नवउदारवादी पूंजी हिंदूवाद की पीठ पर सवार होकर देश को लूट रही है: प्रो. अनिल सद्गोपाल

नई शिक्षा नीति देश को बेचने और तोड़ने का बहाना हो गई है। संविधान की अवहेलना करके देश को हिंदू राष्ट्र में बदलने की कोशिश की जा रही है। संविधान के भाग एक के अनुच्छेद एक में जिस भारत अर्थात इंडिया की बात की गई है, उस नये भारत के सपने को साम्राज्यवाद के विरोध में चले आजादी के आंदोलन ने गढ़ा, जिसमें विभिन्न राज्यों, भाषाओं और परंपराओं के लोगों की हिस्सेदारी रही। आज सरकार का हर कदम उस भारत को तोड़ने का काम कर रहा है।’’ शिक्षा अधिकार आंदोलन के नेतृत्वकारी प्रो. अनिल सद्गोपाल ने 28 सितंबर 2019 को गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में आयोजित आठवां कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान देते हुए ये विचार व्यक्त किए।

उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में मौजूद सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, आस्था, मजहब और उपासना की आजादी, सामाजिक दर्जे और अवसर की बराबरी को सुनिश्चित करने तथा व्यक्ति की गरिमा और देश की आजादी व संपूर्णता को पूरा करने वाली बंधुता को बढ़ावा देने के विंदुओं की चर्चा करते हुए कहा कि नई शिक्षा नीति संविधान की प्रस्तावना को तोड़ रही है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप सामाजिक न्याय, बराबरी और मानवीय गरिमा दिखलाई पड़ती है? क्या हमारे स्कूलों में वैसी आजादी है? यहां आवाज और सोचने-लिखने की हिम्मत करने वालों का क्या हाल होता है, उसका उदाहरण रोहित वेमुला है।

प्रो. सद्गोपाल ने कहा कि सुब्रह्मण्यम समिति की रपट अप्रैल 2016 में तैयार हुई पर पहली बार सरकार ने आश्चर्यजनक ढंग से चुप्पी साध ली और जुलाई 2016 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर सरकार ने शिक्षा नीति पर अपने विचार रखे और जनता से सुझाव मांगे। दसियो-हजारों लोगों और सैकड़ों जन-संगठनों ने पूरे विश्वास के साथ अपने सुझाव वेबसाइट पर डाले, लेकिन सरकार उनको भी हजम कर गई। दरअसल सरकार को जो करना होता है, पहले ही तय कर चुकी होती है, जनता की राय लेना तो एक ढकोसला है। जो वह करना चाहती है, उस पर लोकतांत्रिक मुहर लगाने के लिए वह ऐसा करती है। उन्होंने बताया कि सरकार ने 2017 में कस्तूरी रंगराजन समिति का गठन किया, जिसकी रपट अगस्त 2018 में तैयार हो गई लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए उसकी भनक भी नहीं लगने दी। यह बताते हुए कि कस्तूरी रंगराजन की रपट में पुरानी शिक्षा नीतियों का कोई विश्लेषण नहीं किया गया है, प्रो. अनिल सद्गोपाल ने कहा कि कोठारी आयोग ने कहा था कि प्राइवेट स्कूल की अवधारणा ही लोकतंत्र के खिलाफ है, जिसे लगातार नजरअंदाज किया गया है। उन्होंने आशंका जाहिर की कि सरकार ने कस्तूरी रंगराजन समिति की रपट को   संपादन के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के नागपुर हेडक्वार्टर यानी असली सरकार को भेज दिया। जिसे 23 मई 2019 को लोकसभा चुनाव जीतने के एक हफ्ते बाद अचानक नागपुर हेडक्वार्टर की स्वीकृति के बाद 1 जून को सार्वजनिक कर दिया गया। उन्होंने जोर देकर कहा कि नागपुर हेडक्वार्टर में रपट को अंतिम रूप देने में देश के कॉरपोरेट घरानों और वैश्विक पूंजीवाद की एजेंसियों ने भी सक्रिय भूमिका अदा की है।

