बुरा न मान: होली की एक पाती, पहुंचे- इच्‍छाधारी प्रधान, 7 लोक कल्‍याण!

प्रति,

प्रिय श्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी उर्फ प्रधानसेवक,

उर्फ चायवाला, उर्फ फकीर उर्फ गरीब, उर्फ कामदार,

उर्फ चौकीदार (स्व-नाम धन्य संज्ञाएं),

लोकप्रिय, हिन्दू हृदय सम्राट, भगवान, राम (पार्टी के चापलूसों द्वारा दी गयी संज्ञाएं)

और कांग्रेस के नेता राहुल गांधी द्वारा अर्जित संज्ञा ‘चोर’ जी,

सप्रेम नमशकार !!!

इन सालों में आपने कितने ही रूप धारण किए हैं। आप एक व्यक्ति नहीं हैं जो देह की सीमाओं में जीता हो और एक आत्मा एक शरीर की जैववैज्ञानिक और आध्यात्मिक संरचना के वशीभूत होकर दुनिया में मौजूद हो। आप वाकई ‘इच्छाधारी’ हैं। यह शब्द सुनकर लोग इसके साथ एक और जन्तु का नाम ज़हन में ले आते हैं पर उस पर इस लेखक का वश नहीं है।

आपने अपने इतने नाम रखे, आपके चापलूसों ने भी इतने सारे अलग- अलग नामों से आपको नवाज़ा पर सच कहूँ तो आपने जिस तरह योजनाओं की नकल मारी है उसी तरह ये नाम भी बड़ी चोरी के हैं। कुछ लोग मेरी इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते और कहते हैं कि ये चोरी के नहीं सीनाजोरी के हैं। हालांकि मैं अभी तक उनसे पूरी तरह सहमत नहीं हूँ लेकिन अगर आप इसी तरह आगे भी उपसर्ग-प्रत्यय लगाते रहे तो मुमकिन है मुझे उनसे सहमत होना पड़े। खैर इसमें कौन सी बेइज्ज़ती। जब आपको परवाह नहीं है तो मैं क्यों करूँ? वैसे भी आपने अपने पाँच साल के कार्यकाल में लोगों को बेइज्ज़ती के मामले में काफी दरियादिल बनाया है। आए दिन देश में दलितों, मुसलमानों, महिलाओं और आदिवासियों की बेइज्ज़ती होती रहती है पर उससे कोई आफ़त तो नहीं ही आयी। अगर लोग वाकई इस तरह सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन में बेइज्ज़ती को लेकर गंभीर होते हो आप कैसे मज़े से परिधान बदल -बदल कर सरकारी ख़र्चे पर खुद को गरीब कहते हुए रैलियाँ कर पाते?

हालांकि बेइज्जती के मामले में खुद आप, आपकी कैबिनेट, आपकी सरकार, आपके मंत्री-संत्री, आपकी मातृ-पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आए दिन अपनी हरकतों के कारण बेइज्ज़त होती रहती है, अपनी कूप मंडूकता और कूढ़मगज़ी के कारण मज़ाक और निंदा की पात्र होती रहती है पर इतना तो तय है कि आपकी पूरी मंडली इसे दिल पर नहीं लेती।

अब कल ही आपके संस्कृति मंत्री ने प्रियंका गांधी को ‘पप्पू की पप्पी’ कह दिया। इससे कायदे से उनकी ही बेइज्ज़ती हुई, आपके बेटी बचाओ के नारे की बेइज्ज़ती हुई पर मज़ाल आप या आपकी पार्टी या आपके कंट्रोल रूम में कोई हलचल हुई हो।  मैं अक्सर अपने मित्रों (मितरों नहीं, मैं हिन्दी का विद्यार्थी हूँ, आपकी गुजराती हिन्दी का सम्मान करता हूँ, कृपया अन्यथा न लें, स्पष्ट इसलिए किया ताकि इस शब्द के उच्चारण पर आपके कॉपीराइट का हनन न हो) के बीच अब तक बेशर्मी और बेहयायी की नज़ीर देने के लिए बेहया के पौधे का इस्तेमाल करते आए हैं पर अब यह बंद कर चुके हैं और अगर किसी को यह कहना भी हो तो कह देते हैं यार तुम मोदी कैबिनेट हो…!

