सेक्सोफोन की दुनिया यूं ही बड़ी नहीं है. इस वाद्ययंत्र में दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह की हुकूमत को चुनौती देने की हिम्मत और ताकत बरकरार है. अगर आप यह जानने के इच्छुक हैं कि यह हिम्मत और ताकत इस जिद्दी वाद्ययंत्र को बजाने वालों ने कैसे जुटाई थीं (अब भी जुटाते हैं) तो इसके लिए आपको 13 अक्टूबर की शाम ठीक साढ़े पांच बजे भिलाई के कला मंदिर सिविक सेंटर में आना होगा.
यह साज़ एक साथ कई एक्सप्रेशन की ताकत रखता है. इसके स्वर में कोमलता, उत्तेजना, उन्मुक्तता, जुनून और स्व्छंदता है तो आंसू, उदासी और विद्रोह का जबरदस्त तेज भी मौजूद है. यहां यह बताना जरूरी है कि अपना मोर्चा डॉट कॉम और संस्कृति विभाग के सहयोग से आयोजित ‘सेक्सोफोन की दुनिया’ कार्यक्रम इसके पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जबरदस्त ढंग से सफल रहा है. इस कार्यक्रम की गूंज विदेश तक जा पहुंची है. अब बारी सुर और ताल के मुरीदों के शहर भिलाई की है.
इस बार खास आयोजन के मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल होंगे जबकि विशिष्ट अतिथि के तौर पर संस्कृति मंत्री अमरजीत भगत और विधायक-महापौर देवेंद्र यादव मौजूद रहेंगे. इस मर्तबा भी सेक्सोफोनिस्ट विजेंद्र धवनकर पिंटू, लीलेश कुमार और सुनील कुमार जानदार और शानदार गीतों की धुन पर धमाल मचाएंगे. फिल्म अध्येता अनिल चौबे पर्दे पर छोटी-छोटी क्लिपिंग के जरिए यह जानकारी देंगे कि फिल्मों में सेक्सोफोन की उपयोगिता क्यों और किसलिए है?
आयोजन की एक खास बात यह होगी कि चित्रकार सर्वज्ञ की अगुवाई में सुरेंद्र उइके, कुशाल साहू और प्रवीर सिंह बैस उपस्थित मेहमानों और हॉल में मौजूद दर्शकों का रेखाचित्र बनाएंगे. कार्यक्रम का संचालन राजकुमार सोनी करेंगे.
सेक्सोफोन के बारे में
सेक्सोफोन बन तो गया, लेकिन इस साज़ को किसी भी तरह के आर्केस्ट्रा या सिंफनी में जगह नहीं मिली. अभिजात्य वर्ग ने उसे ठुकरा दिया, लेकिन सेक्सोफोन बजाने वालों ने उसे नहीं ठुकराया. धीरे-धीरे यह वाद्य लोगों के दिलों में अपना असर छोड़ने लगा. यह वाद्य जितना विदेश में लोकप्रिय हुआ उतना ही भारत में भी मशहूर हुआ. किसी समय तो इस वाद्ययंत्र की लहरियां हिंदी फिल्म के हर दूसरे गाने में सुनाई देती थीं, लेकिन सिथेंसाइजर व अन्य इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों की धमक के चलते बड़े से बड़े संगीतकार सेक्सोफोन बजाने वालों को हिकारत की नजर से देखने लगे. उनसे किनारा करने लगे.
इधर एक बार फिर जब दुनिया ओरिजनल की तरफ लौट रही है तब लोगों का प्यार इस वाद्ययंत्र पर उमड़ रहा है. ऐसा इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि बाजार के इस युग में अब भी सेक्सोफोन को एक अनिवार्य वाद्य यंत्र मानने वाले लोग मौजूद हैं. अब भी संगीत के बहुत से जानकार यह मानते हैं कि दर्द और विषाद से भरे अंधेरे समय को चीरने के लिए सेक्सोफोन और उसकी धुन का होना बेहद अनिवार्य है.
बेदर्दी बालमां तुझको… मेरा मन याद करता है… है दुनिया उसकी जमाना उसी का… गाता रहे मेरा दिल…हंसिनी ओ हंसिनी… सहित सैकड़ों गाने आज भी इसलिए गूंज रहे हैं क्योंकि इनमें किसी सेक्सोफोनिस्ट ने अपनी सांसें रख छोड़ी हैं. छत्तीसगढ़ में भी चंद कलाकार ऐसे हैं जिन्होंने इस वाद्ययंत्र की सांसों को थाम रखा है.
