25 मार्च को योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार गोरखपुर आ रहे थे। पूरा शहर भगवा रंग में रंगा था। ऐसा लग रहा था कि जो अपनी दुकान या मकान पर बीजेपी या हिंदू युवा वाहिनी का झंडा नहीं लगाएगा, वह कोई ‘अपराध ‘करेगा। गोरखपुर में रहना है कि जगह ‘यूपी में रहना है तो योगी-योगी कहना है ‘का नारा बुलंद हो रहा था। लेकिन इसी दौरान शहर में 12वें गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन भी हो रहा था। 12 साल पहले गोरखपुर से शुरू हुआ, ‘प्रतिरोध के सिनेमा’का यह सिलसिला आज देश के तमाम शहरों में फैल चुका है। हिंदी पट्टी में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जो इस निरंतरता से चल रहा है। गोरखपुर के तमाम लोग हर साल विश्व और भारतीय दस्तावेज़ी सिनेमा के उस रूप से ख़ासतौर पर रूबरू होते हैं जहाँ सिनेमा महज़ एक कलामाध्यम ना रहकर बदलाव का उपकरण बन जाता है। शहर का माहौल देखते हुए तमाम लोगों को शक़ था कि इस बार यह आयोजन हो भी पाएगा या नहीं, लेकिन यह हुआ और बख़ूबी हुआ। पेश है एक रिपोर्ट–
विकास का मौजूदा मॉडल आदिवासियों, दलितों पर हिंसा और विस्थापन का मॉडल है-बीजू टोप्पो
प्रख्यात फिल्म अभिनेता ओमपुरी की याद में आदिवासियों और दलितों के संघर्ष पर केन्द्रित 12वां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल 25 मार्च को सिविल लाइंस स्थित गोकुल अतिथि भवन में प्रारम्भ हुआ। फिल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए आदिवासी फिल्मकार बीजू टोप्पो ने कहा कि विकास का आज का माडल आदिवासियों, दलितों के विस्थापन और उन पर हिंसा का माडल है। विकास के इस माडल ने समस्त वंचित समुदाय के सामने अपने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है।
बीजू टोप्पो ने आदिवासी बहुल राज्यों झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में विकास के नाम पर आदिवासियों की जल, जंगल, जमीन को हड़पे जाने की साजिश का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहा कि आज आदिवासियों के अपने ही राज्यों में अल्पसंख्यक होने का खतरा पैदा हो गया है। उन्होंने प्रतिरोध का सिनेमा को महत्वपूर्ण आंदोलन बताते हुए कहा कि इस आंदोलन ने जनता के सिनेमा खासकर दस्तावेजी सिनेमा को छोटे शहरों-कस्बों के दर्शकों तक पहुंचाने में बड़ा योगदान दिया है।
चर्चित वेबसाइट ‘मीडिया विजिल’ के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार डा. पंकज श्रीवास्तव ने कहा कि समय बेशक कठिन है लेकिन हमें अपनी सांस्कृतिक कार्यवाहियों को न सिर्फ करते रहने की जरूरत है बल्कि उन्हें समय के अनुसार बदलते हुए और विस्तारित करने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि संख्या में कम होने और कमजोर होने के बावजूद इतिहास में वही दर्ज होते हैं जो आंधियों का मुकाबला करते हैं न कि पीठ दिखाने वाले।
‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने दो दिवसीय फेस्टिवल में दिखाई जाने वाली फिल्मों के बारे में जानकारी दी और हाल में बच्चों के बीच सिनेमा दिखाने के अपने अनुभव बताए। उन्होंने एक बच्चे की चिट्ठी का जिक्र किया जिसमें बच्चे ने लिखा था कि उसने अब जाना कि बालीबुड की फिल्मों के अलवा एक बड़ा फिल्म संसार है जिससे हमें दुनिया, समाज और लोगों के बारे में सही जानकारी मिलती है।
