भगत सिंह के चार पत्रों में घुमड़ता प्यार और इन्क़लाब का ज्वार!

जश्न-ए-भगत सिंह–8

 

23 मार्च 1931 को भगत सिंह, अपने साथी सुखदेव और राजगुरु के साथ लाहौर जेल में फाँसी चढ़ गए। तीनों उसी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन के सिपाही थे जो भारत को सिर्फ़ आज़ाद नहीं कराना चाहती थी बल्कि एक शोषणमुक्त समाजवादी समाज भी बनाना चाहती थी। भगत सिंह इस क्रांतिकारी आँदोलन के वैचारिक नेता थे, जिन्होंने तमाम विषयों पर अपनी क़लम चलाकर बताया कि क्रांति से उनका अभिप्राय दरअसल क्या है…! आज़ादी के बाद भगत सिंह को पूजा तो ख़ूब गया लेकिन उन्हें जानने-समझने की कोशिशों पर लगातार धूल ढाली गई। ‘मीडिया विजिल’ अगले कुछ दिनों तक लगातार भगत सिंह के लिखे लेख श्रद्धांजलि के रूप में छापेगा, ताकि उनके विचारों से परिचित हुआ जा सके। 31 मार्च से 1अप्रैल के बीच दिल्ली में आयोजित होने जा रहे भगत सिंह स्मृति जनोत्सव का मक़सद भी यही है। मीडिया विजिल इस आयोजन में बतौर मीडिया पार्टनर शामिल है। पढ़िए,इस लेख-माला की आठवीं कड़ी में भगत सिंह के चार पत्र —

 

 

 

पिता के नाम पत्र

 

(30 सितम्बर, 1930 को भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को एक अर्जी देकर बचाव पेश करने के लिए अवसर की माँग की। सरदार किशनसिंह स्वयं देशभक्त थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में जेल जाते रहते थे। उन्हें व कुछ अन्य देशभक्तों को लगता था कि शायद बचाव-पक्ष पेश कर भगतसिंह को फाँसी के फन्दे से बचाया जा सकता है, लेकिन भगतसिंह और उनके साथी बिल्कुल अलग नीति पर चल रहे थे। उनके अनुसार, ब्रिटिश सरकार बदला लेने की नीति पर चल रही है व न्याय सिर्फ ढकोसला है। किसी भी तरीके से उसे सजा देने से रोका नहीं जा सकता। उन्हें लगता था कि यदि इस मामले में कमजोरी दिखायी गयी तो जन-चेतना में अंकुरित हुआ क्रान्ति-बीज स्थिर नहीं हो पायेगा। पिता द्वारा दी गयी अर्जी से भगतसिंह की भावनाओं को भी चोट लगी थी, लेकिन अपनी भावनाओं को नियन्त्रित कर अपने सिद्धान्तों पर जोर देते हुए उन्होंने 4 अक्तूबर, 1930 को यह पत्र लिखा जो उनके पिता को देर से मिला। 7 अक्तूबर, 1930 को मुकदमे का फैसला सुना दिया गया।)

 

4 अक्तूबर, 1930

पूज्य पिता जी,

मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि आपने मेरे बचाव-पक्ष के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को एक आवेदन भेजा है। यह खबर इतनी यातनामय थी कि मैं इसे खामोशी से बर्दाश्त नहीं कर सका। इस खबर ने मेरे भीतर की शान्ति भंग कर उथल-पुथल मचा दी है। मैं यह नहीं समझ सकता कि वर्तमान स्थितियों में और इस मामले पर आप किस तरह का आवेदन दे सकते हैं?

आपका पुत्र होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूँ लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूँ कि आपको मेरे साथ सलाह-मशविरा किये बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था। आप जानते थे कि राजनैतिक क्षेत्र में मेरे विचार आपसे काफी अलग हैं। मैं आपकी सहमति या असहमति का ख्याल किये बिना सदा स्वतन्त्रतापूर्वक काम करता रहा हूँ।

मुझे यकीन है कि आपको यह बात याद होगी कि आप आरम्भ से ही मुझसे यह बात मनवा लेने की कोशिशें करते रहे हैं कि मैं अपना मुकदमा संजीदगी से लड़ूँ और अपना बचाव ठीक से प्रस्तुत करूँ, लेकिन आपको यह भी मालूम है कि मैं सदा इसका विरोध करता रहा हूँ। मैंने कभी भी अपना बचाव करने की इच्छा प्रकट नहीं की और न ही मैंने कभी इस पर संजीदगी से गौर किया है।

