साल भर पहले शास्त्रीय गायक और प्रखर विचारक टीएम कृष्णा को हिंदी पट्टी में परिचय की ज़रूरत रही होगी जब उन्हें मैग्सायसाय पुरस्कार से नवाज़ा गया था। आज उन्हें दिल्ली की हिंदीभाषी जनता भी जान गई है तो इसका शुक्रिया अदा मोदी सरकार को करना चाहिए जिसके एक महकमे भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने स्पिक मैके के साथ मिलकर दिल्ली के नेहरू पार्क में 17-18 नवंबर को प्रस्तावित कृष्णा के संगीत समारोह को आखिरी मौके पर रद्द कर दिया। वो तो भला हो आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार का जिसने कृष्णा को एक संगीत संध्या का निमंत्रण अपनी ओर से भेज दिया। आज शाम दिल्ली के सैदुलअज़ाब पार्क में कृष्णा अपना गायन प्रस्तुत करेंगे।
आखिर भारत सरकार को एक संगीतकार से क्या खतरा है? यह समझने के लिए आपको कृष्णा के संगीत प्रयोगों के साथ उनके विचार जानने चाहिए। टी.एम. कृष्णा को 2015-16 के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से 31 अक्टूबर, 2017 को सम्मानित किया गया था। इस मौके पर उन्होंने जो भाषण दिया, उसमें नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला करते हुए देश के सामने मौजूद खतरों के प्रति साफ़ तौर पर आगाह किया। यहीं से सरकार को उनसे दिक्कत होना शुरू हुई। एक संगीतकार के सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को समझने के लिए यह भाषण बेहद ज़रूरी है। इसे मीडियाविजिल के पाठकों के लिए हम पहले भी हिंदी में पेश कर चुके हैं, लेकिन आज का मौका खास है क्योंकि दिल्ली सरकार ने आज के समारोह में उन्हें ‘’अवाम की आवाज़’’ के नाम से प्रचारित किया है- (संपादक)
मेरी कला यानी कर्नाटक संगीत ने हालांकि मुझे एक तोहफ़ा दिया हे। वह तोहफ़ा है अनुभव का, समानुभूति का और अपनी सीमाओं के पार जाकर जिंदगी का अहसास करने का तोहफ़ा। इसी अहसास ने मुझे यह समझदारी बख्शी है कि मेरी कला, मेरी जीवनशैली, मेरी आस्थाएं, धर्म, आचार, कर्मकांड और तमाम वे चीज़ें जो मुझे मैं बनाती हैं, वह सब भारत जैसे विशाल देश में महज एक बिंदु है।
मैं आज यहां आया हूं तो उसके पीछे कला की यही उदारता है।
इंसान एक जटिल प्राणी है। इसका एक अंश कुछ इस तरह से बना है कि वो स्वामित्व, नियंत्रण, दमन, अनुशासन और निरंकुशता को पसंद करता है। इसका दूसरा पक्ष हालांकि खूबसूरत है। वह संवेदनशील है, सहानुभूतिपूर्ण और दयालुतापूर्ण है। आजीवन हम इन्हीं दोनों पक्षों के बीच झूलते रहते हैं और कभी कोई एक पक्ष भारी होता है तो कभी दूसरा। थोड़ा और गहरे जाने पर हालांकि पता लगता है कि हमने अपने इर्द-गिर्द जो वातावरण तैयार किया है, वही हमारे भीतर छुपी हुई मानवता को आकार देता है। दरअसल, इसी संदर्भ में लोकतंत्र एक ऐसे अत्यावश्यक औज़ार के रूप में सामने आता है जिससे समझौता नहीं किया जा सकता। यह मानवता को साकार करने का एक उपकरण बनकर साकार होता है। लोकतंत्र का असली मतलब उसकी मंशा में निहित है। यह मंशा हम सभी को बेहतर मनुष्य बनाने की ओर लक्षित है। इसके लिए हर नागरिक, समुदाय व सरकार की ओर से मानवता की दरकार होती है। इसीलिए यह काम इतना आसान नहीं है और कभी रहा भी नहीं। हम ऐसे वक्त के गवाह रहे हैं जब लोकतंत्र को हमने खुद कैद कर लिया था। मैं भी एक ऐसे ही कठिन दौर की पैदाइश हूं चूंकि मेरा जन्म जनवरी 1976 में हुआ था।
फिर भी, हम आगे बढ़ते ही रहे।
मैं जब अस्सी और नब्बे के दशक में बड़ा हो रहा था, उस वक्त राष्ट्रीय एकता मेरी शब्दावली का एक अहम हिस्सा था। तमाम सियासी खेमे के नेता इस बारे में काफी जोश से बोलते थे और भारत के संबंध में इसकी केंद्रीयता पर बल देते थे। देश के अलग-अलग हिस्सों में भले ही भीषण हिंसा का उभार रह-रह कर होता रहा, लेकिन हम हर बार उबर जाते थे और ऐसा लगता था मानो हमारे नागरिक समाज की कोई भीतरी चेतना हमारी एकजुटता को कायम रखे हुए है। इसी संदर्भ में मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 1984 के दंगों के संबंध में मांगी गई माफी का जि़क्र करना चाहूंगा। वह काफी सोचा-समझा और अनिवार्य वक्तव्य था। कुछ आलोचक भले कह लें कि ”इससे कुछ नहीं बदलता”। बेशक इससे अतीत नहीं बदलेगा, लेकिन भविष्य में बदलाव ज़रूर आएगा।
