मीडियाविजिल संवाददाता
दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में 20 मई, 2017 को ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता’ पर हुए विवादास्पद कार्यक्रम की कार्रवाई दो वजहों से ठीक से रिपोर्ट नहीं हो पाई। एक, इस कार्यक्रम से पहले यज्ञ का आयोजन था जिसे लेकर छात्र शुरू से ही विरोध में थे जिसमें बाद में और लोग जुड़ गए। दूसरा, बस्तर के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक आइपीएस कल्लूरी को यहां बोलने के लिए दिया गया न्योते भारी विरोध का बायस बन गया जिसके चलते सारी रिपोर्टिंग इसी के इर्द-गिर्द केंद्रित रही। इन दोनों ही मुद्दों के चलते यह बात छुपी रह गई कि आखिर इस आयोजन का उद्देश्य क्या था और मीडिया के व्यापक परिदृश्य पर इसका क्या कोई असर पड़ने जा रहा है या नहीं।
अगर कश्मीर और छत्तीसगढ़ पर हुए सत्र को एक किनारे रख दें, तो पहले ही सत्र में मीडिया और पत्रकारिता पर जो सामान्य बातें वक्ताओं ने कहीं, वहां से आने वाली कार्रवाइयों का एक संकेत निकलता है। मेजबान पत्रकारिता संस्थान आइआइएमसी के महानिदेशक केजी सुरेश का वक्तव्य इस लिहाज से बहुत ज़रूरी था। उन्होंने पत्रकारिता में रिपोर्ट करने और नौकरी करने के संदर्भ में दो अहम बातें कहीं। एक पत्रकार कैसे रिपोर्ट करे, उस संदर्भ में उन्होंने महाभारत में अश्वत्थामा के मारे जाने के प्रसंग को उठाते हुए बताया कि युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा के मारे जाने की सूचना जब दी, तो उसके नाम को ज़ोर से कहा जबकि बाद के पद को धीरे से कहा। उससे यह स्पष्ट नहीं हो सका कि हाथी मारा गया है अथवा मनुष्य।
यहां से सबक देते हुए उन्होंने कहा कि हमें तथ्यों को रिपोर्ट करते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि कौन से सत्य को जोर से बोलना है और कौन से सत्य को छुपा ले जाना है। उसी सत्य को मुखरित किया जाना चाहिए जो राष्ट्र के हित में हो। संगोष्ठी के विषय ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता’ का मर्म यहीं छुपा हुआ था। सुरेश का कहना था कि किसी गिलास में आधा पानी भरा हो, तो खाली हिस्से को देखने और रिपोर्ट करने वाली प्रवृत्ति पश्चिमी सोच से आती है यानी पत्रकारिता को नकारात्मकता का पर्याय मानना पश्चिमी सोच है। पत्रकारिता में सकारात्मक चीजें दिखाई जानी चाहिए और गिलास के खाली हिस्से को भरने की चिंता ज्यादा की जानी चाहिए।
वे गिलास के जिस खाली हिस्से को भरने की बात कर रहे थे, उसका आशय मीडिया को राष्ट्रवादी पत्रकारों से पाट देने का था। उन्होंने बताया कि एक समय था जब कोई पत्रकार खुद को न्यूज़रूम में संघी कहा जाना गवारा नहीं कर सकता था क्योंकि उसकी नौकरी पर खतरा आ जाता था। सुरेश कहते हैं कि एक बदलाव यह आया है कि आज ऐसे तमाम युवा पत्रकार खुलकर सामने आ रहे हैं जो खुद को संघी कहलाने से गुरेज़ नहीं कर रहे। इस स्थिति को और मज़बूत होना चाहिए क्योंकि आज तक संघी पत्रकारों की अभिव्यक्ति को दबाया गया है।
सुरेश के बाद अशोक भगत ने अपने वक्तव्य में मीडिया को लेकर एक नीति बनाने की वकालत की और प्रेस परिषद की तर्ज पर एक मीडिया परिषद बनाने की सिफारिश की। उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि आज के दौर में पत्रकार किसे कहा जाए और किसे नहीं, यह भी तय करने का एक पैमाना होना चाहिए।
मंच पर बैठे पैनल में चर्चा का संचालन करते हुए पत्रकार अनिल पांडे ने इस संदर्भ में आइआइएमसी के पहल लेने की बात की, तो केजी सुरेश ने बताया कि संस्थान आने वाले दिनों में एक मीडिया परिषद की परिकल्पना और नीति पर वृहद् प्रस्ताव बनाकर सरकार को भेजेगा तथा मीडिया संस्थानों को भी सिफारिशें भेजी जाएंगी। सुरेश ने कहा कि यह आयोजन मीडिया के चरित्र में बुनियादी बदलाव लाने के लिए चलने वाली लंबी प्रक्रिया का एक पड़ाव मात्र है और ऐसे आयोजन आगे भी होते रहेंगे।
इस आयोजन से एक बात समझ में आती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठन मीडिया में आमूलचूल बदलाव लाने के लिए बहुत गंभीर हैं और आइआइएमसी को केंद्रीय संस्थान बनाते हुए वे यहीं से नीतिगत प्रस्तावों और बदलावों का दस्तावेज सरकार के पास भिजवाएंगे। यह काम करने में संघ के मीडियास्कैन जैसे संगठनों की बड़ी भूमिका होगी जो आइआइएमसी के साथ इस कार्यक्रम के सह-संयोजक थे।