तो मैंने शुरुआत में कहा कि आपने सारी नकली उपमाएँ ओढ़ रखीं हैं और वह इतने जल्दी बदलती हैं कि लोग आपको इच्छाधारी … कहने लगे हैं। आपने सबसे पहले खुद को छप्पन इंची कहा और संसद को अखाड़ा मानकर अपना प्रचार किया, जिसकी प्रेरणा शायद आपको किसी युद्ध की कहानी से मिली होगी। फिर आपने खुद को शपथ लेते ही प्रधान सेवक कहा जो ज़ाहिर सी बात है पहले कहा जा चुका था इसमें मौलिकता नहीं थी। खुद देश के पहले प्रधानमंत्री ने यह शब्द अपने लिए कहा था और उनका एक व्यक्तित्व था। वो आज़ादी की लड़ाई में गांधी के सत्य और अहिंसा से प्रेरित व्यक्ति थे, जिनका घर-परिवार था, वो अपनी बेटी को ख़त लिखा करते थे और कोमल थे, रो सकते थे, बच्चों को प्यार करते थे (कान नहीं उमेठते थे!), अपनी शेरवानी पर गुलाब का फूल पत्नी की याद में लगाते थे। बलिष्ठ नहीं थे, दृढ़ निश्चयी थे। उनकी कॉलर  कोई पकड़ सकता था, जिसे वो आज़ादी के उत्सव के रूप में देखते थे, प्रोटोकॉल तोड़कर हिंसा रोकने आततायियों की भीड़ में कूद सकते थे। ज़ाहिर सी बात है यह संज्ञा आपकी छप्पन इंची छाती से मेल नहीं खाती थी । बुरा मत मानना पर आप इस ओढ़ी हुई उधार की उपमा को छ: महीने भी निभा नहीं पाये।

अब आपने खुद को कामदार कहना शुरू किया। यह उपमा भी चूंकि आपने प्रतिक्रिया स्वरूप अपनाई। एक बात तो है कि तुकबंदी के मामले में खैर आपका जवाब नहीं। लेकिन आप भूल गए कि आप चाहे न चाहें पाँच साल के लिए आप अख़बारों  के पहले पन्ने पर अपना स्थान आरक्षित करवा चुके हैं। नाम तो आपका ही चलेगा। भले आप काम करें या न करें। फिर ऐसी कौन सी ज़रूरत आन पड़ी थी श्रीमान, खुद को कामदार कहने की? बिना काम किए भी तो आप छाए हुए ही थे। तो ये उपमा भी कितने दिन चलती। माना कि राहुल गांधी नामदार थे पर थे तो एक सांसद ही, वो भी आपके ही सदन में, जहां आप उस सदन के नेता थे। ख्वामखाँ इतना रुतबा अदा कर दिया। अरे, इस बात पर जो ताली पीट रहे थे वो आपके दरबारी थे, क्या आप यह भी भूल गए थे। तो इस नए नाम को नहीं चलना था सो नहीं चला।

चायवाला होना आपको वोट दिला गया ज़रूर, हालांकि इसका प्रादुर्भाव भी कांग्रेस के एक नेता द्वारा आपके लिए कहे गए ‘अनुचित शब्द’ की प्रतिक्रिया स्वरूप ही था पर देखिये हम आपके दरबारियों की तरह नहीं हैं कि एक ही तरफ़ की बात करें। यह हिट हुआ तो हुआ। आपने चायवाले का रूप धारण किया और 2014 के चुनावों की नियति बदल दी। हालांकि इस समय आप दो तरह के नामों से चल रहे थे। जब आप बनारस में होते थे तो आप माँ गंगा के बेटे होते थे और जब पूरे देश में घूमते थे तो चायवाले हो जाते थे। वैसे आप बनारस में भी माँ गंगा के बेटे होने की हैसियत से चायवाले बने रह सकते थे, कोई एतराज़ तो नहीं करता और करता भी तो आप तो मोदी काबिनेट ही थे न? क्या फरक़ पड़ जाता?

