विस्‍थापन के खिलाफ आदिवासियों ने भरी हुंकार, दिल्‍ली की सड़कों पर भारी प्रदर्शन आज

विकास के नाम पर विस्थापन की प्रक्रिया आदिवासियों को संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रद्दत जीवन जीने के मूल अधिकार का उल्लंघन है

13 फरवरी 2019 को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने वाइल्ड लाइफ फर्स्ट नामक नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाईजेशन एंड अदर्स वर्सेज पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार एंड अदर्स मामले में 21 राज्यों की सरकारों को आदेश दिया है कि अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम २००६, के अंतर्गत वन भूमि पर आदिवासियों और पारंपरिक वन निवासी समुदाय के जिन परिवारों के आवेदन निरस्त कर दिए गए हैं, उन्हें 12 जुलाई 2019 तक राज्य सरकारें वन भूमि से बेदखल करें। हालाँकि सरकार इस फैसले के खिलाफ 13 जुलाई तक सुप्रीम कोर्ट से स्टे लेकर आ गयी है लेकिन इससे आदिवासी विस्थापन की समस्या का हल नहीं हो रहा है और वह जस की तस बनी रहेगी| सरकार की मंशा पर भी हमें शक है क्यूंकि उसने केस की पैरवी में बहुत लापरवाही बरती, कोर्ट की अंतिम चार सुनवाई में सरकार ने अपना पक्ष रखने के लिए कोई वकील नहीं भेजा| हमें स्पष्ट रूप से यह नहीं पता है की सरकार ये लापरवाही किसलिए कर रही थी|

भारतीय संविधान की अनुसूची पांच एवं छ: अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के बारे में उपबंध करती है, वहीं अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम २००६, देश के विभिन्न हिस्सों में निवास कर रहे आदिवासियों और वन में निवास करने वाले परंपरागत समुदायों के प्रति आजादी से पूर्व एवं आजादी के पश्चात हुए अन्यायों को स्वीकार करते हुए जमीन पर मालिकाना अधिकार और वनों पर अधिकार को स्वीकार करता है| वन अधिनियम २००६ साफ साफ कहता है की वन भूमि में पीढ़ियों से रह रहे अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी के वन अधिकारों और कब्जे को पहचान किया जाये| इस तरह के जंगलों में आदिवासी पीढ़ियों से निवास कर रहे है लेकिन उनके अधिकारों को दर्ज नहीं किया जा सका, इसलिए उनके दावे की रिकॉर्डिंग के लिए एक रूपरेखा बनाई जाये और सबूत जुटाकर वन भूमि पर उनके अधिकारों को सुनिश्चित किया जाये| सरकारों ने आज़ादी के बाद भी पुश्तैनी जमीनों पर जंगल के अधिकार और उनके आवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी थी|

औपनिवेशिक काल के दौरान और स्वतंत्र भारत में भी राज्य वनों के समेकन के परिणामस्वरूप जंगल में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ| वाइल्ड लाइफ फर्स्ट नामक नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाईजेशन जो इस केस में पार्टी है जिनका तर्क है की आदिवासी उपस्तिथि से पारिस्थितिकी तंत्र को हानि पहुंचेगी, हालाँकि २००६ का वन अधिकार अधिनियम ये स्पष्ट करता है की वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के लिए आदिवासी अभिन्न अंग हैं| विकास के नाम पर विस्थापन की प्रक्रिया आदिवासियों को संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रद्दत जीवन जीने के मूल अधिकार का उल्लंघन है|

2 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कैलाश एवं अन्य विरुद्ध भारत सरकार मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि “आदिवासी जो कि भारत की आबादी का लगभग 8% हिस्सा है जो भारत के मूल निवासी हैं और भारत के शेष 92% लोग बाहर से आए हुए लोगों के वंशज हैं|” इसलिए सुप्रीम कोर्ट का 13 फरवरी 2019 का आदेश इस मुल्क के मूल निवासियों को जंगल से बेदखल करने की साजिश है और जंगल आदिवासियों का जीवन है तो यह संविधान का अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है| जंगल से बेदखली आदिवासियों को उनके पैतृक जमीन, जीवन शैली, परंपरा और उनके पुरखों से दूर करने की साजिश है सामान्य शब्दों में कहा जाए तो यह बेदखली आदिवासियों के सम्मान पूर्वक जीवन जीने का अधिकार का हनन है| यह बेदख़ली वन अधिकार अधिनियम 2006 और पेशा कानून 1996 का उल्लंघन है| पेसा( पंचायत एक्सटेंशन टू सेडुल एरिया) एक्ट १९९६, ग्राम सभा को सर्वोच्च मानता है, न की ग्राम पंचायत को| लेकिन इस जजमेंट में पारम्परिक ग्राम सभाओं की अनदेखी की गयी है|

इसलिए आदिवासी समाज भारत सरकार से मांग करता है:


साथियों हम आपको बता देना चाहते कि आदिवासी समुदाय किसी भी परिस्थिति में अपना घर जमीन और जंगल नहीं छोड़ने वाला है और हम सरकार के द्वारा रिव्यू पिटिशन के बाद आए सुप्रीम कोर्ट के स्टे ऑर्डर से भी संतुष्ट नहीं है हम चाहते हैं कि इस मुद्दे पर सरकार एक अध्यादेश लाए और तुरंत आदिवासियों के हित में कार्यवाही की जाए जिससे अगली बार जब सुनवाई हो तो सरकार आदिवासियों को उनके जल जंगल और जमीन से बेदखल ना कर पाए| इससे भारत के विभाजन के पश्चात होने वाले सबसे बड़े आदिवासी विस्थापन और उनके जीवन पर गहरा रहे संकट को दूर करने में उनकी मदद करें|

यूनाइटेड नेशंस का भी मानना है की हमें दुनिया और मानव जाति को बचाना है तो हमें आदिवासी जीवन शैली को अपनाना होगा|

कल यानि २ मार्च २०१९ को इसी मुद्दे पर ११ बजे से मंडी हाउस से पार्लियामेंट स्ट्रीट तक आदिवासी बचाओ संसद मार्च का आव्हान भी किया गया है|

धन्यवाद
आयोजक:- जॉइंट आदिवासी युवा फोरम एवं भारतीय आदिवासी मंच

First Published on:
Exit mobile version