इंडियन एक्सप्रेस ने आज एक खबर छापी है कि प्रधानमंत्री ने अयोध्या में विकास की समीक्षा की और उन्हें वहां किए जा रहे कार्यों की जानकारी दी गई। लेकिन पहले पन्ने पर जो कुछ छपा है उसमें महंगी जमीन खरीदने से संबंधित किसी मामले या खरीदने वालों की कोई चर्चा नहीं है। पहले पन्ने पर यह जरूर बताया गया है कि खबर प्रधानमंत्री कार्यालय के बयान पर आधारित है और खबर लखनऊ डेटलाइन से है। हमलोगों के समय सामान्य तौर पर ऐसी खबरों की डेटलाइन नई दिल्ली ही होती थी। प्रधानमंत्री अब पत्रकारों को अपने साथ नहीं ले जाते हैं। पहले ले जाते थे तो लौटकर भी हम वही डेटलाइन लखनऊ लिखते। लेकिन बयान दिल्ली में जारी हुआ तो खबर लखनऊ डेटलाइन से क्यों? और अगर डेटलाइन लखनऊ ही हो तो प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी बताने का क्या मतलब? अगर विज्ञप्ति में लखनऊ लिखा भी हो तो संपादन का क्या मतलब हुआ? कहने का मतलब है कि यह खबर नहीं प्रचार है। किसी बड़े संपादक के आदेश पर छपी है। छोटा मोटा उपसंपादक या प्रशिक्षु ऐसे खेल नहीं कर सकता है या पकड़ने के लिए ही होता है।
इस मामले में असली खबर द टेलीग्राफ में छपी है। सिंगल कॉलम में छपी इस खबर का शीर्षक है, “मंदिर ट्रस्ट मोदी के वर्चुअल कमरे में हाथी है।” लखनऊ डेटलाइन से पीयूष श्रीवास्तव की खबर इस प्रकार है, “अयोध्या पर शनिवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वर्चुअल मीटिंग (इंडियन एक्सप्रेस में नहीं लिखा है) में श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट शामिल नहीं था।” अयोध्या पर बैठक हो और उसमें श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ने क्या कहा उससे क्या पूछा गया या नहीं पूछा गया। यही तो खबर होनी थी। लेकिन हेडलाइन मैनेजमेंट वाले प्रचारकों का मकसद कुछ और था जो विज्ञप्ति में साफ है और इंडियन एक्सप्रेस ने वही किया है जबकि टेलीग्राफ ने पहले ही बता दिया है कि बैठक हवा-हवाई यानी ‘वर्चुअल’ थी और उसमें भी ट्रस्ट शामिल ही नहीं था। लोग पत्रकारों को अच्छा बुरा कहते हैं पर मुझे लगता है कि पत्रकार संस्थान में ही अच्छे या बुरे हो जाते हैं। हालांकि यह अलग मुद्दा है। टेलीग्राफ ने बताया है कि बैठक से एक दिन पहले शहर के साधुओं ने मोदी से मांग की थी कि मोदी भूमि घोटाले के आरोपों को स्पष्ट करें। लेकिन बैठक कहां हुई और मुद्दा कहां रह गया यह आप समझिए। दूसरे अखबार देख सकते हैं तो शीर्षक का मजा जरूर लीजिए।
इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर ईडी के हवाले से खबर है कि मुंबई के बार मालिकों ने राज्य के पूर्व गृहमंत्री अनिल देशमुख के ट्रस्ट को 4 करोड़ रुपए दिए। कहने की जरूरत नहीं है कि यह देशमुख को बदनाम करने के अभियान का हिस्सा है (सच हो तो भी और वसूली करने वाले देशमुख अकेले नहीं होंगे)। इस सरकार ने ट्रस्ट और शेल फर्मों पर इतनी सख्ती कर रखी है कि ढेरों ट्रस्ट तथा हजारों शेल फर्में बंद हो चुकी हैं। यहां तक कि टाटा समूह ने भी अपने ट्रस्ट बंद करने की घोषणा कर दी थी। ऐसे में देशमुख के ट्रस्ट और उसे भुगतान करने के लिए ‘बार मालिकों की शेल फर्में’ कैसे चल रही थीं? खबर तो इस बारे में होनी चाहिए पर इंडियन एक्सप्रेस के ‘जर्नलिज्म ऑफ करेज’ की परिभाषा बदल गई है और इतवार को यह मास्ट हेड का हिस्सा भी नहीं होता है। ऐसे में यह बताने की जरूरत नहीं है कि पीएम केयर्स भी ट्रस्ट ही है और अगर ट्रस्ट में पैसे लेना अनिल देशमुख के लिए गलत है तो प्रधानमंत्री और उनके वरिष्ठ सहयोगियों के लिए कैसे ठीक हो सकता है। या ठीक है तो बताया क्यों नहीं जाना चाहिए। दिलचस्प यह है कि देशमुख ईडी के समन के बावजूद पूछताछ के लिए उपस्थित नहीं हुए। यह खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में है।
फ्लाईओवर की मौजूदगी और सिर्फ प्रधानमंत्री की पसंद होने के कारण राष्ट्रपति बने “आम आदमी” के विशेष ट्रेन में चलने के शौक (या औपचारिकता) ने कानपुर जैसे शहर में 45 मिनट से ज्यादा ट्रैफिक रोक दिया गया और इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन, कानपुर चैप्टर की महिला विंग की अध्यक्ष वंदना मिश्र की राजकीय हत्या हो गई। वैसे तो इसके लिए अफसोस जताया गया है लेकिन आज के समय में जब इसी सरकार ने एम्बुलेंस का रास्ता रोकने पर जुर्माना बढ़ाकर 10,000 रुपए कर दिया है, ट्रैफिक रोकने का क्या मतलब है। कहने की जरूरत नहीं है कि खबरों के कारण वंदना मिश्र को कल घर से अस्पताल की बीस मिनट की दूरी तय करने में दो घंटे लगे जो राष्ट्रपति के दिखावटी सम्मान के कारण तय ही नहीं हो पाई। आज के अखबारों में यह खबर लीड नहीं है।
अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली की ऑक्सीजन की जरूरत बढ़ाकर बताई – इस आशय के प्रचार और आरोप के बाद एम्स के डायरेक्टर डॉ. रंदीप गुलेरिया ने कह दिया कि मांग का सामान्यीकरण नहीं किया जाना तो यह खबर सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया में लीड है। दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर जरूरी है लेकिन वह नहीं है जो अरविन्द केजरीवाल ने इस आरोप के जवाब में कहा या कहते रहे हैं। बहुप्रचारित गुपकर गैंग से बातचीत का मुख्य मुद्दा था परिसीमन और चुनाव। उसके बारे में उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि परिसीमन और राज्य का दर्जा चुनाव से पहले बहाल किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि केंद्र की टाइमलाइन स्वीकार्य नहीं है। यह खबर द हिन्दू में पहले पन्ने पर है लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।