आप जानते हैं कि हम एक निश्चित नीति के अनुसार मुकदमा लड़ रहे हैं। मेरा हर कदम इस नीति, मेरे सिद्धान्तों और हमारे कार्यक्रम के अनुरूप होना चाहिए। आज स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं। लेकिन अगर स्थितियाँ इससे कुछ और भी अलग होतीं तो भी मैं अन्तिम व्यक्ति होता जो बचाव प्रस्तुत करता। इस पूरे मुकदमे में मेरे सामने एक ही विचार था और वह यह कि हमारे विरुद्ध जो संगीन आरोप लगाये गए हैं, बावजूद उनके हम पूर्णतया इस सम्बन्ध में अवहेलना का व्यवहार करें। मेरा नजरिया यह रहा है कि सभी राजनैतिक कार्यकर्ताओं को ऐसी स्थितियों में उपेक्षा दिखानी चाहिए और उनको जो भी कठोरतम सजा दी जाए, वह उन्हें हँसते-हँसते बर्दाश्त करनी चाहिए। इस पूरे मुकदमे के दौरान हमारी योजना इसी सिद्धान्त के अनुरूप रही है। हम ऐसा करने में सफल हुए या नहीं, यह फैसला करना मेरा काम नहीं। हम खुदगर्जी को त्यागकर अपना काम कर रहे हैं।

वाइसराय ने लाहौर साजिश केस आर्डिनेंस जारी करते हुए इसके साथ जो वक्तव्य दिया था, उसमें उन्होंने कहा था कि इस साजिश के मुजरिम शान्ति व्यवस्था को समाप्त करने के प्रयास कर रहे हैं। इससे जो हालात पैदा हुए उसने हमें यह मौका दिया कि हम जनता के समक्ष यह बात प्रस्तुत करें कि वह स्वयं देख ले कि शान्ति-व्यवस्था एवं कानून समाप्त करने की कोशिशें हम कर रहे हैं या हमारे विरोधी? इस बात पर मतभेद हो सकते हैं। शायद आप भी उनमें से एक हों जो इस बात पर मतभेद रखते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप मुझसे सलाह किए बिना मेरी ओर से ऐसे कदम उठाएं। मेरी ज़िन्दगी इतनी कीमती नहीं जितनी कि आप सोचते हैं। कम-से-कम मेरे लिए तो इस जीवन की इतनी कीमत नहीं कि इसे सिद्धान्तों को कुर्बान करके बचाया जाए। मेरे अलावा मेरे और साथी भी हैं जिनके मुकदमे इतने ही संगीन हैं जितना कि मेरा मुकदमा। हमने एक संयुक्त योजना अपनायी है और उस योजना पर हम अन्तिम समय तक डटे रहेंगे। हमें इस बात की कोई परवाह नहीं कि हमें व्यक्तिगत रूप में इस बात के लिए कितना मूल्य चुकाना पड़ेगा।

पिता जी, मैं बहुत दुख का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे भय है,आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस काम की निन्दा करते हुए मैं कहीं सभ्यता की सीमाएँ न लाँघ जाऊँ और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जायें। लेकिन मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूँगा। यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता, लेकिन आपके सन्दर्भ में मैं इतना ही कहूँगा कि यह एक कमजोरी है- निचले स्तर की कमजोरी।

यह एक ऐसा समय था जब हम सबका इम्तिहान हो रहा था। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप इस इम्तिहान में नाकाम रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप भी इतने ही देशप्रेमी हैं, जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता है। मैं जानता हूँ कि आपने अपनी पूरी जिन्दगी भारत की आजादी के लिए लगा दी है, लेकिन इस अहम मोड़ पर आपने ऐसी कमजोरी दिखाई, यह बात मैं समझ नहीं सकता।

अन्त में मैं आपसे, आपके अन्य मित्रों एवं मेरे मुकदमे में दिलचस्पी लेनेवालों से यह कहना चाहता हूँ कि मैं आपके इस कदम को नापसन्द करता हूँ। मैं आज भी अदालत में अपना कोई बचाव प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं हूँ। अगर अदालत हमारे कुछ साथियों की ओर से स्पष्टीकरण आदि के लिए प्रस्तुत किए गए आवेदन को मंजूर कर लेती, तो भी मैं कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत न करता।

