कभी पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है, यह बात शनिवार को इंडियन एक्सप्रेस सहित कई अखबारों में छपी यूजीसी की ऑडिट रिपोर्ट की खबर से सामने आ चुकी है। यह ख़बर विश्वविद्यालय में 13 नवंबर से 15 नवंबर के बीच मानव संसाधन मंत्रालय की सिफारिश पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा गठित छह व्यक्तियों की एक टीम की जांच पर आधारित है। ऑडिट रिपोर्ट तमाम किस्म की गड़बडि़यों को उजागर करते हुए भी कुलपति रतन लाल हंगलू को व्यक्तिगत रूप से दोषी नहीं मानती है।
इंडियन एक्सप्रेस की खबर कहती है, ”कथित वित्तीय, अकादमिक और प्रशासनिक अनियमितताओं के चलते जहां कुलपति आरएल हंगलू एचआरडी मंत्रालय के निशाने पर हैं, वहीं यह रिपोर्ट हालांकि उन्हें इसका जिम्मेदार नहीं ठहराती। वास्तव में रिपोर्ट कहती है कि कुछ पुराने ”अवकाश प्राप्त एक्टिविस्ट प्रोफेसरों का एक समूह” कुलपति के काम में अड़ंगा डालने की जबरन कोशिश कर रहा है।” इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पतन का अहम सूत्र इस एक वाक्य में छुपा है।
अगर थोड़ा पीछे जाकर कुलपति द्वारा केंद्र से किए पत्राचारों को देखें, तो हम पाते हैं कि रतन लाल हंगलू के दिसंबर 2015 में पद संभालने से पहले ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार में आंकठ डूब चुका था। अपने पिछले बयानों में हंगलू लगातार यह बात दुहराते रहे हैं कि उनके अपने कार्यकाल में कोई वित्तीय गड़बड़ी नहीं हुई है, सब पहले का है। वे प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति और सीएजी (महालेखा नियंत्रक और परीक्षक) तक तमाम लोगों को इससे काफी पहले आगाह कर चुके थे, लेकिन इस जांच को लगातार टाला गया और परदे के पीछे कुछ और ही पकता रहा। जो कुलपति खुद अनियमितताओं की जांच की सिफारिश सरकार से करता रहा, उसी के खिलाफ मानव संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रपति से एक नहीं दो बार जांच की सिफारिश कर दी।
आज हंगलू को कुलपति बने दो साल पूरे हो रहे हैं। बीते दो साल की कहानी बेहद दिलचस्प है। हंगलू को जहां इलाहाबाद विश्वविद्यालय की सफ़ाई की चिंता सताती रही, वहीं केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय विश्वविद्यालय से इस कुलपति को ही साफ़ करने की मुहिम में जुटा रहा। हंगलू की चिट्ठियों से किसी के हित को चोट पहुंच रही थी? कौन नहीं चाहता था कि 2005 में केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद से यहां हुई गड़बडि़यों को सामने लाया जाए? क्या ये वही ”अवकाश प्राप्त एक्टिविस्ट प्रोफेसरों का एक समूह” था, जिसका जि़क्र यूजीसी की रिपोर्ट करती है? मुट्ठी भर पुराने प्रोफेसर इतने ताकतवर कैसे हो सकते हैं कि कुलपति के खिलाफ मंत्रालय को भड़का दें? छात्रों के कल्याण के नाम पर वे कौन लोग थे जो इलाहाबाद की दीवारों पर कुलपति को देशद्रोही घोषित करने में जुटे थे?
”अवकाश प्राप्त एक्टिविस्ट प्रोफेसरों का एक समूह” कह कर यूजीसी की ऑडिट रिपोर्ट क्या मामले को समेटने और वास्तव में कुछ दूसरे लोगों को बचाने की कोशिश कर रही है? एक कुलपति अपने विश्वविद्यालय का प्रशासनिक संरक्षक होता है। अनियमितताओं के लिए अलग से उसे ”जिम्मेदार नहीं ठहराने” की बात कहने का क्या कोई ‘ऑपरेटिव’ मतलब वास्तव में बनता है? कहीं यह वाक्य केंद्र सरकार का एक ”डिसक्लेमर” तो नहीं, कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे?