तो चायवाला डाइलॉग आपका हिट रहा। आप चुनाव भी जीते और क्या खूब जीते। अब तक आप माँ गंगा के छप्पन इंची चायवाले हो चुके थे। चुनाव जीतकर शपथ लेते ही आप माँ गंगा के छप्पन इंची चायवाले प्रधानसेवक हो गए। फिर आपको भाषायी स्तर पर खुद को कामदार कहने की ज़रूरत थी नहीं। चायवाला और प्रधान सेवक, कामदार ही होता है। बेकाम, आलसी और अकाजलों के काम ये नहीं हैं। हो गया न पुनरावृत्ति दोष। इसलिए ये कामदार वाला मामला चला ही नहीं। समझे आप। इतना-इतना पैसा (देश की गरीब जनता का) इन्टरनेशनल प्रचार संस्थाओं को देते हो, मुझे हायर कर लेते तो ये थू-थू होना बच जाता और उस पैसे से मैं आपकी सेवकाई को चमका देता। पर आप मुझ जैसे अनाम लेखक को कहाँ जानते होंगे और सीधी बात है आपके आकाओं तक अपनी पहुँच भी नहीं। लेकिन दुख तो होता ही है जब इस तरह उपसर्ग-प्रत्यय और संज्ञा–सर्वनाम की भद्द पिटते देखता हूँ।

अब आप गौर करिए आपने खुद को फकीर कब कहा? याद आया? मतलब जब पूरा देश अपनी खून–पसीने की कमाई को बैंको में बदलवाने, निकालने, जमा करने लाइनों में लगा था। भूखा-प्यासा। किसी के यहाँ कोई बीमार है, दवा खरीदना है, किसी के यहां शादी है ज़रूरी इन्तजामात करना है, सब्जी-भाजी खरीदना है, ट्यूशन फीस देना है, किताबें खरीदना हैं, किसी ने अपने बच्चे से वादा किया है कि आज आइसक्रीम खिलाऊंगा या मिठाई लेकर आऊँगा, कोई दस किलोमीटर दूर एटीएम तक चलकर जा रहा है और वहाँ उसे उसका ही पैसा नहीं मिल रहा है, आज एक नियम से पैसे मिल रहे हैं कल दूसरे से । बताइये ऐसे में जब लोगों का जीना दूभर है। लोग बेतहाशा अपमानित, लाचार, बेवश और निरीह महसूस कर रहे हैं। 100 से ऊपर लोगों के मरने की खबरें आ रहीं हैं। दुकानदरी ठप्प पड़ी हुई है, पेट भर खाना लोगों को नसीब नहीं हो रहा है। और इस सूरत में आपकी मंडली लोगों की खुशामद करने की वजाय बंदेमातरम करवा रही है, सेना की दलीलें दे रही और आप खुद को फ़क़ीर कह रहे थे। बताइये ये कोई मौका था। इस मौके पर आप कहते कि यह तानाशाही फैसला है, मैं तानाशाह हूँ, लेकिन जो भी कर रहा हूँ आने वाली नस्लों की शुद्धि के लिए कर रहा हूँ। ढेर किताबें हैं, किस्से हैं कहानियाँ हिटलर की, थोड़ा तो पढ़ लेते। और आपको पता नहीं याद है कि नहीं जब 2014 में आप माँ गंगा के छप्पन इंची चायवाला बनकर महफिल लूट रहे थे उसी समय हिटलर की आत्मकथा या जीवनी की बिक्री में बलात उछाल आया था। यकीन मानिए लोग इस बात के लिए तैयार थे कि आप उसके नक्शे कदम पर चलेंगे और ये दोनों तरफ था। जो आपका समर्थन कर रहे थे वो तानाशाह को अपनाने के लिए तैयार थे और जो विरोध कर रहे थे वो एक तानाशाह की हरकतों को इतिहास में पढ़ चुके थे। ऐसे में आपको विरोधियों की परवाह की ज़रूरत तो थी नहीं जैसे आज भी नहीं है। और समर्थक आपके साथ थे। कह देते कि यह एक तानाशाह का फरमान है लेकिन आने वाली नस्लों के लिए इसकी अम्मलबजवणी ज़रूरी है। अरे साहब, लोग प्रसाद मानकर ये ज़हर पीते। क्या आज नहीं पी रहे हैं? अभी कल ही जनरल वी.के. सिंह ने पीया ही न? किसी ने कल बताया कि अंत:पुर में सब ठीक नहीं चल रहा है। जनरल मान ही नहीं रहे हैं कि इतने बड़े ओहदे के भी आगे चौकीदार शब्द कैसे लगाया जा सकता है? भाई वो प्रोटोकॉल वाले व्यक्ति हैं, सेना में रहे हैं और सर्वोच्च पद पर भी रहे हैं। उन्हें इसमें तौहीन लगना जायज़ है पर आखिर तो लगाया ही न? आपको याद रखना चाहिए था उस वक़्त भी कि तानाशाह केवल विरोधियों के लिए ही तानाशाह नहीं होता बल्कि सबसे पहले वह अपने दरबारियों को नियंत्रण में रखता है। और आपने कल अंतत: जनरल के आगे भी चौकीदार लगवा ही दिया। ठीक है दो लाइनें सफाई में लिखीं अपने मन से पर इतना तो चलता है।

तो पता है जब आपने खुद को फकीर कहा और कहा कि मेरा क्या मैं तो झोला उठाकर चल दूंगा। तब आपको मौके की नज़ाकत को भाँपते हुए बिलावजह यह भी कहना पड़ गया कि मुझे पचास दिन दे दो अगर सब ठीक नहीं होगा तो जिस चौराहे पर बुलाओगे आऊँगा और जो सज़ा दोगे भुगतूंगा। अब बताइये हो गया न शब्दों का व्यय? आपको भी पता था कि कुछ भी ठीक नहीं होने वाला पचास दिन क्या पाँच सालों में भी नहीं। था ना? ये भी पता था कि आपको कोई बुलाएगा भी तो जाना नहीं है और चले भी गए तो सजा तो लेनी ही नहीं है, सज़ा का जब वक़्त आयेगा तब तक आपको कोई नया चोला पहन लेना है। ख़ैर ये फकीरी वाला मामला आप पर उल्टा ही पड़ा। माने अपने कहे हुए को इतना भी कैसे हास्यास्पद बनाया जा सकता है। अरे भाई भाषा है तो हम हैं, भाषा बनती है सदियों में, कई पीढ़ियाँ तराशतीं हैं उसे, वह मरती नहीं है ढलती है, उतरती है, वहती है। व्यक्ति मरता है। और कहते हैं भाषा को मारने की कोशिश करने वाला व्यक्ति तो मरने के बाद भी इतिहास में रोज़ रोज़ मरता है। काहे शाप लेते हो भाषा का हर बार?

