नीरज कुमार
डॉ. राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद देश में शोक का जो सैलाब आया, उससे यह साबित हो गया कि महात्मा गांधी के बाद यदि सही मायने में देश के करोड़ों गरीब, भूखे-नंगे इंसानों का कोई रहनुमा था तो वह थे डॉ. राममनोहर लोहिया. डॉ. लोहिया ने अपने को आम जनता में इस तरह से मिला दिया था कि अनजान आदमी के लिए, जो डॉ. लोहिया को पहचानता न हो, यह समझ सकना प्रायः असंभव था कि उनके बीच खड़ा व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का महान नेता डॉ. लोहिया है अथवा कोई साधारण कार्यकर्ता. एक बार लोहिया जी कहीं जा रहे थे. मोटरगाडी में उनके साथ और भी कई कार्यकर्ता थे. रास्ते में कोई हलवाई जलेबी छान रहा था. लोहिया जी ने गाड़ी रुकवा दी. उतर पड़े. कुछ गर्म-गर्म जलेबियाँ तौलवाई गईं. चलने के समय जब दुकानदार को पैसे दिए जाने लगे तो खासी परेशानी पैदा हो गई. हुआ यह कि जब लोहिया जी जलेबी खाने में मशगूल थे तभी किसी तरह दुकानदार को पता चल गया कि डॉ. लोहिया हैं. फिर क्या था? दुकानदार पैसे लेने को तैयार ही नहीं हो और लोहिया जी बिना पैसे दिये वहां से टलने को तैयार नहीं. दुकानदार का कहना था कि उसका सौभाग्य था कि डॉक्टर लोहिया ने उसकी दुकान पर जलेबी खाई, इसलिए वह पैसे नहीं ले सकता. लोहिया जी का कहना था कि यह हो नहीं सकता कि वे जलेबी खायें और पैसे न दें. बहस में समय बीत रहा था. अगली सभा में पहुँचने में देर हो रही थी. सभी लोग परेशान. अंत में लोहिया जी ने ही रास्ता निकाला. कहा- “अच्छा! एक काम करो. तुम इन जलेबियों के तो भरपाई पैसे ले लो, और अपनी ओर से एक जलेबी दे दो, जो खाकर मैं तुम्हारी बात रख दूँ.” दुकानदार भी इस शर्त पर समझौते के लिए तैयार हो गया. ऐसे थे डॉ. लोहिया, आम लोगों में मिल जाने वाले.
1965 में 10 अगस्त को गिरफ्तार होकर लोहिया जी हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में पहुंचे थे. चूँकि डॉ. लोहिया की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सर्वोच्च न्यायालय में विचारार्थ स्वीकृत हो चुकी थी और उसकी सुनवाई 23 अगस्त को होने वाली थी, इसलिए 20 अगस्त को लोहिया जी को हजारीबाग से दिल्ली ले जाया गया. जब वे वार्ड से विदा होने लगे तो राजनीतिक कैदियों से मिलने से पहले, उन्होंने परिचारकों से मिलना अधिक पसंद किया. सबसे पहले वे उस सेल में गये, जिसमें वार्ड का सफैया योगीहरी रहता था. लोहिया जी को देखकर जैसे ही योगी अपने सेल से बाहर आया, लोहिया जी ने उसे पकड़ कर अपनी छाती से लगा लिया और कहने लगे- “जा रहा हूँ, पता नहीं फिर हम लोगों की भेंट होगी कि नहीं.” योगी लोहिया जी के आलिंगन में खड़ा अविरल रो रहा था और लोहिया जी उसकी पीठ थपथपा रहे थे. लगता था जैसे परिवार के दो सदस्य आपस में बिछुड़ रहे हों. उसके बाद लोहिया जी ने सभी परिचरों-पनिहा, रसोइया, पहरा, मेठ- सबको गले लगाया और बाद में राजनीतिक कैदियों की बारी आई, जिसमें किसी की पीठ थपथपाई, किसी को प्यार से चपत लगाई तो किसी से सिर्फ नमस्कार ही किया.
लोहिया जी अपने व्यवहार से किसी को भी मोह लेते थे. और, वह भी इस प्रकार से कि वह आदमी हमेशा के लिए उनका श्रद्धालु हो जाए. इसका बहुत बड़ा प्रमाण मिला था अक्टूबर 1967 में, लोहिया जी की बीमारी के समय. रीवां की वह पान वाली तथा दिल्ली का वह टैक्सी ड्राइवर. डॉ. लोहिया पान नहीं खाते थे फिर भी आदमी तो मौज वाले थे न! मौज में आकर कभी रीवां में एक बूढी पान वाली से पान खा लिया. लेकिन वह पान भी ऐसा जैसे विदुर के घर कृष्ण ने साग खा लिया. वह पान वाली हो गई डॉक्टर लोहिया की भक्त. जब लोहिया जी की बीमारी की खबर उसने सुनी तो एकमात्र अपनी रोटी का सहारा दुकान बंद करके चल पड़ी दिल्ली की ओर. दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल के हाते में, आँगन में, वह बूढी पान वाली बैठी रहती थी और बराबर हाथ जोड़कर डॉ. लोहिया की जिन्दगी के लिए भगवान से प्रार्थना करती रहती थी. जब कोई कह देता कि लोहिया जी को अभी कुछ आराम है तो ख़ुशी से उसका चेहरा चमक उठता और यदि कोई बीमारी बढ़ जाने की खबर कह देता तो उसका चेहरा उतर जाता था. इसी प्रकार वह टैक्सी ड्राइवर भी सिर्फ उतनी ही देर तक अपनी टैक्सी चलाता, जितनी देर में मालिक को देने भर कमा लेता. और, बाकी समय अस्पताल में बैठा रहता. इस तरह डॉक्टर लोहिया ने अपने को आम जनता से बिल्कुल एकाकार कर लिया था. यही कारण है कि डॉ. लोहिया बिना सत्ता में गए भी एकछत्र राजा थे- जनता के हृदय के राजा.
(लेखक सोशलिस्ट युवजन सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)