाहे वो भगत सिंह का हो या गाँधी का. गाँधी और भगत सिंह के तुलनात्मक द्वंद्व के सन्दर्भ में कहा कि इतिहास के द्वंद्वों को जीना इतिहास बोध के ख़िलाफ़ है”. प्रो. अग्रवाल ने नीत्शे के शब्दों को रखते हुए कहा कि सत्यातीत (पोस्टट्रूथ) के ज़माने में शहादत सत्य का सबसे बड़ा दुश्मन है, और साथ गाँधी के अहिंसक विचारों को बेहद प्रासंगिक बताया. प्रो. महाजन ने गाँधी के अहिंसक तरीकों में आए परिवर्तन को रेखांकित किया. सौरभ बाजपेयी ने गांधीवाद के संदर्भ में कहा कि गांधीवाद जैसी कोई चीज़ नहीं हैं. और अहिंसा को बेहद मज़बूत संकल्पना बताया, और साथ ही 1930 के पेशावर खानी प्रकरण को रखते हुए बताया कि अहिंसक तरिके के लिए बेहद हिम्मत की ज़रूरत पड़ती है. श्रोता-साथियों ने भी अपने सवालों के साथ हिस्सा लिया. सत्र के संचालक प्रवीण कुमार थे.

आयोजन का अंतिम सत्र “खेती किसानी और आत्महत्या की राह” पर था जिसमें पैनलिस्ट रहे वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रो कमलनयन काबरा, किसान आंदोलनों से जुड़े कॉमरेड अर्जुन, पंजाब किसान आंदोलन के दर्शन पाल तथा गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता मनोज पांडे। प्रो काबरा ने आर्थिक नीतियों पर विस्तार से बात करते हुए पूरे मॉडल को जनविरोधी बताया। उन्होने कहा कि शुरू से आर्थिक नीतियाँ ऐसे बनाई गईं कि ग्रामीण कृषि व्यवस्था आत्मनिर्भर न होने पाये। कॉमरेड अर्जुन ने बहुत विस्तार से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बात करते हुए बताया कि कर्जमाफ़ी किसी समस्या का हल नहीं। किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिले तो कभी आत्महत्या जैसी नौबत नही आएगी। दर्शन पाल ने पंजाब के विशेष संदर्भ कृषि संकट पर बात करते हुए हरित क्रांति को धोखा बताया तो मनोज पांडे ने देशभर में आधुनिक कृषि के विस्तार को कॉर्पोरेट की चाल बताते हुए पारंपरिक कृषि मॉडल्स पर ज़ोर दिया। सत्र का संचालन देवेश ने किया। सत्र के अंत मे सभी प्रतिभागियों का आभार व्यक्त करते हुए आयोजकों ने इसे सालाना आयोजन बनाने का संकल्प दुहराया।

 

इस अवसर पर सम्भावना कला मंच, गाज़ीपुर की पोस्टर प्रदर्शनी तथा दख़ल प्रकाशन की पुस्तक प्रदर्शनी चर्चा और आकर्षण की केंद्र रही। पूरी तरह से जनसहयोग से आयोजित आग़ाज़ सांस्कृतिक मंच, चोखेरबाली तथा विकल्प साझा मंच के इस आयोजन में प्रियांक मिश्र, आशीष श्रीवास्तव, जगन्नाथ, दीपक, अभिनव सब्यसाची, आदिल खान, अक्षत सेठ, चन्दन कुमार, राकेश कुमार, सुबोध कुमार सहित अनेक युवाओं ने आयोजकीय जिम्मेदारियाँ संभालीं। कविता कोष ने साहित्यिक सत्रों मे सहयोग दिया तथा मीडिया विजिल ने मीडिया पार्टनर की ज़िम्मेदारी निभाई।  

 



 

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