[आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है और यह हिंदी पत्रकारिता का गहनतम संकटकाल भी है। सवाल उठता है कि इस दिन को कैसे मनाएं? महान पत्रकारों को याद कर के? अतीत का गौरवगान कर के? या फिर कोई उपदेशात्मक लेख छाप के? ये रवायतें पुरानी पड़ चुकी हैं। फ़र्ज़ ये कि ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज़ त्यों-त्यों बढ़ता गया। इसीलिए इस मौके पर संयोग से हाथ लगा एक लेख हम छाप रहे हैं जो पत्रकार और सांस्कृतिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी का लिखा हुआ है और उन्होंने मीडियाविजिल के लिए खासतौर से इसे भेजा है। यह लेख पहले डायरी का हिस्सा था, फिर संस्मरण बना और आगे चलकर रिपोर्ट बन गया। कुल मिलाकर अंत में इसकी जो शक्ल उभरी, वह इस बात को समझने में कारगर हो सकती है कि हिंदी के एक पत्रकार की चिंताओं का दायरा क्या होना चाहिए और उसकी मार कहां तक पहुंचनी चाहिए। यहां पत्रकार की तात्कालिक चिंता एक नदी घाटी है जहां बन रहे बांध के खिलाफ तीन दशक से लड़ाई चल रही है। इतनी पुरानी लड़ाई में कोई पत्रकार दिलचस्पी क्यों लेगा? खासकर जब उसकी ख़बरों से लोग उकता चुके हों और मूल उद्देश्य तक धूमिल हो चुका हो? एक हिंदी के पत्रकार को एक बेहद परिचित संघर्ष को 2017 में कैसे देखना चाहिए, यह समझने के लिए विनीत तिवारी का यह लेख पढ़ा जाए। शायद हम समझ सकें, जैसा कि वे कहते हैं, कि नर्मदा से लेकर क्यूबा और अफ्रीका तक मनुष्य की जिजीविषा अदम्य है और ऐसे मनुष्य से क्यों मिलना ज़रूरी है। इसलिए, ताकि हम भी थोड़े मानवीय और मज़बूत मनुष्य बन सकें। क्या हिंदी के एक पत्रकार से इससे ज्यादा होने की उम्मीद कोई करता है? कायदे से यह तो न्यूनतम होना चाहिए। असल संकट यहीं है। हिंदी पत्रकारिता दिवस पर हिंदी के पत्रकारों के बेहतर मनुष्य बनने की कामना के साथ प्रस्तुत है यह सुंदर लेख]
सरदार सरोवर बांध के मामले में अलग-अलग मौकों पर राज्य सरकारें ये हलफनामा दायर कर चुकी हैं और झूठी साबित हो चुकी हैं कि नियम के मुताबिक सबका पुनर्वास हो गया, सबको ज़मीन के बदले ज़मीन मिल गयी और अब डूब में आनेवाले सैकड़ों गांव डुबोने में कोई समस्या नहीं है। खुद सरकार की भी अनेक समितियों ने ऐसे हलफनामों को झूठा पाया है। और इस बार भी उनका कहना यही है कि नियमानुसार सबका पुनर्वास हो चुका है, सभी विस्थापित इतने अच्छे सर्वसुविधायुक्त पुनर्वास-स्थलों पर बसाए जाने से बेहद प्रसन्न हैं और धन्य महसूस कर रहे हैं। इस बारिश में फिर सरकार आमादा है कि सरदार सरोवर बांध को पूरी ऊंचाई तक भरा जाए।
नर्मदा घाटी में विकास के नाम पर वर्षों से स्थानीय ग्रामीणों-आदिवासियों के जीवन को उजाड़ा जाता रहा है। हम इस विनाश के खिलाफ लोगों के हक़-अधिकारों के संघर्षों में साथ रहे हैं। सांगठनिक तौर पर भी हमारे अनेक वरिष्ठ लेखकों ने इस लड़ाई में वक़्त-वक़्त पर अपना किरदार निभाया है, चाहे वो बरगी बांध का मसला रहा हो या महेश्वर, इंदिरा सागर, मान, या अन्य बाँधों का। मैंने व्यक्तिगत तौर पर भी नर्मदा बचाओ आंदोलन और नर्मदा घाटी के लोगों से बहुत कुछ सीखा है। जन आन्दोलनों में संयम, दृढ़ता और सांगठनिक ताक़त तो सब सीखते ही हैं लेकिन विश्व स्तर पर पर्यावरण की, प्राकृतिक संसाधनों की लूट की भूमंडलीकृत राजनीति का जो नया दौर आया है, उसके बारे में भी जाना-समझा। कुछ ज़िंदगी भर के बेहतरीन तजुर्बे, बेहतरीन दोस्त, बेहतरीन प्रेरणाएँ मुझे भी नर्मदा घाटी ने तोहफ़े में दीं।