आयोजन समिति के अध्यक्ष मदन मोहन ने सभी अतिथि फिल्मकारों व संस्कृति कर्मियों का स्वागत किया और कहा कि 12 वर्ष तक गोरखपुर में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन एक बड़ा सांस्कृतिक हस्तक्षेप है। गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल ने गोरखपुर को एक नयी पहचान दी है। उद्घाटन सत्र का संचालन गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के समन्वयक मनोज कुमार सिंह ने किया। इस मौके पर फिल्मकार नकुल सिंह साहनी, ओडेस्सा फिल्म कलेक्टिव से जुडे अम्बेडकर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के शिक्षक सिबिल के .विनोदन भी उपस्थित थे।
’नाची से बाँची’ में दिखा रामदयाल मुंडा का आदिवासी समाज के लिए किया गया संघर्ष
उद्घाटन सत्र के बाद बीजू टोप्पो और मेघनाथ द्वारा निर्देशित दस्तावेजी फिल्म ’ नाची से बांची ’ दिखाई गई। ‘ नाचेंगे तो बचेंगे ’ का नारा देने वाले मशहूर आदिवासी कलाकार विद्वान् और आदिवासी मुद्दों के योद्धा डॉ राम दयाल मुंडा के जीवन को कैद करती यह दस्तावेज़ी फ़िल्म आदिवासी समाज को बचाने के मुंडा जी के संघर्ष और प्रयासों को पूरे विवरणों के साथ अंकित करती है।
फ़िल्म की शूटिंग मुंडा जी के घर खूँटी और उसके आसपास हुई और इसके निर्माण में एक वर्ष का समय लगा। फिल्म देखने के बाद दर्शकों ने फिल्म के निर्देशक एवं छायाकार बीजू टोप्पो से फिल्म और आदिवासियों के राजनीति, सांस्कृतिक संघर्ष को लेकर कई सवाल किए जिसका जवाब उन्होंने दिया।
इस फिल्म के बाद उड़ीसा के फिल्मकार सुब्रत साहू की दस्तावेजी फिल्म ‘फलेम्स आफ फ्रीडम’ दिखाई गई। उड़ीसा के सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों से गहरे जुड़े सुब्रत साहू ने की यह फ़िल्म दक्षिणी पश्चिमी उड़ीसा के कालाहांडी जिले के एक छोटे गावं इच्छापुर में आ रहे महत्वपूर्ण बदलावों की सूचना देती है जिसकी घटनाओं को हाल में घटे गुजरात के दलित आन्दोलन के साथ जोड़ने पर धुर पूरब से लेकर पश्चिम तक एक बड़ा सामाजिक व राजनीतिक वृत्त बनता दिखाई देता है। बाहरी तौर पर हरा भरा और शांत दिखता इच्छापुर पिछले साल से अशांत है जबसे आदिवासियों की स्थानीय देवी डोकरी को इच्छापुर के ब्राहमणों द्वारा अपनी तरह से अपनाने और उन्हें फिर आदिवासियों के लिए ही वंचित कर देने का षड्यंत्र के खिलाफ संघर्ष को फिल्म में दिखाया गया है। यह आन्दोलन इसलिए भी महत्वपूर्ण बनता दिखाई दे रहा है क्योंकि यह अस्मिता के सवाल से आगे बढ़कर जमीन के सवाल से अपने आपको जोड़ता हुआ दिखता है।
फिल्म फेस्टिवल की तीसरी फिल्म सीवी सथ्यन की ‘ होली काउ ’ थी। यह फिल्म जानवरों के काटने के मुद्दों पर धार्मिक संस्थाओं, आस्था, कर्मकांड, रीति रिवाज और त्योहारों की चर्चा करती है जो न सिर्फ इसे बढ़ावा देते हैं बल्कि इसका उत्सव भी मनाते हैं दूसरी ओर यह इसे जुड़े सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, कानूनी और आर्थिक तर्कों, जवाबों और विवादों की चर्चा करती है जो इस मुद्दे से जुड़े हैं। यह फ़िल्म खेतिहर समाज के औद्योगिक समाज में परिवर्तित होने के कारण मनुष्यों और जानवरों के संम्बंधों में आये बदलाव को भी रेखांकित करती है। इस फ़िल्म को दिल्ली के अम्बेडकर विश्विद्यालय के अध्यापक सिबिल के विनोदन ने प्रस्तुत किया जो सिनेमा के गहरे अध्येता होने के साथ -साथ ओडेस्सा कलेक्टिव से भी जुड़े हैं।