उन्होंने कहा कि कस्तूरी रंगराजन समिति की रपट 485 पृष्ठों की है और अंगरेजी में है। जब 22 संवैधानिक मान्यता प्राप्त भाषाओं में इसके अनुवाद की मांग की गई तो 11 भाषाओं में सिर्फ इसका सारांश वेबसाइट पर अपलोड किया गया। उन्होंने इस रपट के वर्ग चरित्र, जाति चरित्र और भाषाई चरित्र पर सवाल उठाए और सच्चाई से अवगत कराते हुए कहा कि इसमें एक जगह जनहित की बात की गई है, पर कुछ ही पन्नों बाद जनहित के खिलाफ सिफारिशें की गई हैं। प्रखंड मुख्यालयों और जिला मुख्यालयों में शिक्षा की बेहतरीन सुविधाओं से सुसज्जित स्कूल काॅम्पलेक्स बनाने की योजना को उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में बहुजन ग्रामीण आबादी को शिक्षा से वंचित करने की साजिश करार दिया। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नीति आयोग देशभर के 80 फीसदी सरकारी स्कूलों को बंद करने का ऐलान कर चुकी है। तब से लेकर अब तक बड़ी तादाद में सरकारी स्कूल बंद किए जा चुके हैं। उन्होंने स्कूल काॅम्पलेक्स को उसी पृष्ठभूमि में देखने की बात की। प्रो. सद्गोपाल ने कहा कि इसके पीछे मोदी का दिमाग नहीं, बल्कि अमेरिका और पूर्व राष्ट्रपति बुश का दिमाग है। नवउदारवादी जब हमला करते हैं तो बड़े सुंदर शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। वे जब एजुकेशन फाॅर आॅल की बात करते हैं तो उसका मतलब एजुकेशन फाॅर नन होता है।

प्रो. अनिल सद्गोपाल ने विस्तार से बताया कि किस तरह सरकारी स्कूलों को बर्बाद करने और बहुजन आबादी को शिक्षा से बेदखल करने के एजेंडे पर सरकार अमल कर रही है। उन्होंने याद दिलाया कि संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमिटी का प्रस्ताव था कि 14 साल की उम्र के सारे बच्चों को स्कूल में होना चाहिए और उनसे किसी तरह का खतरनाक काम नहीं करवाएंगे। लेकिन अब उसे बेहद कमजोर कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि छात्रों को जबर्दस्ती शिक्षा से बाहर धकेल दिया जाता है, अपनी मर्जी से वे पढ़ाई नहीं छोड़ते।

प्रो. अनिल सद्गोपाल ने कहा कि सरकार को ज्यादा से ज्यादा सस्ते मजदूर बनाने की बेताबी है। मेक इन इंडिया और गुजरात माॅडल सस्ते मजदूर और कम कीमत पर जमीन उपलब्ध कराने और कारपोरेट को लूट की छूट देने का ही माॅडल है। उन्होंने दुनिया की 100 उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों की सूची पर सवाल उठाते हुए कहा कि ये सूचियां कारपोरेट कंपनियां बनाती हैं, जो नवउदारवादी विचारों को बढ़ावा देते हैं, उनको इन सूचियों में जगह मिलती है। हमारी आईआईटीज की उपलब्धियों और विशेषताओं का जिक्र करते हुए उन्होंने आगाह किया कि केंद्र सरकार ने 2019 के मसौदे में आईआईटी, आईआईआईटी, एनआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालय इन संस्थानों को बढ़ते क्रम में स्वायत्तता देने की बात जमकर की है, लेकिन ये स्वायत्तता शिक्षकों की नियुक्ति, सिलेबस या पाठ्यक्रम तय करने या संस्थान की सुविधाएं बढ़ाने के लिए कतई नहीं है। इस सबके लिए तो नौकरशाही का नियंत्रण और मजबूत किया जाएगा। यहां तक कि राज्य सरकारों के संस्थानों पर भी केंद्र का पूरा नियंत्रण होगा। उन्होंने बताया कि एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन किया जाएगा जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री खुद करेंगे। आयोग के सदस्यों के चयन के लिए एक कमेटी बनेगी जिसकी अध्यक्षता भी प्रधानमंत्री करेंगे। यानी देश की पूरी शिक्षा व्यवस्था पर- ’केजी  से  पीजी’ तक- अकेले प्रधानमंत्री का हुक्म चलेगा।