कोई ज़्यादा पेचीदा सवाल भी नहीं रहे हमारे। चलिए, मान लेते हैं कि पांच लाख साल पुरानी नर्मदा घाटी में जीवन विज्ञान के उपयोग के अनेक सूत्र बांध में डूब जाएंगे तो कोई नुक्सान नहीं होगा। ये भी मान लेते हैं कि पहाड़ों, जंगलों, वनस्पतियों, आदिवासियों, वन्य जीवों पर भी बांध का बुरा असर पड़े तो पड़े, आखिर बदलना तो सबको ही पड़ता है। और ये भी मान लेते हैं कि वाकई जो हो रहा है वो विकास ही है, भले कुछ लोगों के लिए हो। फिर भी इतना सवाल तो उठता ही है कि जिनका सब कुछ छीना जा रहा है, उनके लिए जीने के क्या इंतजाम किए गए हैं। और अगर नहीं किए गए तो इसके लिए क्या उन लोगों को ही अपराधी कहा जा सकता है जो इस अन्याय के खिलाफ और अपने हक़ के लिए आंदोलन का रास्ता चुनते हैं? फिलहाल स्थिति ये है कि अगर आप सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित या विस्थापित हैं तो जो मिल रहा है वो लीजिए और अगर कुछ भी नहीं मिल रहा है तो भी अपना सामान समेटकर भागते बनिए और ख़ैर मनाइए कि ज़िंदगी के इस मोड़ पर आपको इन दो मुहावरों का जीवन के यथार्थ वाक्यों में प्रयोग करना आ गया कि ‘भागते भूत की लंगोटी सही’ और ‘जान बची तो लाखों पाए’।
विस्थापितों और प्रभावितों के साथ सरकार का ये रवैया है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों और फैसले को पूरी तरह ताक पर रखकर बिना मुनासिब पुनर्वास व्यवस्थाएं किए ही, बिना मुआवजों का निपटारा किए ही बांध के गेट बंद कर दिए जाएं और लोग मजबूर होकर अपने गाँव और ज़मीन छोड़ दें। सरकार के मुताबिक अकेले मध्यप्रदेश में ऐसे परिवारों की संख्या 15000 से ज़्यादा है जबकि नर्मदा बचाओ आंदोलन के मुताबिक अगर महाराष्ट्र और गुजरात के भी प्रभावितों को जोड़ा जाए तो यह संख्या करीब 40,000 है। सर्वोच्च न्यायलय का आदेश है कि सरकार 8 मई, 2017 तक पुनर्वास का काम पूरा कर ले, लेकिन अभी तक मुआवजे, पुनर्वास के हज़ारों मामले अटके पड़े हैं। आदेश ये भी है कि अगर समुचित मुआवजे और पुनर्बसाहट की प्रक्रिया के बाद भी कोई डूब क्षेत्र से न हटे तो उन्हें 31 जुलाई, 2017 के बाद पुलिस के मार्फ़त बलपूर्वक हटाया जाएगा। आंदोलन कर रहे लोगों का कहना है कि अभी तक तो नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) ने विस्थापित होने वाले लोगों की अंतिम सूची ही तय नहीं की है, तो फिर काहे का पुनर्वास और काहे की पुनर्बसाहट। लेकिन नर्मदा का विकास करने को आतुर एनवीडीए लोगों की खातिर बांध में पानी भरना स्थगित नहीं करना चाहता। चाहे लोग डूबें या जान लेकर बदहवास भागें- विकास होकर रहेगा।
