समाजवाद: एक संवाद भगत सिंह से चावेज़ तक

हरनाम सिंह 


पूंजीवाद आज मरणासन्न अवस्था में है और अपने आप को बचाए रखने के लिए फासीवादी तरीके अपना रहा है। मनुष्यता के सामने समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है। पूँजीवाद मुनाफ़े की खातिर इंसानों की यह दुनिया भी समाप्त करने में हिचकिचाएगा नहीं। वेनेजुएला समाजवादी क्रांति को पुनः विश्व पटल पर लाने का प्रयास कर रहा है और इस नाते दुनिया में जो भी लोग समाजवाद के बारे में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें इतिहास के समाजवाद के मॉडल के बारे में मालूम होना और समाजवाद के मौजूदा संघर्षों के बारे जानना बहुत ज़रूरी है।

यह विचार रविवार 31 मार्च को इंदौर की कैनेरिस आर्ट गैलरी में ” समाजवाद : भगत सिंह से चावेज़ ” तक विषय पर आयोजित परिसंवाद में व्यक्त किए गए। अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन तथा संदर्भ केंद्र द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में जनवादी लेखक संघ से सम्बद्ध वरिष्ठ लेखक सुरेश उपाध्याय ने ” भगत सिंह के समय में समाजवाद”  विषय पर कहा कि भगत सिंह का जन्म 1907 में हुआ था। उसी के आसपास 1913 में गदर पार्टी की स्थापना हुई। यह पहली पार्टी थी जिसने राजनीति को धर्म से मुक्त रखा और अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया। 1917 की रूस क्रांति का प्रभाव पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत के क्रांतिकारियों पर भी पड़ा। इसी दौरान भगत सिंह क्रांतिकारियों के संपर्क में आये और उनपर भी रूस की क्रांति का असर पड़ा। असेंबली बम कांड के बाद भगत सिंह को जेल हुई । उन्होंने लाहौर जेल को एक प्रकार से अध्ययन का केंद्र बना लिया। इस दौरान 4 पुस्तकें भी लिखी। मगर वे अप्रकाशित रहीं। भगत सिंह द्वारा असेंबली बम कांड के दौरान जो पर्चा फेंका गया उसका सीधा संदेश था “व्यवस्था में बदलाव और शोषणकारी व्यवस्था का खात्मा।” यही समाजवाद की मांग है।  समाजवाद से प्रभावित होकर भगत सिंह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में सोशलिस्ट शब्द जोड़ते हैं और उसका नाम रखते हैं हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन। सुलभा लागू ने इसमें जोड़ा कि भगत सिंह कहते थे क्रांति का मतलब सामाजिक बदलाव से है, जहां मनुष्य का मनुष्य के द्वारा शोषण ना हो। इसके लिए युवाओं के संगठन बनने चाहिए। अन्य क्रांतिकारियों की तुलना में भगत सिंह में जो बुनियादी परिवर्तन दिखता है, वह उनके आलेखों से स्पष्ट हो जाता है। भगत सिंह की सोच भारत तक सीमित नहीं थी वह पूरे विश्व को एक इकाई के रूप में देख रहे थे।  भगत सिंह ने कहा कि  देश में आजादी की लड़ाई अभी मध्यमवर्ग लड़ रहा है जबकि मजदूरों और किसानों को यह लड़ाई लड़नी चाहिए। उस समय समाजवाद की एक लहर थी जिसमे कांग्रेसी भी शामिल थे। भगत सिंह के विचारों से प्रेरणा लेकर मौजूदा समाज में कैसे परिवर्तन लाएं इस पर विचार करने की जरूरत है।