भूख हड़ताल के दिनों में ट्रिब्यूनल को जो आवेदन पत्र मैंने दिया था और उन दिनों में जो साक्षात्कार दिया था उन्हें गलत अर्थो मे समझा गया है और अखबारों में यह प्रकाशित कर दिया गया कि मैं अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ, हालाँकि मैं हमेशा स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने के विरोध में रहा। आज भी मेरी वही मान्यता है जो उस समय थी।

बोर्स्टल जेल में बन्दी मेरे साथी इस बात को मेरी ओर से गद्दारी और विश्वासघात ही समझ रहे होंगे। मुझे उनके सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करने का अवसर भी नहीं मिल सकेगा।

मैं चाहूँगा कि इस सम्बन्ध में जो उलझनें पैदा हो गयी हैं,उनके विषय में जनता को असलियत का पता चल जाए। इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप जल्द-से-जल्द यह चिट्ठी प्रकाशित कर दें।

आपका आज्ञाकारी,

भगत सिंह

शहादत से पहले साथियों को अन्तिम पत्र

 

22 मार्च, 1931

साथियो,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ,कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।

मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।

आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।

आपका साथी

 भगत सिंह

 

 

छोटे भाई कुलबीर के नाम अन्तिम पत्र

 

 

लाहौर सेण्ट्रल जेल,
3 मार्च, 1931

प्रिय कुलबीर सिंह,

तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया। मुलाक़ात के वक़्त ख़त के जवाब में कुछ लिख देने के लिए कहा। कुछ अल्फाज़ (शब्द) लिख दूँ, बस- देखो, मैंने किसी के लिए कुछ न किया, तुम्हारे लिए भी कुछ नहीं। आजकल बिलकुल मुसीबत में छोड़कर जा रहा हूँ। तुम्हारी जिन्दगी का क्या होगा? गुजारा कैसे करोगे? यही सब सोचकर काँप जाता हूँ, मगर भाई हौसला रखना, मुसीबत में भी कभी मत घबराना। इसके सिवा और क्या कह सकता हूँ। अमेरिका जा सकते तो बहुत अच्छा होता, मगर अब तो यह भी नामुमकिन मालूम होता है। आहिस्ता-आहिस्ता मेहनत से पढ़ते जाना। अगर कोई काम सीख सको तो बेहतर होगा, मगर सब कुछ पिता जी की सलाह से करना। जहाँ तक हो सके, मुहब्बत से सब लोग गुजारा करना। इसके सिवाय क्या कहूँ?

जानता हूँ कि आज तुम्हारे दिल के अन्दर गम का सुमद्र ठाठें मार रहा है। भाई तुम्हारी बात सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं, मगर क्या किया जाए, हौसला करना। मेरे अजीज, मेरे बहुत-बहुत प्यारे भाई, जिन्दगी बड़ी सख्त है और दुनिया बड़ी बे-मुरव्वत। सब लोग बड़े बेरहम हैं। सिर्फ मुहब्बत और हौसले से ही गुजारा हो सकेगा। कुलतार की तालीम की फिक्र भी तुम ही करना। बड़ी शर्म आती है और अफ़सोस के सिवाय मैं कर ही क्या सकता हूँ। साथ वाला ख़त हिन्दी में लिखा हुआ है। ख़त ‘के’ की बहन को दे देना। अच्छा नमस्कार, अजीज भाई अलविदा… रुख़सत।

तुम्हारा खैर-अंदेश
भगत सिंह

 

 

 

एक पत्र सुखदेव के नाम

 

(भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज के छात्र थे। एक सुंदर-सी लड़की आते जाते उन्हें देखकर मुस्कुरा देती थी और सिर्फ भगत सिंह की वजह से वह भी क्रांतिकारी दल के करीब आ गयी। जब असेंबली में बम फेंकने की योजना बन रही थी तो भगत सिंह को दल की ज़रूरत बताकर साथियों ने उन्हें यह जि़म्मेदारी सौपने से इंकार कर दिया। भगत सिंह के अंतरंग मित्र सुखदेव ने उन्हें ताना मारा कि तुम मरने से डरते हो और ऐसा उस लड़की की वजह से है। इस आरोप से भगत सिंह का हृदय रो उठा और उन्होंने दोबारा दल की मीटिंग बुलाई और असेंबली में बम फेंकने का ज़िम्मा जोर देकर अपने नाम करवाया। आठ अप्रैल, 1929 को असेंबली में बम फेंकने से पहले सम्भवतः 5 अप्रैल को दिल्ली के सीताराम बाज़ार के घर में उन्होंने सुखदेव को यह पत्र लिखा था जिसे शिव वर्मा ने उन तक पहुँचाया। यह 13 अप्रैल को सुखदेव के गिरफ़्तारी के वक्त उनके पास से बरामद किया गया और लाहौर षड्यंत्र केस में सबूत के तौर पर पेश किया गया।)