उन्होंने कहा कि सरकार संवैधानिक दायित्व को बोझ मान रही है और निजी और परोपकार के नाम पर काम करने वाली संस्थाओं को मुनाफा कमाने की स्वायत्तता देना चाहती है। सार्वजनिक शिक्षा के विकास के लिए राष्ट्रीय उत्पाद का 6 फ़ीसद खर्च करने की जो बात की जा रही है, उसका इस्तेमाल आरएसएस के कैडरों के भत्ते के लिए किया जाएगा। 3 से 6 साल की आयु के बच्चों पर उसकी नजर है, क्योंकि आरएसएस जानता है कि इस उम्र के बच्चों के अर्धचेतन में हिंदू राष्ट्र के मिथक, अंध-विश्वास, कुतर्क व गैर-ब्राह्मणी (बहुजन) तबकों के प्रति नफ़रत की पुख्ता नींव डाली जा सकती है।
प्रो. अनिल सद्गोपाल ने कहा कि हम इस मुकाम पर आ चुके हैं, जहां नवउदारवादी पूंजी हिंदूवाद की पीठ पर सवार होकर देश को लूट रही है। सरकार का असली एजेंडा तो नवउदारवादी पूंजी के आगे घुटना टेकने और गुलाम हो जाने का है।

व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ। अजय कुमार, गोपाल गुप्ता, चंद्रदेव राय, राजीव रंजन और गोल्डी के सवालों का जवाब देते हुए प्रो. सद्गोपाल ने कहा कि जो लोग जनता के पैसों से पढ़-लिख गए हैं, उन्हें जनता को कुछ वापस भी करना चाहिए। पढ़ाई और लड़ाई का नारा हमें भगतसिंह ने सिखाया था। हमें अपने सपनों का कम से कम छोटा-सा माॅडल बनाकर दिखाना होगा कि हम शिक्षा के क्षेत्र में क्या चाहते हैं? उन्होंने शंकर गुहा नियोगी के संघर्ष और निर्माण के नारे को याद किया और कहा कि माॅडल बनाने के दौरान ही माड्यूल बनेगा। उन्होंने बड़े पैमाने पर फुले-अंबेडकर के नाम पर स्कूल खड़ा कर देने की जरूरत पर जोर दिया। लड़ाई के पांच विंदुओं को निर्धारित करते हुए उन्होंने कहा कि संविधान के तहत भारत की राजनीति का आधार संघीय रचना है, न कि केंद्रीय रचना। इसलिए केंद्र की अति-केंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था को खारिज करने की मांग करनी चाहिए।

देश की शिक्षा को विश्व बैंक, विश्व-व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ), विदेशी वित्तीय एजेंसियों, पीपीपी (सार्वजनिक-निजी साझेदारी) और वैश्विक नवउदारवादी पूंजीवाद की बेड़ियों को तोड़कर गुलामी से आजाद कराना होगा। बहुस्तरीय शिक्षा व्यवस्था और स्कूल काॅम्पलेक्स के खिलाफ नये किस्म का ब्राह्मणवाद है, जिसके खिलाफ आवाज उठानी होगी। सार्वजनिक खर्च बढ़ाकर आरएसएस को मजबूत करने तथा सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर किये जाने का विरोध करना होगा। बजट का दस प्रतिशत सार्वजनिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए खर्च हो इसके लिए संघर्ष करना होगा। कारपोरेट को मुनाफा पहुंचाने के सरकार के एजेंडा को खारिज करने के लिए लड़ना होगा।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए आलोचक गोपाल प्रधान ने कहा कि प्रो. अनिल सद्गोपाल ने अपने विभिन्न किस्म के अनुभव- विराट अनुभव के जरिए नई शिक्षा नीति के वास्तविक उद्देश्यों को खोला। इस व्याख्यान को सुनते हुए महसूस हुआ कि हम सबको बहुत काम करना होगा। यह सचमुच निर्णायक लड़ाई लड़ने का वक्त है।