“बीसवीं सदी के समाजवाद का मॉडल” विषय पर अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन के उप महासचिव प्रोफेसर सी सदाशिव (दिल्ली) ने कहा कि पिछली सदी के समाजवाद के मॉडल की सबसे प्रमुख विशेषता थी – उसका पानी अन्य समकालीन या पुरातन व्यवस्थाओं से अधिक लोकतान्त्रिक था जबकि इल्जाम उसपर तानाशाह होने का लगाया जाता है। पूंजीवादी देशों में सदैव समाजवाद का भय बना रहता है। सोवियत संघ में विकसित समाजवादी मॉडल से कई राष्ट्र प्रभावित रहे हैं। हरिजन समाचार पत्र में गांधी जी ने १९१९ में सोवियत संघ के पंचायती राज्य प्रणाली की प्रशंसा की। हमारे देश में आजादी के बाद लागू की गई पंचवर्षीय योजनाएं रूस से ही प्रेरित थी। सोवियत संघ में खेती सहकारिता के आधार पर विकसित हुई, शिक्षा को अहमियत दी गई। समाजवादी  क्यूबा की स्वास्थ्य प्रणाली की प्रशंसा सारी दुनिया में होती है। महिलाओं को भी समाजवादी देशों में बराबरी के अवसर और सम्मानजनक स्थान हासिल हुआ।

जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट आफ सोशल स्टडीज, दिल्ली से संबद्ध वरिष्ठ अर्थशास्त्री जया मेहता ने “21 वीं सदी के समाजवाद का मॉडल” विषय पर अपने संबोधन में कहा कि बीसवीं सदी के समाजवाद की सबसे बड़ी घटना रूस की क्रांति थी। बेशक 70 साल तक वो प्रयोग चला और फिर असफल हुआ लेकिन उस व्यवस्था के बारे में ठीक से गहराई से जानना ज़रूरी है। उसके प्रमुख लक्षण क्या थे, उसकी चुनौतियाँ क्या थीं, और उसके मज़बूत पहलू क्या थे। उन्होंने कहा कि सबसे पहली बात तो मार्क्स के मुताबिक क्रांति रूस में होनी ही नहीं थी। उसे किसी विकसित देश में होना था जो उस समय जर्मनी था। लेकिन लेनिन ने देखा कि जर्मनी की क्रन्तिकारी शक्तियां क्रांति करने के मुद्दे पर विभाजित हैं और रूस में वे क्रांति के रास्ते पर काफी आगे बढ़ चुके थे। रूस कृषि व्यवस्था वाला ऐसा देश था जहाँ उत्पादन की शक्तियां पिछड़ी अवस्था में थीं। रूस के ऊपर दोहरी ज़िम्मेदारी थी – एक तो उसे अपने देश की उत्पादक शक्तियों को विकसित करना था और दुसरे, उसे अपनी क्रांति की पूंजीवादी ताक़तों से रक्षा भी करनी थी।  रूस के इंक़लाब को विफल करने के लिए 14 देशों की फौजें रूस की सीमा पर तैनात थीं।  ये देश रूस को गिरा देना चाहते थे क्योंकि वे जानते थे कि अगर एक देश में मज़दूरों की क्रांति कामयाब हो जाएगी तो कल उनके देशों के मज़दूर भी शोषण के खिलाफ खड़े और एकजुट होने लगेंगे। वही हुआ भी। रूस ने क्रांति के बाद ज़मींदारों से ज़मीनें छीनकर उन्हें खेतों में मेहनत करने वाले किसानों के बीच बाँटा। उद्योग-व्यवसायों को जनता की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए शासन द्वारा सहकारी आधार पर चलाया गया। धीरे-धीरे उन्होंने समूची उत्पादन व्यवस्था के आधार को बदलने की कोशिश की और साथ ही समाज की मानसिकता को मनुष्यता से सराबोर करने का प्रयास किया। लेकिन क्रांति को बचाने के लिए सत्ता को अपने हाथों में रखना भी ज़रूरी था।  इसके लिए उन्हें अनेक किस्म की सख्ती भी बरतनी पड़ी जिससे रूस के लोगों को वो अपनी क्रांति लगना बंद हो गयी। यह भी एक बड़ी वजह थी सोवियत संघ की जनता के अपनी ही क्रांति के प्रति और समाजवाद के प्रति उदासीन हो जाने की। वेनेजुएला समाजवादी क्रांति को पुनः विश्वपटल पर लाने का प्रयास कर रहा है। बीसवीं और 21वीं सदी के समाजवादी व्यवस्था के मध्य की कड़ी क्यूबा का समाजवाद है। क्यूबा का नेतृत्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों से अलग है। क्यूबा तीसरी दुनिया के गरीब देशों से जुड़ने की बात करता है, उसने लैटिन अमेरिकी देशों के संघर्षों के साथ ही अफ्रीका के अनेक देशों के मुक्तिसंघर्षों का साथ दिया है। सोवियत संघ के पतन के पश्चात फिदेल कास्त्रो ने समाजवाद की रक्षा की बात कही, वे अपने देशवासियों को जोड़ें रख पाने में सफल रहे।  वेनेजुएला ने पिछली समाजवादी व्यवस्थाओं की विफलता से सबक सीखा और 21वीं सदी के समाजवाद का नारा बुलंद किया।