अब लीजिये नया शिगूफ़ा। चौकीदार। हालांकि मूलत: यह शब्द आप ही का है जो आपने चोरी रोकने के संदर्भ में किसी मौके पर कहा था। लेकिन आपके शब्दों में एक नामदार ने इसे सही जगह फिट कर दिया। देखिये ये होती है भाषा को बरतने की तमीज़। आपको सीखना चाहिए कि  राहुल गांधी ने कैसे इसका सही समय पर सही जगह इस्तेमाल किया कि पूरे देश में हिट हो गया। आप केवल चौकीदार बोलिए– चोर है, दूसरा बोलता है और अगर वहाँ कई लोग खड़े हैं जहां आप यह बोल रहे हैं तो सब मिलकर बोलते हैं- चोर है।

अब आप दिल पर हाथ रखकर खुद बताइये, चाहें तो अपने दरबारियों को तलब करके उनसे सच उगलवाइए कि मीडिया की तमाम चौकीदारी के बावजूद आखिर यह नारा आज हिंदुस्तान का मुख्य नारा कैसे बन गया। केवल प्रेस कान्फ्रेंस करके तो राहुल गांधी यह नहीं कर सकते थे। सभाएं भी स्थानीय हो रहीं थीं, यानी तमिलनाडु में बोला भी तो सिंगरौली, मध्य प्रदेश में यह क्यों लोगों की जुबान पर चढ़ गया।

देखिये एक चीज़ होती है ‘मुखसुख’। यानी बोलते समय मुंह को अच्छा लगना। यह नारा लोगों को मुखसुख प्रदान करता है। आप खुद एक बार दोहराइए चौकीदार- चोर है। मज़ा आया न? एक दो बार और करिए बहुत अच्छा लगेगा। अच्छा एक बात और है कि भाषा जो है वो अपने परिवेश के सच को प्रकट करती है, माने यह उसकी बुनियादी प्रवृत्ति है। अब लोग तो देख ही रहे हैं कि काला धन नहीं आया, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी, विजय माल्या आपके दरबारियों से मिलकर ही विदेश चले गये। अनिल अंबानी दिवालिया हो रहा है तब भी आप उसको राफेल का कांट्रेक्ट दे रहे हैं, बीएसएनएल डूब रहा है आप जियो का प्रचार कर रहे हैं। तो लोगों को लगा कि आप छप्पन इंची चौकीदार के रहते कोई बाहर का चोर तो आकर चोरी कर नहीं सकता तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि चौकीदार ही चोर है। भाषा अपने परिवेश के संदर्भों से बनती है। अब आप कितना भी ज़ोर लगा लें चोली के पीछे क्या है गाने कि तर्ज पर माँ शेरावालियाँ का गीत नहीं रच सकते। रच भी देते हैं तो यह फूहड़ पैरोडी ही होगी।

मेरी बात मानिए तो फूहड़ता को बंद कीजिये। और क्या आपने गौर किया आपका नाम इन पाँच सालों में कितना लंबा हो गया? एक पूरा वाक्य लगता है। रुकिए, लिखकर बताता हूँ- माँ गंगा के छप्पनइंची चायवाले कामदार फकीर प्रधानसेवक चौकीदार नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी। और अगर किसी राजकीय आयोजन में गए तब तो कहीं न कहीं ‘प्रधानमंत्री’ शब्द भी घुसेड़ना पड़ेगा। मैंने तो चूंकि व्यक्तिगत चिट्ठी लिखी है इसलिए इस ‘अपशिष्ट शब्द’ (आपके मुताबिक) का इस्तेमाल नहीं किया। पर वैधानिक रूप से आप हैं वही।

खुद सोचिए कैसा तो लगता है ऐसा नाम? इससे अच्छा आप केवल इच्छाधारी प्रधानमंत्री  नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी रहिए। सब शामिल हो जाएगा, जो कहा गया और जो नहीं भी कहा गया। कई शब्दों के लिए एक शब्द की व्यवस्था भाषा में होती है, इसका प्रयोग करिए।

कम लिखा ज़्यादा समझना

आपका ही
सत्यम श्रीवास्तव


सत्यम सामाजिक कार्यकर्ता हैं और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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