हमने किश्तों-किश्तों में नर्मदा घाटी को उजड़ते देखा। सिर्फ देखा नहीं, रोकने की कोशिश भी की। इस उजाड़ने की प्रक्रिया के खिलाफ लड़े भी और लड़ेंगे भी। बल्कि कहना चाहिए कि जो लोग लड़ रहे हैं, हम उनके संघर्ष में साथ रहे भी और रहेंगे भी। लेकिन इस तीस साल से ज़्यादा उम्र की हो चली लड़ाई में हमने अनेक पहाड़ियां खो दीं, कितनी ही पगडंडियां और पेड़ डूब गए और सबसे ज़्यादा ख़तरनाक तो ये कि नर्मदा घाटी के तमाम विस्थापित लोगों ने अपने किसान होने की, खेतों में मज़दूर होने, मछुआरा होने की पहचानें खो दीं। अब उनमें से बहुत सारे महानगरों में बेरोज़गार मज़दूरों की फ़ौज का एक सांवला-सा बिन पहचान वाला हिस्सा भर बचे हैं। ये लोकतंत्र की आड़ में छिपा कौन सा तंत्र है जिसने बारिश तक को लोगों का दुश्मन बना दिया। इस बार की बारिश भी कुछ पहाड़ों को, पहाड़ियों पर बसे घरों को, पेड़ों को और डुबोना चाहेगी, और लीलना चाहेगी लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं जो घुटने नहीं टेकेंगे, जो इस आवाज़ को थकने नहीं देंगे कि ‘चालू छे भई चालू छे, अमरी लड़ाई चालू छे।’
बेशक लोगों के लड़ने का हौसला और जज़्बा कम नहीं है। तीस साल में तीन पीढ़ियों ने लड़ाई को आगे बढ़ाया है। और उस हौसले ने, हर लड़ाई ने, हर पेड़, पहाड़, खेत ने अपने होने के निशान वहाँ के लोगों के चेहरों पर, उनकी आवाज़ में दर्ज किए हैं। उन्हें देखने, उनसे मिलने और उनके हौसलों को सलाम करने वहां जाना चाहिए।
मैं 1999 में रैली फॉर दि वैली का हिस्सा बना था जब अरुंधति राय ने आह्वान किया था। तभी मैंने अपने पत्रकारिता के कुछ उजले और कुछ काले पहलू अपनी आँखों से देखे थे। उस रैली में एक बस का गाइड या इंचार्ज मैं था और जब हमारी बस मालवा के पठार से निमाड़ की घाटी में उतरने लगी, तो अनेक लोगों ने, जो देश के और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आए थे, मुझसे इस इलाके की वनस्पतियों और पेड़ पौधों के बारे में सवाल करने शुरू किए। तब मुझे पता चला कि मैं तो चार-छह पेड़ों की किस्मों के अलावा कुछ जानता ही नहीं। और वहां से मैंने भी अपने लिए पेड़-पौधों से दोस्ती का एक सबक हासिल किया। रास्ते में पेड़-पौधों से दोस्ती का जो सिलसिला शुरू हुआ, तो उन अद्भुत इंसानों से दोस्ती तक उसे पहुंचना ही था जिनके जीवट के किस्से किंवदंतियां बन गए हैं।
5 से 7 जून, 2017 के बीच फिर से नर्मदा घाटी की यात्रा का आह्वान है। “बांध नहीं बनेगा” से लेकर अब सिर्फ पुनर्वास की लड़ाई तक आते-आते आंदोलन की धार और असर पहले की तरह नहीं रहा हो, तब भी इतने वर्षों सत्ता और पूंजीपतियों के गठजोड़ द्वारा विकास के जो मायने लोगों को भ्रमित करने के लिए फेंके गए हैं, उस पर सवाल उठाने का, विकास के केंद्र में मनुष्यों को रखने का आग्रह तो बिना शक कामयाब हुआ ही है। कम लोग ही यह बात जानते हैं कि सरदार सरोवर परियोजना सिर्फ एक बांध का नाम नहीं, बल्कि नर्मदा और उसकी सहयोगिनी नदियों पर कुल 3000 बांध बनाने के मंसूबे वाली परियोजना है। अभी भी आंदोलन की वजह से अनेक बांधों पर काम शुरू नहीं हो सका है और जागरूकता की वजह से अब उन इलाकों के लोग भी अपने हक़ के लिए, नदी और पर्यावरण के लिए लामबंद हो रहे हैं। अदालत के भीतर और अदालत के बाहर हर तरह से लड़ते हुए नर्मदा घाटी के आन्दोलनों की वजह से ही नर्मदा अवार्ड बना जिसके मुताबिक विस्थापितों को एक बेहतर जीवन देना राज्य का दायित्व बनाया गया। सरकार किसानों से औने-पौने या अधिकतर तो बिलकुल ही नहीं मुआवजा देकर ज़मीन छीन लिया करती थी। अब किसानों को मुआवजा ज़मीन के मौजूदा