वेनेजुएला ने क्यूबा से भी शिक्षा ली। 2005 में शावेज ने अपने देश में 21वीं सदी के समाजवाद की घोषणा की  2012 में निधन के पूर्व तक उन्होंने देश में मोहल्ला समितियों का गठन कर उन्हें संसद में प्रतिनिधित्व दिया ताकि लोगों का सत्ता की भागीदारी का एहसास हो। चावेज़ ने कोऑपरेटिव आंदोलन को कारपोरेट के सामने मजबूती के साथ खड़ा किया।उसके विरुद्ध अमेरिकी प्रतिबंध और षड्यंत्र संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषित सिद्धांतों के खिलाफ हैं। वर्तमान में समाजवाद हमारे संघर्षों का केंद्र बिंदु है।

“21वीं सदी के समाजवाद के सामने मौजूद चुनौतियां और जवाब” विषय पर प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कहा कि 1998 के पहले तक वेनेजुएला में भ्रष्ट और जनविरोधी सरकारें थीं। सन 1999 में चावेज़ ने वेनेज़ुएला की सत्ता संभाली और तब से सामजवाद की एक नयी कहर लातिनी अमेरिकी देशों में देखने को मिली। शुरू में चावेज़ खुद समाजवादी या वामपंथी नहीं थे लेकिन बाद में वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और उसका नेतृत्व किया। चावेज़ के मुताबिक 20\वीं सदी के समाजवाद के प्रयोगों में जनता को भागीदारी का अवसर नहीं मिला था। इसे समझते हुए चावेज़ ने तीन करोड़ की आबादी वाले वेनेजुएला में 19,700 मोहल्ला समितियां बनाई जो अपने क्षेत्रों में विकास के कार्य क्या हों, ये तय करने से लगाकर शिक्षा, स्वास्थ्य की अपने इलाके की समस्याओं को हल करने और ज़रूरतों को पूरा करने की आपसी समझ से रणनीति बनाती थीं। वही ज़रुरत पड़ने पर देश के समक्ष मजूद चुनौतियों से निपटने का भी विचार करती हैं।  चावेज़ ने कहा कि हम न अमीरों को मारेंगे और न उनकी संपत्ति छीनेंगे लेकिन उन्होंने जिस तरह की व्यवस्था बनायी उससे अमीर वहां अपने आप ही नहीं टिकना छह रहे हैं। वहां से 30 लाख लोग केवल इस कारण पलायन कर गए कि देश में केवल गरीबों की सुनवाई होती है। उन्होंने जनता के बीच फेडरेशन बनाए, संगीत का एक आंदोलन चलाया जिससे कुछ ही वर्षों में ८ लाख बच्चों को संगीत का शिक्षक बना दिया जो दादा-दादी को संगीत सिखाते हैं। जब तक अमेरिकी हमले नहीं हो रहे थे तब तो वेनेज़ुएला के शहरों की तंग गलियों में गुजरने पर पियानो और गिटार की बजने की आवाजें आती थीं।