व्याख्यान से पूर्व प्रो. अनिल सद्गोपाल, गोपाल प्रधान, राधिका मेनन और पुस्तक के सहसंपादक श्याम सुशील ने कुबेर दत्त की नई पुस्तक ‘समय-जुलाहा’ का लोकार्पण किया। संचालन करते हुए पुस्तक के संपादक सुधीर सुमन ने बताया कि इसमें भाषा-साहित्य-कला-संस्कृति की विभिन्न विधाओं से संबंधित कुबेर दत्त के वे लेख मौजूद हैं, जो उन्होंने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका के लिए इसी शीर्षक के स्तंभ के लिए लिखे थे। इसमें नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय की जन्म शताब्दी के मौके पर लिखे गए उनके लेख भी शामिल हैं। भगतसिंह के अनुयायी मदनमोहन हरदत्त नाम के एक इंकलाबी के जिंदगीनामा से आरंभ होकर यह पुस्तक कई प्रसिद्ध और कम ज्ञात, पर महत्वपूर्ण फिल्मकार, चित्रकार, शोधार्थी, संगीतकार, गायक आदि की जिंदगियों, उनकी रचनाओं और उनके विचारों से साक्षात्कार करवाती है। कुबेर दत्त की सांस्कृतिक कार्यकर्ता की छवि को यह पुस्तक पुख्ता बनाती है। टीवी प्रोड्यूसर, लेखक, कवि और चित्रकार के तौर पर विभिन्न कलाओं और विधाओं के प्रति उनकी अंतरंगता का भी यह साक्ष्य है। सुधीर सुमन ने उनकी कविता ‘एशिया के नाम खत’ के अंश का पाठ भी किया।

व्याख्यानकर्ता प्रो. अनिल सद्गोपाल का विस्तृत परिचय राधिका मेनन ने दिया। उनकी अकादमिक योग्यता, शिक्षा नीति के निर्माण में उनकी भूमिका और शिक्षा अधिकार आंदोलन में निभाई जा रही उनकी ऐतिहासिक भूमिका के साथ-साथ उन्होंने ‘शंकरगुहा नियोगी: संघर्ष और निर्माण’ के पुस्तक के लेखक के रूप में उन्होंने उनका परिचय कराया। इस महत्वपूर्ण व्याख्यान में शामिल तमाम लोगों का स्वागत जसम, दिल्ली इकाई की सचिव अनुपम सिंह ने किया।

इस मौके पर जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रामजी राय, दूरदर्शन आर्काइव्स की पूर्व निदेशक और नृत्य निर्देशक कमलिनी दत्त, आलोचक रेखा अवस्थी, कवि रमेश आजाद, आर. चेतन क्रांति, इरेंद्र, फिल्मकार संजय जोशी, आलोचक वैभव सिंह रामनरेश राम, पत्रकार पंकज श्रीवास्तव, महेद्र मिश्र, मुकुल सरल, मित्ररंजन, कवि सुनील चैधरी, वरुण भारती, रामनिवास, रामनरेश राम, सुनीता, दिनेश, अंबरीश राय, रविदत्त शर्मा, सोमदत्त शर्मा, विवेक भारद्वाज, बीएस रावत, मनीषा समेत शिक्षा के मुद्दे से सरोकार रखने वाले युवा बड़ी संख्या में मौजूद थे।


जन संस्कृति मंच, दिल्ली द्वारा जारी 

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