सेक्सोफोन पर लग चुका है प्रतिबंध
पाठकों को यह भी बताना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर के निवासी (अब नागपुर) कथाकार मनोज रुपड़ा ने सेक्सोफोन को केंद्र पर रखकर साज-नासाज जैसी कहानी भी लिखी हैं. इस मकबूल कहानी पर दूरदर्शन ने एक फिल्म भी बनाई है. अपने एक लेख में मनोज रुपड़ा लिखते हैं-
“एक समय लेटिन अमेरिका के एक देश में जनविरोधी सरकार के खिलाफ लाखों लोगों का एक मार्च निकला था. सेक्सोफोन बजाने वालों की अगुवाई में लाखों लोगों की भीड़ जब आगे बढ़ी तो तहलका मच गया. अभिजात्य वर्ग को सेक्सोफोन की असली ताकत तब समझ में आई. फिर तो ये सिलसिला बन गया. हर विरोध प्रदर्शन में जन आक्रोश को स्वर देने और उसकी रहनुमाई करने की जिम्मेदारी को सेक्सोफोन ने बखूबी निभाया. फिर उन्नीसवी सदी के प्रारंभ में जैज संगीत आया. जैज संगीत अफ्रीकी–अमेरिकी समुदायों के बीच से निकला था और उसकी जड़ें नीग्रो ब्लूज़ से जुड़ी हुई थीं. जैज ने भी सेक्सोफोन को तहेदिल से अपनाया क्योंकि सेक्सोफोन चर्च की प्रार्थनाओं में ढल जाने वाला वाद्य नहीं था. उसकी आवाज में दहला देने की ताकत थी. खुद जैज अपने आप में एक विस्फोटक कला-रूप था. उसने अपनी शुरूआत से ही उग्र रूप अपनाया था. उसने थोपी हुई नैतिकता और बुर्जुआ समाज के खोखले आडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. बहुत जल्द वो समय आ गया जब सत्ता और जैज आमने–सामने आ गए. सत्ता का दमन शुरू हो गया तो यूएसएसआर में 1948 में सेक्सोफोन और जैज म्यूजिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उसके ऊपर अभद्र, असामाजिक और अराजक होने का आरोप था”.
हिटलर के युग में जर्मनी में भी सेक्सोफोन और जैज पर प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन हर तरह के दमन और अपमानजनक बेदखलियों के बावजूद सेक्सोफोन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी क्योंकि वह एक बहुत हठीला जन वाद्ययंत्र है. उसी समय की एक बात है. घूरी रंगया के जंगल में एक बार एक गुप्त कंसर्ट चल रहा था. इस बात की भनक पुलिस को लग गई और वे दलबल के साथ जंगल की तरफ बढ़े लेकिन वहां हजारों की तादाद में संगीत सुनने वाले मौजूद थे. पुलिस को यह उम्मीद नहीं थी कि शहर से इतनी दूर जंगल में लोग इतनी बड़ी तादाद में संगीत सुनने जाते होंगे. संगीत की लहरों में झूमते हुए लोगों पर हवाई फायर का भी जब कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें बल प्रयोग करना पड़ा. भीड़ तितर-बितर हो गई.
संगीत भी बजना बंद हो गया लेकिन तभी एक सेक्सोफोन बजाने वाला एक बहुत ऊंचे पेड़ पर चढ़ गया और वहां पेड़ के ऊपर सेक्सोफोन बजाने लगा. उसके इस बुलंद हौसले को देखकर पूरा जनसमूह फिर से जोश में आ गया. पुलिस ने भले ही पुलिस की वर्दी पहन रखी थी, लेकिन आखिरकार वे भी तो इंसान थे. तो हुआ ये कि उस धुन ने पुलिसवालों के दिलों को भी अपने वश में कर लिया में कर लिया और वे भी भावविभोर हो गए.
अब यहां एक सवाल ये हो सकता है कि इन साजिंदों के वादन में ऐसी क्या खास बात थी जो सत्ता को नागवार लगती थी? न तो ये संगीतकार किसी जन आंदोलन से जुड़े थे न ही उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा थी. वे तो सिर्फ ऐसी धुनें रचते थे जो लोगों के दिलों पर छा जाती थीं. प्रत्यक्ष रूप से वे किसी भी राजसत्ता का विरोध नहीं कर रहे थे, या उन्होने ये सोचकर संगीत नहीं रचा था कि किसी का विरोध करना है. दरअसल, उनकी धुनों में ही कुछ ऐसी बात थी कि लोग दूसरी तमाम बातों को भुलाकर उनकी तरफ़ खिंचे चले आते थे.
अब जरा सोचिए कि हिटलर पूरे जोश-खरोश के साथ कहीं भाषण दे रहा है और लोग उसकी बातों से प्रभावित होकर हिटलर-हिटलर का जयकारा कर रहे हैं और अचानक कहीं सेक्सोफोन बजने लगे और लोगों का ध्यान हिटलर से हटकर सेक्सोफोन की तरफ़ चला जाए, तब क्या होगा?