 

प्रिय भाई,

जब तक तुम्हें यह ख़त मिलेगा, मैं दूर मंज़िल की ओर जा चुका होऊँगा। मेरा यक़ीन कर, आजकल मैं बहुत प्रसन्नचित्त अपने आखि़री सफ़र के लिए तैयार हूँ। अपनी ज़िन्दगी की सारी ख़ुशियों और मधुर यादों के बावजूद मेरे दिल में एक बात आज तक चुभती रही। वह यह कि मुझे भाई ने ग़लत समझा और मुझ पर कमज़ोरी का बहुत ही गम्भीर आरोप लगाया। आज मैं पहले से कहीं ज़्यादा पूरी तरह से सन्तुष्ट हूँ। मैं आज भी महसूस करता हूँ कि वह बात कुछ भी नहीं, बस ग़लतफ़हमी थी। ग़लत शक था। मेरे खुले व्यवहार के कारण मुझे बातूनी समझा गया और मेरे द्वारा सबकुछ स्वीकार कर लेने को कमज़ोरी माना गया। लेकिन आज मैं महसूस कर रहा हूँ कि कोई ग़लतफ़हमी नहीं, मैं कमज़ोर नहीं, अपनों में से किसी से भी कमज़ोर नहीं।

भाई मेरे, मैं साफ़ दिल से विदा लूँगा और तुम्हारी शंका भी दूर करूँगा। इसमें तुम्हारी बहुत कृपालुता होगी। ध्यान रहे, तुम्हें जल्दबाज़ी से कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए। सोच-समझकर और शान्ति से काम को आगे बढ़ाना। अवसर पा लेने की जल्दबाज़ी न करना। जनता के प्रति जो तुम्हारा फ़र्ज़ है उसे निभाते हुए काम को सावधानीपूर्वक करते रहना। सलाह के तौर पर मैं कहना चाहता हूँ कि शास्त्री मुझे पहले से अधिक अच्छा लग रहा है। मैं उसे सामने लाने की कोशिश करता, बशर्ते कि वह साफ़गोई से अपनेआप को एक अँधेरे भविष्य के लिए अर्पित करने के लिए सहमत हो। उसे साथियों के नज़दीक आने दो ताकि वह उनके आचार-विचार का अध्ययन कर सके। यदि वह अर्पित भाव से काम करेगा तो काफ़ी लाभदायक और मूल्यवान सिद्ध होगा। लेकिन जल्दबाज़ी न करना। तुम स्वयं अच्छे पारखी हो। जिस तरह जँचे, देख लेना। आ मेरे भाई, अब हम ख़ुशियाँ मना लें।

ख़ैर, मैं कह सकता हूँ कि बहस के मामले में मुझसे अपने पक्ष पेश किये बिना नहीं रहा जाता। मैं पुरज़ोर कहता हूँ कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर जीवन की समस्त रंगीनियों से ओतप्रोत हूँ, लेकिन वक़्त आने पर मैं सबकुछ क़ुर्बान कर दूँगा। सही अर्थों में यही बलिदान है। ये वस्तुएँ मनुष्य की राह में कभी भी अवरोध नहीं बन सकतीं, बशर्ते कि वह इन्सान हो। जल्द ही तुम्हें इसका प्रमाण मिल जायेगा। किसी के चरित्र के सन्दर्भ में विचार करते समय एक बात विचारणीय होनी चाहिए कि क्या प्यार किसी इन्सान के लिए मददगार साबित हुआ है? इसका जवाब मैं आज देता हूँ – हाँ वह मेजिनी था, तुमने अवश्य पढ़ा होगा कि अपने पहले नाकाम विद्रोह, मन को कुचल डालने वाली हार का दुख और दिवंगत साथियों की याद – यह सब वह बरदाश्त नहीं कर सकता था। वह पागल हो जाता या ख़ुदकशी कर लेता। लेकिन प्रेमिका के एक पत्र से वह दूसरों जितना ही नहीं, बल्कि सबसे अधिक मज़बूत हो गया।