एक ऐसा नेता जिसके पास इतनी भी विनम्रता नहीं है कि अपनी नाक के नीचे हुए जनसंहार के लिए वह माफी मांग सके, वह कभी जोड़ नहीं सकता।
मैं थोड़े अफसोस के साथ कहना चाहूंगा कि नई सहस्राब्दि में हमारे प्रवेश के साथ ही राष्ट्रीय एकता के इस विचार पर से मुलम्मा हट गया था। यह किसी का ध्यान नहीं खींचता था। इसका अब कोई मतलब नहीं रह गया था। हो सकता है ऐसा इसलिए भी हुआ हो कि हम अपनी समन्वयवादी संस्कृति को लेकर आत्मविश्वास और हेठी से बहुत भर गए हों, कि इसमें तो कोई सेंध ही नहीं लगा सकता है। हमने विकास के बारे में बहुत ज्यादा बोलना शुरू कर दिया और जल्द ही राष्ट्रीय एकता का सवाल पार्श्व में चला गया। सामाजिक बराबरी पैदा करने की दिशा में कुछ कानून हमने बेशक बनाए, जैसे 2005 में सूचना का अधिकार और नरेगा, लेकिन जाने कैसे हम एक बात भूल गए कि यदि हमने अपने लोगों का खयाल नहीं रखा और उन खतरों के प्रति सतर्क नहीं रहे जो परिदृश्य के पीछे मंडरा रहे थे, तो हम एक ऐसे दौर में पहुंच जाएंगे जब एक राष्ट्र के बतौर हमारी सामूहिक पहचान ही खतरे में पड़ जाएगी।
आज, हम वहीं खड़े हैं।
हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जब राष्ट्रवाद के एक भोंडे संस्करण अंधराष्ट्रीयता ने राष्ट्रीय एकता की जगह ले ली है। हमें बताया जा रहा है कि क्या खाओ, क्या पहनो, क्या बोलो, क्या सोचो और कैसे रहो। भारतीय संस्कृति के नाम पर एकाश्म व्यवस्था को हमारे ऊपर थोपा जा रहा है। चूंकि मैं संस्कृतिकर्मी हूं और संस्कृति के क्षेत्र में ही काम करता हूं, तो एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भारत की कोई एक संस्कृति नहीं है। भारत में कई संस्कृतियां हैं। यहां बहुलतावाद ही एकता का वाचक है। एकरूपता से सब कुछ एक जैसा हो जाता है। अनेकता से पैदा हुई एकता परस्पर सम्मान पैदा करती है।
हमारे लोकतंत्र, संविधान, बहुलता, नागरिकता और समाजवाद के समक्ष आज महानतम चुनौती है। भारत की इन पहचानों को आज ठीक हमारी आंखों के सामने दूषित, खंडित, दमित और विकृत किया जा रहा है। ऐसा करने के लिए जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, वे अब गोपनीय नहीं रह गए हैं। असहमतों की हत्या की गई है और प्रतिरोध करने पर हम सब को भविष्य के प्रति चेताया जा रहा है।
अगर जनमानस में राष्ट्रीय एकीकरण का आवाहन करने की कभी ज़रूरत पड़ेगी, तो वह समय आज है और गंवाने के लिए हमारे पास वक्त नहीं है। यह एकता केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नहीं है। इससे दलितों, आदिवासियों, जातीय व भाषायी अल्पसंख्यकों का भी उतना ही लेना-देना है। भारत का बुनियादी ताना-बाना इसकी संस्कृतियां हैं और हमने अगर उसमें ज़हर घुलने दे दिया, तो हम अपनी समूची सभ्यतागत चेतना को सूली पर चढ़ा रहे होंगे। यह जंग हम हार जाएंगे और ऐसा हम होने नहीं दे सकते।
सवाल उठाने, प्रतिरोध करने, सीखने और तलाशने का अपना यह सफ़र मैं जारी रखूंगा। यह पुरस्कार स्वीकार करते वक्त मैं अपनी भूमिका को बस एक माध्यम के रूप में देखता हूं जो इस देश की पहचान और भवितव्य के बारे में और ज्यादा विमर्श खड़ा कर सके। मैं उन सब का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जो मेरे हमसफ़र रहे और जिनका मुझ पर हाथ है। मोटे तौर पर कहूं तो भारत में मौजूद लोकतांत्रिक विचारकों की उस परंपरा को मैं जारी रखे हुए हूं जो हमारी निहित अच्छाइयों में यकीन रखती है।
अपनी बात खत्म करने से पहले मैं गांधीजी के आश्रम में गाए जाने वाले गीतों में से एक भजन की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा। मुझे आशा है कि इन शब्दों को हम अपने दिल में रखेंगे और उसे क्षितिज तक विस्तारित करेंगे।
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव