आंबेडकर जयंती (14 अप्रैल) पर विशेष: हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र और डॉ. आंबेडकर

डॉरामायन राम


नब्बे के दशक के शुरुआत से ही संघ के नेतृत्व में हिंदुत्ववादी शक्तियां  अपनी राजनैतिक परियोजना के हिसाब से डॉ. अंबेेडकर का पुनर्पाठ करने में लगी थीं। अंबेेडकर को हिन्दू राष्ट्र का समर्थक, आरएसएस का शुभचिंतक और पाकिस्तान विरोधी अखण्ड भारत का समर्थक सिद्ध करने की लगातार कोशिश की जाती रही है। अंबेेडकर को ’फॉल्स गॉड’ और अंग्रेज समर्थक साबित करने की प्रक्रिया में मुँह की खा चुके संघ के विचारकों ने अंबेेडकर को गले लगाने का नया पैंतरा अपनाया है। इसके तहत झूठ पर आधारित अनर्गल तथ्यों को सामने रखकर अंबेेडकर को ’हिन्दू आइकॉन’ के रूप में पेश करने की कोशिश चल रही है। दलितों पिछड़ों और आदिवासियों के उल्लेखनीय समर्थन से संघ-बीजेपी को जो चुनावी सफलताएं मिलीं, उससे हिंदुत्व की ताकतों को अंबेेडकर के पुनर्पाठ और उसका व्यापक प्रचार करने के प्रति और अधिक उत्साह पैदा हुआ है।

यह एक किस्म का वैचारिक दुस्साहस ही कहा जाएगा कि अंबेेडकर जैसे हिंदुत्व विरोधी और प्रगतिशील-लोकतांत्रिक विचारक व नेता को हिंदुत्व के खांचे में समाहित करने का प्रयास किया जाए, क्योंकि जब हम डॉ. अंबेेडकर के लेखन और उनकी प्रस्थापनाओं से होकर गुजरते हैं तो यह पाते हैं कि वे हिन्दू धर्म, हिंदुत्व की राजनीति और हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के प्रबल विरोधी थे। सबसे पहली बात यह समझना जरूरी है कि डॉ. अंबेडकर हिन्दू धर्म को ’धर्म’ मानने के लिए ही तैयार नहीं थे। उनके अनुसार हिन्दू धर्म वर्ण व्यवस्था से अलग कुछ भी नहीं है। इसका एकमात्र आधार जाति व्यवस्था है और जाति के समाप्त होते ही हिन्दू धर्म का कोई अस्तित्व नहीं रह जायेगा। अपने प्रसिद्ध लेख ‘जातिप्रथा उन्मूलन’ में बाबा साहब डॉ. अंबेेडकर ने लिखा है- ‘‘सबसे पहले हमें यह महत्वपूर्ण तथ्य समझना होगा कि हिन्दू समाज एक मिथक मात्र है। हिंदू नाम स्वयं विदेशी है। यह नाम मुसलमानों ने भारतवासियों को दिया था, ताकि वे उन्हें अपने से अलग कर सकें। मुसलमानों के भारत पर आक्रमण से पहले लिखे गए किसी भी संस्कृत ग्रन्थ में इस नाम का उल्लेख नहीं मिलता। उन्हें अपने लिए किसी समान नाम की जरूरत महसूस नहीं हुई थी, क्योंकि उन्हें ऐसा नहीं लगता था कि वे किसी विशेष समुदाय के हैं। वस्तुतः हिंदू समाज नामक कोई वस्तु है ही नहीं। यह अनेक जातियों का समवेत रूप है। प्रत्येक जाति अपने अस्तित्व से परिचित है। वह अपने सभी समुदायों में व्याप्त है और सबको स्वयं में समाविष्ट किए हुए है और इसी में उसका अस्तित्व है। जातियों का कोई मिला-जुला संघ भी नहीं है। किसी भी जाति को यह महसूस नहीं होता कि वह अन्य जातियों से जुड़ी हुई है- सिर्फ उस समय को छोड़कर जब हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं।’’1

बाबा साहब अम्बेडकर के उपरोक्त विचारों को आज के समाज के आईने में हम स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता हुआ देखते हैं। हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के तहत दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों का स्थान वर्ण व्यवस्था के अनुक्रम के आधार पर पहले से ही निर्धारित है। शिक्षा, रोजगार, सम्मान और अधिकार के मामले में वे आज भी वंचित तबके की श्रेणी में हैं। लेकिन हिंदुत्ववादी फासीवाद के तहत व्यापक हिंदू एकता के नारे के अंतर्गत मुसलमानों के खिलाफ इन्हें गोलबंद किया जाता है। सामान्य समय में वे हिंदू होने की बजाय शूद्र, अस्पृश्य और आदिवासी होते हैं।

डाॅ. अंबेडकर यह मानते हैं कि हिंदुत्व का पूरा ढांचा ही वस्तुतः वर्ण व्यवस्था पर टिका है। इसलिए इसकी पूरी ताकत इस अमानवीय सिद्धांत को व्यवहार रूप में लागू कराने में लगती है। इस संदर्भ में डाॅ. अंबेडकर के विचार देखें- ‘‘हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं केवल आदेशों तथा निषेधाज्ञाओं का पुलिंदा है। आध्यात्मिक सिद्धांतों के रूप धर्म यथार्थ में सार्वभौमिक होता है, जो सारी प्रजातियों और देशों पर हर काल में समान रूप से लागू होता है। यह तत्व हिंदू धर्म में विद्यमान नहीं हैं और यदि हैं भी तो यह हिंदू के जीवन को संचालित नहीं करते। हिंदू के लिए ‘धर्म’ शब्द का अर्थ स्पष्ट रूप से आदेशों और निषेधाज्ञाओं से है और धर्म शब्द वेदों और स्मृतियों में इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है तथा ऐसा ही टीकाकारों द्वारा समझा गया है।  …स्पष्ट रूप से कहा जाए तो मैं इस अध्यादेशीय संहिता को धर्म मानने से इंकार करता हूं। गलत रूप से धर्म कही जाने वाली इस अध्यादेशीय संहिता की पहली बुराई यह है कि यह नैतिक जीवन को स्वतंत्रता व स्वेच्छा से वंचित करती है तथा बाहर से थोपे गए नियमों द्वारा चिंतिंत और चाटुकार बना देती है। इसके अंदर आदर्शों के प्रति निष्ठा नहीं है, केवल आदेशों का पालन ही आवश्यक है। इस अध्यादेशीय संहिता की सबसे बड़ी बुराई यह है कि इसमें वर्णित कानून कल, आज और हमेशा के लिए एक ही हैं। ये कानून असमान हैं तथा सभी वर्गों पर समान रूप से लागू नहीं होते। इस असमानता को चिर स्थाई बना दिया है कि क्योंकि इसे सभी पीढ़ियों के लिए एक ही प्रकार से लागू किया गया है। आपत्तिजनक बात यह नहीं है कि इस संहिता को किसी पैगंबर या कानूनदाता कहे जाने वाले महान व्यक्ति ने बनाया है। आपत्तिजनक बात यह है कि इस संहिता को अंतिमता व स्थिरता प्रदान की गई है। मन की प्रसन्नता किसी व्यक्ति की अवस्थाओं तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं, इस स्थिति में मानवता कब तक शिकंजे में जकड़े रहकर और अपंग बने रहकर इस बाहरी कानून की संहिता को सहन कर सकती है? इसलिए यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि ऐसे धर्म को नष्ट किया जाना चाहिए तथा ऐसे धर्म को नष्ट करने का कार्य अधर्म नहीं कहलाएगा।’’ 2

आज के समय में हिंदू धर्म और हिंदुत्व के ठेेकेदार रोज नई नई संहिताएं जारी कर रहे हैं। खान-पान, वेष-भूषा, शिक्षा-संस्कृति, प्रेम और विवाह संबंधी तमाम मामलों में ‘अध्यादेशीय संहिताएं’ जारी कर रहे हैं और उन्हें स्वीकार न करने वाले लोगों को धर्मद्रोही और राष्ट्रद्रोही करार दिया जाना हिंदू धर्म की वह मूल विशेषता है जिसकी ओर डाॅ. अंबेडकर ने स्पष्ट इशारा किया है।  डॉ. अम्बेडकर यह   रेखांकित करते हैं कि तथाकथित सनातन धर्म नैतिक या आध्यात्मिक सिद्धांत के रूप में किसी भी रूप में मनुष्यता के काम आने वाली वस्तु नहीं है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि -‘‘ हिंदुओं में उस चेतना का सर्वथा अभाव है जिसे समाज विज्ञानी ‘समग्र वर्ग चेतना’ कहते हैं। उनकी चेतना समग्र वर्ग से संबंधित नहीं है। हरेक हिंदू में जो चेतना पाई जाती है, वह उसकी अपनी ही जाति के बारे में होती है। इसी कारण यह कहा जाता है कि हिंदू लोग अपना समाज या राष्ट्र नहीं बना सकते।’’3

अंबेडकर कहते हैं कि हिंदुओं ने अपनी जाति के हित-स्वार्थों की रक्षा करने में अपने देश के प्रति विश्वासघात किया है। यहां अपने तर्कों के जरिये डाॅ अंबेडकर ने हिंदू राष्ट्र की संभावना को ही खारिज कर दिया है। हिंदुत्व में राजनैतिक संदर्भ से ही नहीं बल्कि हिंदू धर्म की आंतरिक संरचना और उसका स्वरूप विभाजनकारी है जिसमें लोकतांत्रिक सारतत्व का अभाव है। वेदों-पुराणों और स्मृतियों जैसे धर्मशास्त्र जिनमें हिंदू धर्म और हिंदू राजनीति का मूलाधार है, डाॅ. अंबेडकर उनको नष्ट करने के पक्ष में थे। आज हिंदुत्व की राजनीति के सरदार वेदों में समस्त विज्ञान, गणितीय सूत्र और चिकित्सा शास्त्र के समाहित होने के दावे करते हैं लेकिन इसके विपरीत बाबा साहब अंबेडकर इन शास्त्रों को अवैज्ञानिक-प्रतिक्रियावादी विचार और जड़ हो चुके मूल्यों का पोषक मानते हुए इनमें डायनामाइट लगा देने की सलाह देते हैं।

हिंदू राष्ट्र के पैरोकार हिंदू संगठनों की विचारधारा सनातन धर्म की ध्वजा लहराने की बात करती है। यह सनातनता वैदिक हिंदू धर्म की विशिष्टता बताई जाती है। डाॅ अंबेडकर ने सनातन हिंदू धर्म के सभी आधारों को अस्वीकार करने तथा हिंदुत्व के दावे को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ नामक एक पूरी किताब लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने वेदों के अपौरूषेय होने, हिंदू धर्म की सनातनता, वर्णाश्रम तथा ब्रह्म की अवधारणा की एक-एक कर धज्जियां उड़ाई हैं। हिंदू धर्म के विमर्शकार डाॅ अंबेडकर के तर्कों से भले ही सहमत न हों या फिर अंबेडकर के इन विचारों के स्रोत पर प्रश्न चिह्न खड़ा करें, लेकिन जिस तार्किक और वैज्ञानिक शैली में बाबा साहब ने अपने पक्ष को रखा है, वह बेजोड़ है। हिंदू धर्म की पहेलियां पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है-’’ब्राह्मणों ने तो संदेह की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी क्योंकि उन्होंने बड़ी चालाकी सेे एक मंत्र फूंक दिया, लोगों में एक ढकोसला फैला दिया कि वेद इंसान की रचना नहीं हैं। हिंदू आध्यात्मवाद जड़ हो गया है और हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति एक सड़े हुए बदबूदार पोखर की तरह हो गई है, इसलिए यदि भारत को प्रगति करनी है तो यह ढकोसला जड़ मूल से खत्म करना होगा। वेद बेकार की रचनाएं हैं, उन्हें पवित्र या संदेह से परे बताने का कोई तुक नहीं है। ब्राह्मणों ने इन्हें पवित्र और संदेहातीत बना दिया, केवल इसलिए कि इसमें पुरूषसूक्त के नाम से एक क्षेपक जोड़ दिया, इससे वेदों में ब्राह्मण को भूदेव बना दिया। कोई यह पूछने का साहन नहीं करता कि जिन पुस्तकों में कबीलाई देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वे शत्रु का नाश कर दें, उनकी संपत्ति लूट लें और अपने अनुयायियों में बांट दें, कैसे संदेहातीत हो गईं। परंतु अब समय आ गया है कि हिदू इस अंधे कुएं से बाहर आए। उन सारहीन विचारों को तिलांजलि दे दें जो ब्राह्मणों ने फैलाए हैं। इससे मुक्ति पाए बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है। मैंने हर तरह का जोखिम उठाकर हर तरह की रचना की है। मैं इसके परिणामों से नहीं डरता। यदि मैं लोगों की आंखें खोल दूंगा तो मुझे प्रसन्नता होगी।’’ 4

आज के राजनैतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में जब हिंदुत्व को जीवनशैली और भारत में रहने वाले सभी समुदायों व नागरिकों को हिंदू कहने का प्रपंच हिंदुत्व के नेताओं की ओर से फैलाया जा रहा है, तब बाबा साहब अंबेडकर के इस विश्लेषण के आगे हिंदुत्व की ‘तत्व मीमांसा’ कहीं नहीं ठहरती। उन्होंने हिंदू धर्म को मानवतावाद की कसौटी पर कसा और हिंदू धर्म को लोकतांत्रिक मानवीय जीवन के लिए हर तरह से अनुपयुक्त सिद्ध किया।