हालिया घटनाक्रम
बीते 19 दिसंबर को इलाहाबाद टीचर्स यूनियन ने कुलपति हंगलू के समर्थन में एक मार्च निकाला। मार्च में करीब 500 प्रोफेसर शामिल थे। इन शिक्षकों का कहना था कि पिछले कुछ दिनों से बेवजह कुलपति को परेशान किया जा रहा है। कुलपति के खिलाफ कुछ लोग दिल्ली में अफवाह फैला रहे हैं। विश्वविद्यालय से जुड़े कॉलेज के शिक्षक भी इस मार्च में शामिल हुए। अगले ही दिन छात्रों ने यूनियन हॉल गेट से बालसन चौराहे तक कुलपति के समर्थन में कैंडिल मार्च निकाला और बिलकुल वही आरोप दोहराए जो शिक्षकों ने किन्हीं ”अराजक तत्वों” पर लगाए थे। आखिर कौन हैं वे ”अराजक तत्व” जो कुलपति के लिए सिरदर्द बने हुए हैं और जिनके खिलाफ शिक्षक और छात्र एकजुट हो गए हैं? जिन्हें यूजीसी की ऑडिट रिपोर्ट ”पुराने अवकाश प्राप्त एक्टिविस्ट प्रोफेसरों” का एक समूह कहती है, कहीं वे ही तो नहीं है जो कुलपति हंगलू के पीछे पड़े हैं? कहानी के दो आयाम हैं।
कुलपति के समर्थन में मार्च निकालने वाले शिक्षकों में शामिल इलाहाबाद विश्वविद्यालय संघटक महाविद्यालय शिक्षक संघ (आक्टा) के अध्यक्ष डॉ. सुनीलकांत मिश्र कुलपति के उठाए तरक्कीपसंद कदमों को गिनाते हुए शिकायत करते हैं कि कुलपति पिछले छह माह से एचआरडी मंत्री से दिल्ली में मिलने का वक्त मांग रहे हैं लेकिन उन्हें समय नहीं दिया जा रहा है। यह गंभीर बात है क्योंकि यूजीसी की ऑडिट टीम के अतिरिक्त एचआरडी मंत्रालय खुद यहां जांच के लिए नवंबर में एक टीम भेज चुका है। अगर मंत्रालय जांच टीम भेज सकता है, तो मंत्री को कुलपति से मिलकर बात करने में क्या दिक्कत है?
दूसरा सवाल शिक्षकों और छात्रों के मार्च के खिलाफ बयान देने वाले छात्र संघर्ष संयुक्त मोर्चा नाम के एक संगठन की कार्रवाइयों से पैदा होता है। जिस दिन शिक्षकों ने कुलपति के समर्थन में मार्च निकाला, इस मोर्चे के छात्रों ने मार्च में शामिल शिक्षकों को फूल देकर कुलपति का साथ न देने का आग्रह किया। स्थानीय अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक इस मोर्चे के एक छात्र नेता ने कहा कि मार्च में शामिल शिक्षकों के बारे में मंत्रालय को जानकारी भेज दी गई है। ठीक इसी तरह 21 दिसंबर को छात्रों के मार्च के दिन इस मोर्चे ने इस मार्च के खिलाफ एक ”बुद्धि-शुद्धि यज्ञ” करवाया। स्थानीय अखबारों ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता का बयान छापा है कि अगर सरकार कुछ दिनों में कार्यवाही नहीं करती है तो विवि में कुलपति के खिलाफ आंदोलन होगा। इन छात्र नेताओं ने राष्ट्रपति से उन शिक्षकों की शिकायत की है जो मार्च में शामिल हुए थे।
कुलपति के समर्थन में निकली इन दो पदयात्राओं से पूर्व बीते 13 दिसंबर को हंगलू के ऊपर कुछ छात्रों ने हमला किया था और गाली-गलौज की थी। जो छात्र इसमें शामिल थे उन्हें कोर्ट ने पिछले साल ऐसी ही अराजकताओं का दोषी पाया था। विश्वविद्यालय के पुराने छात्रों के मुताबिक इन छात्रों के सिर पर कुछ रिटायर हो चुके प्रोफेसरों का हाथ हैं। इन प्रोफेसरों के ऊपर यूजीसी के फंड से लाखों रुपये गबन करने का आरोप है, जिसका जि़क्र नाम सहित कुलपति ने प्रधानमंत्री मोदी को लिखे पत्र में किया था। आरोप है कि ये प्रोफेसर भाजपा नेता मुरली मोहर जोशी, आरएसएस के कृष्ण गोपाल और केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के साथ नियमित संपर्क में रहते हैं और उन्हें फीडबैक देते हैं। कुलपति विरोधी इसी समूह में एक अदृश्य शख्स का नाम बार-बार आता है, जो आजकल एनसीईआरटी, दिल्ली में डेपुटेशन पर तैनात है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जो कुछ ज़ाहिर है, उससे कहीं ज्यादा परदे के पीछे है। बीएचयू में भी ऐसा ही था, जो पूर्व कुलपति जीसी त्रिपाठी के हटने के बाद भी पूरी तरह नहीं खुल सका है। जो प्रत्यक्ष है, अभी हम उसी पर बात करेंगे।
उपर्युक्त हालिया घटनाक्रम (13 दिसंबर 2017 से लेकर अबतक) से पहली बात यह साफ़ होती है कि यूजीसी की ऑडिट रिपोर्ट जिन ”अवकाश प्राप्त एक्टिविस्ट प्रोफेसरों के समूह” का जिक्र करती है, कुलपति-विरोध में उन्हें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और छात्र संघर्ष मोर्चे का समर्थन प्राप्त है। मोटी कहानी यह बनती है कि भारतीय जनता पार्टी और संघ के करीबी कुछ पुराने प्रोफेसर, एबीवीपी, मोर्चा और भ्रष्टाचार के कुछ अन्य लाभार्थी मिलकर नहीं चाहते कि हंगलू कुलपति बने रहें। इलाहाबाद विवि की राजनीति में मुरली मनोहर जोशी की हैसियत का अंदाजा किसे नहीं है। ये लोग उनके माध्यम से दिल्ली के ऊंचे पदों तक अपनी पहुंच रखते हैं और केंद्रीय मंत्री तक को प्रभावित करते हैं। यह बात विश्वविद्यालय से जुड़े कई लोग खुलेआम कहते रहे हैं। यह स्थिति आखिर कैसे बनी? दो साल के भीतर हंगलू इतने सारे विविध लोगों के निशाने पर कैसे आ गए?
हंगलू को लेकर केंद्र की तल्खी पुरानी है, जब तत्कालीन एचआरडी मंत्री स्मृति ईरानी के कार्यकाल में हंगलू ने विश्वविद्यालय में ”राजनीतिक हस्तक्षेप” का मुद्दा उठाया था और अचानक विवादों में घिर गए थे। बाद में हालांकि दबाव में आने पर उन्हें अपनी यह बात राज्यसभा अध्यक्ष को एक पत्र लिखकर वापस लेनी पड़ी थी।
हंगलू ने 2016 में प्रवेश परीक्षा की पूरी प्रक्रिया को ऑनलाइन कर दिया था जिसके बाद उनसे इसे ऑफलाइन करने को कहा गया। इस पर हंगलू ने बयान दिया था, ”अगर राजनेता ऐसे ही दखल देते रहे तो हमें यहां से जाना पड़ेगा। सरकार फिर अपनी मर्जी से युनिवर्सिटी को चला सकती है। फिर वो चाहे तो अकादमिकों की जगह विधायकों या सांसदों को कुलपति बना सकती है।”
इस बयान पर काफी विवाद हुआ था और हंगलू केंद्र के निशाने पर आ गए थे। विवाद के दौरान उन्होंने एनडीटीवी को दिए एक साक्षात्कार में साफ़ कहा था कि उन्हें आरएसएस के लोगों, बीजेपी के स्थानीय नेताओं और समाजवादी पार्टी समेत कुछ अन्य ऐसे लोगों से धमकी मिली है जो ऑनलाइन प्रवेश परीक्षा के खिलाफ धरनारत छात्रों के समर्थन में हैं। हंगलू ने ऑनलाइन का फैसला बाद में वापस ले लिया, तो धरना खत्म हो गया लेकिन विवादों के साथ उनका रिश्ता बना रहा। इस तरह कुलपति बनने के छह माह के भीतर ही उनके विरोधी और समर्थक गुटों के बीच विभाजक रेखा परिसर में खिंच चुकी थी, जिसे आज सडकों पर खुलेआम देखा जा रहा है।
कुलपति या सचेतक?
हंगलू ने 31 जुलाई 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक विस्तृत पत्र लिखा। पत्र संख्या 136(1)/वीसी-2017 में हंगलू ने विश्वविद्यालय की ज़मीनी हकीकत के बारे में प्रधानमंत्री को बताते हुए कुछ ज़रूरी बिंदु गिनाए थे:
- प्राथमिक जांच में उन्होंने पाया कि उनके यहां कुलपति पद पर आने से पहले शिक्षक/गैर-शिक्षक पदों पर एडवांस के बतौर 35 करोड़ रुपया विश्विद्यालय की ओर बकाया है जिसका भुगतान नहीं हुआ था (अनुलग्नक 1)।
- यह भी पाया गया कि वेतन और अन्य मद में 912.11 लाख रुपये से ज्यादा का घाटा चल रहा है। यह घाटा इसलिए हुआ क्योंकि विश्वविद्यालय का फंड इंस्टिट्यूट ऑफ करेस्पॉन्डेंस कोर्स एंड कन्टीन्यूइंग एजुकेशन को लोन के बतौर वेतन देने के लिए हस्तांतरित किया गया, जो कि वित्तीय नियमों का खुला उल्लंघन है क्योंकि ऐसे संस्थान और उसके कर्मचारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अभिन्न अंग नहीं हैं (अनुलग्नक 2)।
- कुछ ऐसे प्रोफेसर हैं जिन्हें यूजीसी की परियोजनाओं के तहत अनुदान मिला था और जिन्होंने न तो परियोजना और न ही फंड के बजट के बारे में कोई रिपोर्ट जमा की। हंगलू ऐसे प्रोफेसरों का नाम भी बताते हैं और इनके द्वारा किए गए कुकृत्यों का विस्तार से खुलासा अनुलग्नक 3 में करते हैं।
- हंगलू ने अनुलग्नक 4 में युनिवर्सिटी के फंड में से 200 करोड़ से ज्यादा के अनुमानित घोटाले की बात प्रधानमंत्री को लिखी। उनके मुताबिक यह राशि अयोग्य शिक्षकों के वेतनमान में खर्च की गई जो नियमों का उल्लंघन है।
- अनुलग्नक 5 में वे अन्य मदों में अनावश्यक और अनियमित खर्चों का हवाला देते हैं, जो निजी हित में कुछ लोगों द्वारा अलग-अलग मदों में खर्च किए गए। यह राशि भी करोड़ों में है।
- अनुलग्नक 6 में एलटीसी के मद में 2012-13 से 2015-16 के बीच हवाई यात्राओं पर किए गए 78.28 लाख के खर्च का जि़क्र है।
हंगलू ने प्रधानमंत्री को बताया कि वे इन सब गड़बडि़यों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन ‘फर्जी छात्र आंदोलन’ खड़ा कर के तथा ”मानव संसाधन मंत्रालय को निराधार व फर्जी शिकायतें” भेजकर उनके काम में अड़ंगा डाला जा रहा है। वे बताते हैं कि विश्वविद्यालय ने ऐसे तत्वों को उजागर करने के लिए तीन खण्डों में एक साक्ष्य रिपोर्ट तैयार की है ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि उनके खिलाफ़ की गईं तमाम शिकायतें बेबुनियाद हैं। वे प्रधानमंत्री को यह भी बताते हैं कि उन्होंने महालेखा परीक्षक और नियंत्रक (सीएजी) को एक पत्र लिखकर 2005 से विश्वविद्यालय का एक ट्रांजिट ऑडिट कराने की मांग की है।
प्रधानमंत्री से पहले 17.07.2017 को उन्होंने सीएजी को पत्र भेजा था। पत्र संख्या 123/वीसी-2017 में हंगलू ने सीएजी शशिकांत शर्मा से अनुरोध किया था कि 2005 में केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने से लेकर अब तक विश्वविद्यालय का एक ट्रांजीशनल ऑडिट किया जाए ताकि तंत्र में अखंडता, पारदर्शिता और ईमानदारी आ सके। कुलपति की इन शिकायतों को स्थानीय अखबारों में खूब कवरेज मिली थी।
क्लीन चिट के बाद
तत्कालीन एचआरडी मंत्री स्मृति ईरानी से बैर मोल लेने के बाद हंगलू के कई किस्म के दबाव पड़े, जिन्हें उनके उस वक्त लिए फैसलों में देखा जा सकता है। इसी का नतीजा रहा कि अक्टूबर 2016 में मानव संसाधन मंत्रालय ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पहली बार हंगलू की जांच कराने संबंधी एक सिफारिश भेजी, जिसे मंजूर कर लिया गया था। कुलपति को नोटिस भेजा गया जिसका उन्होंने विस्तृत जवाब दिया। इसके बाद मंत्रालय के अधिकारियों की जांच में हंगलू को क्लीन चिट दे दी गई थी। उस वक्त भी कुलपति लगातार एक ही बात कह रहे थे कि अगर उनके कार्यकाल में गड़बड़ी पाई गई तो उन्हें जो सज़ा दी जाएगी मंजूर होगी। ऐसा नहीं हुआ। कुलपति फरवरी 2017 में बेदाग होकर निकले।
इसके बाद ही यूजीसी की ऑडिट का फैसला लिया गया और रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने के बाद एक बार फिर से हंगलू के खिलाफ जांच की सिफारिश की गई, जिस पर 12 नवंबर को दिल्ली से टीम ने विश्वविद्यालय का दौरा किया। यह टीम जेल में बंद कुछ छात्रों से मिलने भी गई थी। ये अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्र थे। फेसबुक पर एबीवीपी के छात्रों की पोस्टों से पता चलता है कि उनका गुस्सा दरअसल संगठन के छात्रों के निष्कासन और जेल भेजे जाने को लेकर ही था। इन छात्रों के आक्रोश को कुछ पुराने लोग अपने स्वार्थ में हवा देने में जुटे थे।
हंगलू के कुलपति बनने के दो साल के भीतर पैदा हुई इस नाटकीय स्थिति के बीच यूजीसी की ऑडिट रिपोर्ट भले उनके लिए थोड़ा राहत लेकर आई हो, लेकिन छात्रों-शिक्षकों के बीच उन्हें लेकर पैदा हुआ ध्रुवीकरण अब भी उन ‘अराजक तत्वों’ को परिदृश्य से बाहर रखे हुए है जो बीते 12 साल में परिसर के पतन के लिए मुख्य जिम्मेदार हैं। सवाल उठता है कि यूजीसी की रिपोर्ट आ जाने के बाद क्या ”अवकाश प्राप्त एक्टिविस्ट प्रोफेसरों के समूह” और ”अराजक तत्वों” की अलग से जांच यह सरकार करेगी? क्या इन लोगों की पहचान की जाएगी या फिर बीएचयू की तर्ज पर परिसर को जलने के लिए छोड़ दिया जाएगा।
बीएचयू का अध्याय इस बात का गवाह है कि कुलपति तो चले गए लेकिन अपने पीछे एक सुलगता हुआ परिसर छोड़ गए। पिछले दिनों एक छात्र नेता को लेकर हुआ बवाल दिखाता है कि सही समय पर अगर ‘अराजक तत्वों’ की पहचान कर ली गई होती तो आज यह स्थिति न होती। जानने वाले जानते हैं कि बीएचयू में ऐसा कभी नहीं होना था क्योंकि मामला सीधे संघ से जुड़ा था। प्रो. जीसी त्रिपाठी जाते-जाते अपने फेयरवेल में साफ़ कह गए थे कि उनके ऊपर अयोग्य लोगों को रखने का दबाव था। सरकार ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि यह दबाव किसका था क्योंकि ऐसा कर के वह अपनी ही गरदन फंसा लेगी।
बीएचयू का ‘अराजक तत्वों’ वाला मॉडल हूबहू इलाहाबाद में भी काम कर रहा है। फ़र्क सिर्फ ये है कि बीएचयू में कुलपति त्रिपाठी ने ‘अराजक तत्वों’ का अपने हित में अपनी कारगुज़ारियों को छुपाने के लिए अंत तक इस्तेमाल किया और जाते-जाते सुलगते रहने के लिए छोड़ गए, जबकि इलाहाबाद में रतन लाल हंगलू ने पहले ही दिन इन लोगों की शिनाख्त कर ली और निशाने पर आ गए।