आक्रोश के ज़रिए ओम पुरी को श्रद्धांजलि
1980 में विजय तेंदुल्रकर की कथा पर छायाकार गोविन्द निहलानी द्वारा निर्देशित ‘आक्रोश ’ का ओम पुरी की अभिनय यात्रा में ख़ास महत्व है। आज आदिवासियों पर हो रहे व्यवस्था के हमले के मद्देनजर यह न सिर्फ ओम पुरी के लिए निर्णायक फिल्म साबित होती है बल्कि इस नई लहर को भी बखूबी स्थापित करती है। ‘ आक्रोश ’ का आदिवासी लहान्या भिकू ओम पुरी अभिनीत ऐसा चरित्र है जो कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस फ़िल्म के बनने के 36 साल बाद हमें समझ में आ रहा है कि क्यों लहान्या पूरी फ़िल्म में चुप रहता है। ओम पुरी ने पूरी फ़िल्म में शायद तीन या चार बार संवाद बोले हैं। आदिवासी समाज के दबे कुचले होने और व्यवस्था में बुरी तरह फंसे होने को उन्होंने बहुत कुशलता के साथ अपनी भाव भंगिमाओं और आंगिक चेष्टाओं द्वारा व्यक्त किया है। इस फ़िल्म में आदिवासियों के सवाल को अपनी पूरी गुत्थियों के साथ पेश किया गया है।
फ़िल्म फ़ेस्टिवल का दूसरा दिन
12 वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के दूसरे और आखिरी दिन की शुरूआत सिनेमा के जरिए बच्चों की दुनिया में झांकते हुए हुई। इसके बाद दो और फीचर फिल्में ‘अम्मा अरियन’और ‘सैराट’ दिखाई गई। दोपहर के सत्र में मीडिया संस्थानों के कार्पोरेटीकरण के चलते हो रहे बदलाव और इसके बरक्स जनता के मुद्दों को केन्द्र में रखकर किए जा रहे नए प्रयोगों के बारे में वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव और फिल्मकार नकुल सिंह साहनी ने अपनी प्रस्तुति दी।सुबह 10 से 12 बजे के पहले सत्र में 1976 में चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसाइटी के लिए मशहूर निर्देशिका सई परांजपे द्वारा बनाई गई फिल्म ‘ सिंकदर ’ दिखाई गई।
यह कथा फ़िल्म बच्चों के कोमल मानस और प्राणिमात्र से प्रेम की अद्भुत कहानी है। एक लोकेशन में चार किशोर बच्चे रहते हैं जो भिन्न आर्थिक परिवेश के बावजूद अपनी मस्ती और दोस्ती में एक हैं। एक दिन खेलते हुए उन्हें कुत्ते का बच्चा मिलता है जिसे वे अपने नामों के प्रथम अक्षर से निर्मित हुआ नाम सिकंदर देते हैं। पूरी फ़िल्म बच्चों द्वरा सिकंदर को एक घर दिलाने की जद्दोजहद है जिसमे वे अंतत सफल होते हैं। मशहूर बाल कलाकार विनी जोगेलकर के अलावा कुलभूषण खरबंदा और शेट्टी का अभिनय भी इस रोमांच कथा को रोचक बनाता है।
इसके बाद नए जमाने की गीत खंड में चमार गिन्नी माही और चमार पॉप को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया है। सिनेमा तकनीक में आये क्रांतिकारी बदलाव के कारण अब हर समाज की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति देखने.सुनने को मिल रही है। पंजाब की नई सामाजिक सरंचना में निर्मित हुई 17 वर्षीय गिन्नी माही और उसके चमार पॉप को सुनना एक नए अनुभव संसार में जाने जैसा है।
दोपहर के सत्र में 1986 की बनी जान अब्राहम निर्देशित मलायलम फिल्म ‘अम्मा अरियन’ दिखाई गई। 1984 में केरल में सिनेमा प्रेमी लोगों ने ‘ओडेसा फ़िल्म समूह’ की स्थापना की। इस समूह का मकसद सिनेमा निर्माण और वितरण को नए सिरे से परिभाषित करना था। इस समूह ने सार्थक सिनेमा को लोकप्रिय बनाने के लिए कस्बों से लेकर गावों तक विश्व सिनेमा की कालजयी फिल्मों की सघन स्क्रीनिंग करते हुए नए जिम्मेवार दर्शक बनाए। कई बार किसी फ़िल्म के मुश्किल हिस्से को समझाने के लिए ओडेसा का समूह का एक्टिविस्ट फ़िल्म को रोककर उस अंश को स्थानीय मलयाली भाषा में समझाते थे।