उन्होंने कहा कि वेनेजुएला के पास दुनिया का सबसे बड़ा तेल भंडार है उस पर कब्जा करने का प्रयास अमेरिका कर रहा है।  अमेरिका ने वहां प्रतिबंध लगाकर, नकली मुद्रा भेजकर अर्थतंत्र को नष्ट करने का प्रयास किया है। विगत 2 वर्षों में वेनेजुएला में संघर्ष बढ़ा है। अमेरिका अनेक प्रकार से ये प्रयास कर रहा है कि  वेनेज़ुएला में समाजवाद के जारी प्रयोग को तहस-नहस कर दे लेकिन अमेरिका के इस कदम का विरोध भी अनेक देशों रूस, चीन, तुर्की, आदि ने किया है और अमेरिका की हिम्मत नहीं हुई है कि वो अपनी फ़ौज के माध्यम से वेनेज़ुएला पर कब्ज़ा कर सके। निकोलस मदुरो की सरकार को गिराने के लिए अमेरिका और यूरोप के अनेक पूंजीवादी देशों ने एक शख्स युआन गुआइडो को वेनेज़ुएला के राष्ट्रपति होने की मान्यता दे दी। मदुरो की सरकार ने गुआइडो को आज ही गिरफ्तार कर लिया है। अभी स्थितियाँ बहुत अस्थिर हैं और दुनिया के युद्ध विरोधी आंदोलन को अमेरिका के खिलाफ और वेनेज़ुएला के पक्ष में जनमानस तैयार करना चाहिए।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ वामपंथी चिंतक वसंत शिंत्रे  ने कहा हमारा संघर्ष मोदी और राहुल, कांग्रेस और भाजपा के बीच नहीं हैं। अपितु व्यवस्था को बदलने का है। चीन और रूस में इतनी विविधता नहीं है जितनी भारत में हैं । इसी आधार पर यहां समाजवाद के लिए संघर्ष का स्वरूप तय करना होगा।

प्रारंभ में आयोजन के बारे में जानकारी देते हुए अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन के राज्य सचिव एवं बैंक अधिकारी संगठन के नेता अरविंद पोरवाल ने कहा कि वर्तमान समय में पूंजीवादी समाज व्यवस्था के विकल्प पर विचार जरूरी है। पूंजीवाद ने व्यक्ति के स्थान पर निजी पूंजी को महत्व दिया है। पूंजीवादी लोकतंत्र को वित्तीय तानाशाही ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। दुनिया की बहुसंख्य आबादी आज शोषित और प्रताड़ित है। पूंजी का केन्द्रीय संकुचन हुआ है और असमानता लगातार बढ़ रही है। दुनिआ के बहुसंख्य लोगों की उम्मीदें टूटी हैं और वो समाजवाद में ही इसका हल तलाश रहीं हैं। पूंजीवाद  आज मरणासन्न अवस्था में है। अपने को बचाने के लिए फासीवादी तरीके अपना रहा है। छद्म राष्ट्रवाद के जरिये लोगों की भावनाएं भड़काकर उनका ध्यान मूल मुद्दों से भटकाया जा रहा है। इन्हीं सब परिस्थितियों पर विचार हेतु यह परिसंवाद रखा गया है। कार्यक्रम में कई श्रोताओं ने भी सक्रीय भागीदारी कर अपने विचार रखे। रविन्द्र शुक्ला, अनुपमा रावत, प्रभु जोशी, आलोक खरे, विवेक मेहता,अजय लागू, अज़ीज़ इरफ़ान, सारिका श्रीवास्तव , सत्यम पांडेय , सुलभा लागू , गजानंद निम्गओंकर, अशोक दुबे, परवेज खान, विवेक अत्रे, आलोक तिवारी, शशिभूषण,  हरनाम सिंह, ब्रजेश कानूनगो, चुन्नीलाल वाधवानी, शैला शिंत्रे, कैलाश लिम्बोदिआ आदि उपस्थित थे। आयोजन स्थल पर रूपांकन संस्था द्वारा भगत सिंह, चे ग्वेरा आदि क्रांतिकारियों के कथनों की पोस्टर प्रदर्शनी लगाई गई थी।

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