हिदू राष्ट्र के पैरोकार जानबूझकर अंबेडकर के इन विचारों की उपेक्षा करते हैं और इन्हें छिपाते हैं। इसी प्रक्रिया में पाकिस्तान के सवाल पर डाॅ. अंबेडकर के विश्लेषण को संदर्भ से काटकर उन्हें पाकिस्तान का विरोधी और तथाकथित अखंड भारत का समर्थक सिद्ध किया जाता है। जबकि पूरी सच्चाई यह है कि डाॅ. अंबेडकर सिद्धांत रूप में कभी भी पाकिस्तान बनने के विरोधी नहीं रहे, पाकिस्तान के प्रश्न को उन्होंने ’ राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय’ के सिद्धांत के तहत समझा था, लेकिन वे धर्म के नाम पर बनने वाले राष्ट्र के समर्थक नहीं थे। मुसलमानों को हिंदू राज के खतरों के प्रति आगाह करते हुए उन्होंने यह मशविरा दिया था कि मुसलमानों को भारतीय संविधान के अंतर्गत अधिकतम अधिकारों व सुरक्षात्मक उपायों के साथ भारतीय राष्ट्र का हिस्सा बनकर ही रहना चाहिए। डाॅ अंबेडकर का कहना था कि मुसलमानों को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। इस संदर्भ में उनके विचार बेहद मूल्यवान हैं-’’ हिंदू राष्ट्रवादी जो यह आशा करते हैं कि ब्रिटेन मुसलमानों पर पाकिस्तान की मांग त्यागने के लिए दबाव डाले वे यह भूल जाते हैं कि विदेशी आक्रामक साम्राज्यवाद से राष्ट्रीयता की आजादी का अधिकार और बहुसंख्यक आक्रामक राष्ट्रीयता से अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। दोनों का एक ही आधार है। वे स्वतंत्रता संघर्ष के दो पहलू हैं और उनका नैतिक मूल्य भी बराबर है।’’5

अपने इस स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ डाॅ. अंबेडकर ने द्विराष्ट्र के सिद्धांत का खंडन करते हुए हिंदुओं और मुसलमानों को अपना अतीत भुलाकर एक साथ रहने की वकालत की थी। हिंदू राष्ट्र के खतरे के प्रति सचेत रहते हुए डाॅ अंबेडकर ने कहा-’’अगर वास्तव में हिंदू राज बन जाता है तो निस्संदेह इस देश के लिए एक भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता-समानता और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर प्रजातंत्र के लिए यह अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’’6

हिंदू राज के खतरे को रोकने के लिए डाॅ. अंबेडकर ने भारतीय लोकतंत्र में सांप्रदायिक आधार पर किसी भी राजनैतिक पार्टी के गठन पर रोक लगाने की बात कही। उनका कहना था कि अगर अल्पसंख्यक समुदायक अपने धर्म के आधार पर किसी राजनैतिक पार्टी का गठन करेंगे तो बहुसंख्यक अस्मिता भी ऐसा करेगी और इस प्रकार बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के हावी हो जाने का खतरा हमेशा उत्पन्न रहेगा। वर्तमान भारत में हम इस बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के फासीवादी उभार को देख रहे हैं, जिसके तहत मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यक हिंदू अस्मिता को आधार बनाकर एक फासीवादी राजनीति का प्रसार हुआ है।

डाॅ. अंबेडकर के विचारों का मूल सरोकार एक जनतांत्रिक समाज का निर्माण करना है, अतः उन्होंने हिंदू धर्म की आध्यात्मिकता और उसकी राजनीति पर आधारित हिंदुत्व के खतरों के प्रति आगाह किया था, जो आज के भारत में बेहद प्रासंगिक हो गई है। आज डाॅ अंबेडकर की चेतावनियों को याद करना और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के उन्माद को रोकना भारतीय लोकतंत्र को बचाए रखने का मौलिक कार्यभार बन गया है।

संदर्भ सूची

1-जातिप्रथा उन्मूलन, बाबा साहब डाॅ. अंबेडकर संपूर्ण वांड्मय खंड 1 पृष्ठ संख्या 69-70 प्रका. अंबेडकर प्रतिष्ठान

2- वही पृष्ठ संख्या 100-101

3- वही पृष्ठ संख्या 70

4-भूमिका, हिंदू धर्म की पहेलियां, बाबा साहब अंबेडकर संपूर्ण वांड्मय खंड 3 प्रका. अंबेडकर प्रतिष्ठान

5- भूमिका, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, बाबा साहब अंबेडकर संपूर्ण वांड्मय खंड 15 प्रका. अंबेडकर प्रतिष्ठान

6- पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, बाबा साहब अंबेडकर संपूर्ण वांड्मय खंड 15 पृष्ठ संख्या 365 प्रका.अंबेडकर प्रतिष्ठान


(युवा आलोचक, असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. रामायन राम जन संस्कृति मंचउत्तर प्रदेश इकाई के राज्य सचिव हैं . यह लेख समकालीन जनमत से साभार प्रकाशित है. )

 

First Published on:
Exit mobile version