जहाँ तक प्यार के नैतिक स्तर का सम्बन्ध है, मैं यह कह सकता हूँ कि यह अपने में एक भावना से अधिक कुछ भी नहीं और यह पशुवृत्ति नहीं बल्कि मधुर मानवीय भावना है। प्यार सदैव मानव चरित्र को ऊँचा करता है, कभी भी नीचा नहीं दिखाता बशर्ते कि प्यार प्यार हो। इन लड़कियों (प्रेमिकाओं) को कभी भी पागल नहीं कहा जा सकता है जैसा कि हम फ़िल्मों में देखते हैं – वे सदैव पाशविक वृत्ति के हाथों में खेलती हैं। सच्चा प्यार कभी भी सृजित नहीं किया जा सकता। यह अपने ही आप आता है – कब, कोई कह नहीं सकता ? प्यार पूर्णतः प्राकृतिक है।

मैं यह कह सकता हूँ कि नौजवान युवक-युवती आपस में प्यार कर सकते हैं और वे अपने प्यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं। अपनी पवित्रता क़ायम रखे रह सकते हैं। मैं यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जब मैंने प्यार को मानवीय कमज़ोरी कहा था तो यह किसी सामान्य व्यक्ति को लेकर नहीं कहा था, जहाँ तक कि बौद्धिक स्तर पर सामान्य व्यक्ति होते हैं पर वह सबसे उच्च आदर्श स्थिति होगी जब मनुष्य प्यार, घृणा और अन्य सभी भावनाओं पर नियन्त्रण पा लेगा। जब मनुष्य तर्क के आधार पर अपना पक्ष अपनायेगा। वर्तमान हालात में जिस तरह लोग प्रेम कर रहे हैं, वह बुरा नहीं बल्कि अच्‍छा ही है। दूसरे, प्‍यार की निन्‍दा करते समय, मैंने एक व्‍यक्ति के प्रति दूसरे व्‍यक्ति के प्‍यार की निन्‍दा की है, और वह भी एक आदर्शवादी स्थिति में। लेकिन फिर भी, मनुष्‍य में प्‍यार की प्रबलतम भावनाएं होनी चाहिए जिन्‍हें उसे किसी एक व्‍यक्ति तक सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि उसे सर्वव्‍यापी बना देना चाहिए।

मेरे विचार से मैंने अपने पक्ष को काफ़ी स्पष्ट कर दिया है। हाँ, एक बात मैं तुम्हें ख़ासतौर पर बताना चाहता हूँ कि तमाम रैडिकल विचारों में विश्‍वास रखने के बावजूद, हम नैतिकता की अति-आदर्शवादी आर्यसमाजी धारणाओं से पीछा नहीं छुड़ा सके हैं। हम तमाम कल्‍पनीय क्रान्तिकारी चीज़ों के बारे में लम्‍बी-चौड़ी बातें कर सकते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में सामना होते ही हम थर-थर काँपना शुरू कर देते हैं।

मैं तुमसे अर्ज़ करूँगा कि यह कमज़ोरी त्याग दो। अपने मन में बिना कोई ग़लत भावना लाये अत्यन्त नम्रतापूर्वक क्या मैं तुमसे आग्रह कर सकता हूँ कि तुममें जो अति आदर्शवाद है उसे थोड़ा-सा कम कर दो। जो पीछे रहेंगे और मेरी जैसी बीमारी का शिकार होंगे, उनसे बेरुख़ी का व्यवहार न करना, झिड़ककर उनके दुख-दर्दों को न बढ़ाना, क्योंकि उनको तुम्हारी हमदर्दी की ज़रूरत है। क्या मैं यह आशा रखूँ कि तुम किसी विशेष व्यक्ति के प्रति खुन्दक रखने के बजाय उनसे हमदर्दी रखोगे, उनको इसकी बहुत ज़रूरत है। तुम तब तक इन बातों को नहीं समझ सकते जब तक कि स्वयं इस चीज़ का शिकार न बनो। लेकिन मैं यह सबकुछ क्यों लिख रहा हूँ? दरअसल मैं अपनी बातें स्पष्ट तौर पर कहना चाहता हूँ। मैंने अपना दिल खोल दिया है।

तुम्हारी सफलताओं और जीवन के लिए शुभकामनाओं के साथ।

तुम्हारा,

भगत सिंह

 

पिछली कड़ी —

फाँसी नहीं, गोली से उड़ाओ ! बस, ज़रा लेनिन से मिल लूँ -भगत सिंह

 



 

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