1986 में जॉन अब्राहम ने अपने समूह के लिए ‘अम्मा अरियन’ का निर्माण शुरू किया। यह उनका ड्रीम प्रोजक्ट था। केरल के नक्सलवादी राजन के मशहूर पुलिस एनकाउंटर को कथानक बनाती यह फ़िल्म राजन के साथियों द्वारा उसकी लाश को लेकर उसकी मां तक पहुचने की कहानी है। इस यात्रा में एक शहर से दूसरे शहर होते हुए जैसे जैसे राजन के दोस्तों का कारवाँ बढ़ता है वैसे-वैसे हम उन शहरों की कहानी भी सुनते जाते हैं। इस फ़िल्म को दिल्ली के अम्बेडकर विश्विद्यालय में के अध्यापक सिबिल के. विनोदन ने प्रस्तुत किया।
मीडिया में ‘कॉरपोरेट मोनोपोली’सबसे बड़ा खतरा-पंकज श्रीवास्तव
चर्चित वेबसाइट ‘मीडिया विजिल’के संस्थापक संपादक पंकज श्रीवास्तव ने खबरों की प्रस्तुति में मीडिया संस्थानों के बढ़ते कार्पोरेटीकरण की चर्चा करते हुए कहा कि आज समूचे भारतीय मीडिया जगत पर गिने-चुने बड़े पूँजीपतियों का कब्जा हो गया है। इससे जनता के मुद्दे मुख्य धारा की मीडिया से गायब होते जा रहे हैं और उसकी जगह नकली बहस प्लांट की जा रही है। उन्होंने देश में एक ऐसे कानून बनाने के लिए लोगों को आवाज उठाने की अपील की कि जो पूंजीपतियों के हर व्यवसाय करने की छूट को प्रतिबंधित और सीमित करती हो।
उन्होंने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट करने वाले पूंजीपति ही अब मीडिया संस्थानों के मालिक हो गए हैं, ऐसे में जनता की आवाज जनता के सहयोग से संचालित मीडिया समूह ही उठा सकता है। उन्होंने पत्रकारों की सुरक्षा व स्वतंत्रता कायम रखने के लिए बनाए गए कानूनों की अवहेलना और उस पर सरकारों की चुप्पी का सवाल उठाया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद पत्रकारों को मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार वेतनमान व सुविधाएं ना देना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
इसके बाद फिल्मकार और चल चित्र अभियान के संचालक नकुल सिंह साहनी ने चल चित्र अभियान के बारे में दर्शकों से अपने विचार साझा किए। नकुल सिंह साहनी और उनके साथियों द्वारा शुरू किया गया यह अभियान दृश्यों की दुनिया में बड़े इजारेदार समूहों के बरक्स सूचनाओं के आदान-प्रदान की एक बड़ी कोशिश है। नकुल ने नोटबंदी, विधानसभा चुनाव के दौरान दलित युवाओं, महिलाओं, मुसलमानों, बुनकरों के मुद्दों को जानने के लिए लोगों से संवाद के वीडियो दिखाते हुए कहा कि ऐसा कर हम मीडिया संस्थान द्वारा जानबूझ कर छिपाए जा रहे या नेपथ्य में धकेले जा रहे मुद्दों को सामने लाने की कोशिश कर रहे है।
फिल्म फेस्टिवल का समापन चर्चित मराठी फिल्म सैराट से हुआ। नागराज मंजुले निर्देशित यह फिल्म एक दलित युवा की सर्वण लड़की से प्रेम कहानी है जिसके जरिए वह समाज का एक और सच हमारे सामने रखते हैं। फिल्म जितनी रोचक है उतनी ही हमारे समाज की सच्चाईयों को उजागर करने में सक्षम। इस फिल्म ने साबित किया कि जाति, लिंग, विकलांगता और उत्पीड़न के विषय सिर्फ डॉकूमेंट्रीज के लिए ही नहीं हैं बल्कि मुख्य धारा के सिनेमा में भी उतार सकते हैं।