बाज़ार भाव से मिलना शुरू हुआ। विस्थापन का बेशक कोई मुआवजा नहीं हो सकता, और बड़े बांध और उनसे बनने वाली बिजली, या उनमें समाहित भीषण प्राकृतिक संकटों की आशंकाओं आदि के सवालों पर तो अभी न अदालत सोच रही है और न लगातार मौकापरस्त पूंजीपरस्त होता जा रहा हमारा समाज। अच्छा होगा कि इसके पहले कि प्रकृति किसी आपदा से हमें यह सोचने पर मजबूर कर दे कि हम इन सवालों के बारे में विचार करें, उसके पहले ही हम धरती को बेचने के बजाय बचाने के उपाय अपना लें।
मैं समझता हूं कि ये यात्राएं उनके लिए ज़रूरी हैं जो इस वाक्य में अपना भरोसा बचाए रखना चाहते हैं कि “दुनिया को बदला जा सकता है”। नर्मदा घाटी आपको अनेक चीज़ें सिखाती है। अव्वल तो ये कि क़ुदरत वहां रहने वाले लोगों से कोई अलग चीज़ नहीं है। कोई सोचे कि वो नदी का पानी बचा लेगा और नदी किनारे के इंसान मर जाने देगा, तो गलत सोचता है। एक पूरा पारिस्थितिकी तंत्र विकसित होता है पता नहीं सैकड़ों या हज़ारों या लाखों वर्षों में। दूसरी चीज़ ये कि दुनिया में इंसान से ज़्यादा समझदार और परोपकारी कोई नहीं तो इंसान से बड़ा शातिर अपराधी भी कोई और नहीं। तीसरी बात ये कि देर कभी भी नहीं होती, हक़ के लिए लड़ना एक लगातार बहती नदी है। फिलहाल तो (जब तक समाजवाद न आ जाए) उसमें आप चाहे जब शामिल हो सकते हैं। और चौथी बात ये कि दुनिया में कोई ऐसा बांध नहीं जो लोगों पर होने वाले ज़ुल्म के खिलाफ उठने वाले गुस्से को ज़्यादा वक़्त तक रोके रख सके। और ये भी कि अगर दुनिया को बदशक्ल बनाने की कोशिशों में कुछ लोग दुनिया भर में हैं तो सबके लिए एक सुन्दर दुनिया का ख़्वाब हकीकत में बदलने की कोशिशें करने वाले लोग भी दुनिया भर में हैं और उनसे कई गुना ज़्यादा हैं। मीडिया की साज़िशों की वजह से वे अक्सर या तो दीखते ही नहीं हैं और अगर कभी-कभार ख़ुदकुशी करते किसानों, उजाड़ी जाती बस्तियों में, दंगों में मारे या घायल होने वालों में या सीरिया की जंगआलूदा ज़मीन पर या बस्तर के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ चीखने या ख़ामोशी से सब कुछ कह डालने वाले आदिवासियों में या देश-दुनिया के हर कोने और हर हिस्से में कुचले जाते और शोषण का शिकार बनते आम लोगों, मज़दूर, मेहनतकशों की भीड़ में वो दिख भी जाएं तो ज़्यादातर अखबारों, चैनलों में वे विकास की राह में रोड़े बनाकर ही दिखाए जाते हैं।
नर्मदा घाटी हो या अफ्रीका या दुनिया के दूसरे छोर पर मौजूद क्यूबा, यहां हमें अदम्य जिजीविषा से भरे लोग मिलते हैं, जिनसे मिलकर हम भी थोड़े और मानवीय, थोड़े और मज़बूत इंसान हो जाते हैं।
ये रूस में हुई क्रांति की सौवीं सालगिरह का वर्ष भी है। उस क्रान्ति ने दुनिया को ये सीख दी थी कि दुनिया जैसी है, वो वैसी ही नहीं बनी रहती। कुछ लोग उसे अपने फायदे के लिए बदलने की कोशिश में लगे रहते हैं बाकी लोगों की ज़िंदगियों को दांव पर लगाकर। और जिन लोगों की ज़िंदगी दांव पर लगाई जाती है, वो भी उसे बदल सकते हैं- सारी दुनिया की बेहतरी के लिए। उस क्रांति को सलाम कहने के अनेक मौकों में से एक मौका ये भी है कि हम ऐसी लड़ाइयों का जितना संभव हो सके, हिस्सा बन सकें। हिस्सा बनना या न बनना भी बाद में तय करें, थोड़ा नज़दीक से जान ही सकें।