दिल्ली वि.वि का समारोह, पूर्व छात्र और प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि, पर ख़बर पहले पन्ने पर नहीं!

 

हेडलाइन मैनेजमेंट ने इसे मेट्रो की यात्रा बना दिया

ट्वीटर पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला भी पहले पन्ने पर नहीं है, लेकिन हालत इमरजेंसी में बुरी थी

 

दिल्ली विश्वविद्यालय के शताब्दी वर्ष के समापन समारोह का आयोजन शुक्रवार, 30 जून 2023 को ईद की छुट्टी रद्द करके किया गया था। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि थे जो दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र भी रहे हैं। पर विश्वविद्यालय जाने के लिए उन्होंने मेट्रो का सहारा लिया (जो उनके समय में नहीं था) और ‘खबर’ प्रधानमंत्री की मेट्रो यात्रा हो गई है। दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने की खबरों में शताब्दी वर्ष के समापन समारोह पर पूर्व छात्र के मुख्य अतिथि होने की खबर नहीं है, उनकी मेट्रो यात्रा की है। इसे कहते हैं हेडलाइन मैनेजमेंट और आज की पत्रकारिता जिसे मोदी सरकार के ही एक मंत्री का कहा मानें तो करने वाले प्रेस्टीट्यूट हैं। पर वह अलग मुद्दा है। खबर है कि इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने वर्चुअल रूप से तीन नए भवनों की नींव भी रखी। इस मौके पर यूनिवर्सिटी के मल्टीपर्पज हॉल के बेसमेंट में यूनिवर्सिटी के 100 वर्षों की यात्रा पर एक प्रदर्शनी भी रखी गई। आजतक डॉट इन की संबंधित खबर में नहीं बताया गया है कि प्रदर्शनी में प्रधानमंत्री के छात्र होने से संबंधित कोई जानकारी, विवरण आदि है कि नहीं। 

खबर इस प्रकार है, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शताब्दी समारोह के संबोधन में कहा कि कोई इंसान हो या संस्थान, जब उसके संकल्प देश के लिए होते हैं, तो उसकी सफलता भी देश की सफलताओं से कदम मिलाकर चलती है। उन्होंने कहा कि श‍िक्षण संस्थान की जड़ें जितनी गहरी होती हैं, देश की शाखाएं उतनी ऊंचाइयों को छूती हैं। पीएम मोदी ने आगे कहा कि शिक्षा सिर्फ सिखाने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि ये सीखने की भी प्रक्रिया है। लंबे समय तक श‍िक्षा का फोकस इसी बात पर रहा कि छात्रों को क्या पढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन हमने फोकस इस बात पर भी श‍िफ्ट किया कि छात्र क्या सीखना चाहते हैं।” इससे आप समझ सकते हैं कि खबर अखबारों में पहले पन्ने पर क्यों नहीं है। आगे खबर इस प्रकार है, “उन्होंने कहा कि यहां बैठे दिग्गजों को देख लो तो पता चलता है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी ने देश को क्या दिया है। मुझे अनुमान था कि यहां जाऊंगा तो सब पुराने साथ‍ियों से मिलने का अवसर जरूर मिलेगा और मिल रहा है। …. ” 

इस मौके पर द टेलीग्राफ में फिरोज एल विनसेन्ट ने अपनी खबर, “प्रधानमंत्री ट्रेन में पुलिसिये गेट पर” में बताया है, “14 नवंबर 2005 : मनमोहन सिंह को जेएनयू में छात्रों के विरोध का सामना करना पड़ा। तत्कालीन प्रधान मंत्री वोल्टेयर को उद्धृत करते हैं: ‘आप जो कहना चाहते हैं उससे मैं असहमत हो सकता हूं, लेकिन मैं यह कहने के आपके अधिकार की रक्षा मरते दम तक करूंगा।’ बाद में, जब प्रशासन ने छात्रों से माफी मांगने को कहा, तो सिंह ने कुलपति से अनुरोध किया: ‘कृपया नरम रहें, सर।’ 30 जून, 2023: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शताब्दी समारोह में शामिल होने से एक दिन पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा नीतियों और रोजगार पर सवाल पूछने वाले पोस्टर लगे। शुक्रवार को, जब मोदी मेट्रो ट्रेन से विश्वविद्यालय जा रहे थे, छात्र नेता अभिज्ञान और अंजलि शर्मा का कहना है कि उन्होंने खुद को एक तरह से घर में नजरबंद पाया और पुलिस ने घोषणा की कि वे “संदेह के घेरे” में हैं।” सिर्फ इसलिए कि उसने पोस्टर लगाये थे जिनपर लिखा था, हमारे कॉलेजों में हर साल फीस क्यों बढ़ रही है? हमें उन पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने के लिए क्यों मजबूर किया जाता है जिन्हें हमने नहीं चुना? सरकार ने शिक्षा के लिए फंडिंग में कटौती क्यों की है? बेरोज़गारी दर बढ़कर 8.1 प्रतिशत क्यों हो गई है? वर्षों तक हमें पढ़ाने वाले हमारे शिक्षकों को विश्वविद्यालय से बाहर क्यों निकाला जा रहा है?

एक तरफ तो प्रधानमंत्री की सुरक्षा में दोनों छात्र “संदेह के घेरे” में थे (और खबर लगभग नहीं है) दूसरी ओर इसी शताब्दी समारोह में अपने भाषण में, “केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने घोषणा की कि जब आपातकाल लगाया गया और नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए, इसके खिलाफ पहली आवाज डीयू से आई। डीयू ने स्वतंत्रता के लिए दूसरा संघर्ष लड़ा।” डीयू की असहमति की परंपरा को ध्यान में रखते हुए, अभिज्ञान और अंजलि ने गुरुवार को परिसर में प्रधानमंत्री से सवालों के साथ पोस्टर चिपकाए थे। अबकी हालत पर अभिज्ञान ने पूछा, “क्या ये सवाल इतने ख़तरनाक हैं कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए छात्रों को उनके घरों में नज़रबंद करने की ज़रूरत है?” अभिज्ञान सीपीआईएमएल – लिबरेशन के ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष हैं और अंजलि संगठन की दिल्ली विश्वविद्यालय की सचिव। इनलोगों को दिनभर नजरबंद रहना पड़ा जबकि आइसा ने शुक्रवार को किसी विरोध प्रदर्शन का आह्वान नहीं किया था। फिर भी यह स्थिति है और घोषित तौर पर इमरजेंसी नहीं लगाये जाने के बावजूद है। 

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार के दूसरे लोग या कांग्रेस के विरोधी इमरजेंसी के खिलाफ बोलने का कोई मौका नहीं चूकते हैं। वह भी तब जब वह नियमानुसार जरूरत समझ कर लगाया गया था और वापस ले लिया गया। सरकार का विरोध करने वाले कितने सतही थे यह उन्हें सत्ता मिलने के बाद पता चल गया और वे पांच साल सरकार नहीं चला सके। वही विपक्ष अब किसी तरह एकजुट होकर सत्ता में है तो सत्ता जो कर रही है उसपर कोई टीका-टिप्पणी नहीं हो रही है ना हो सकती है। बेशक इमरजेंसी के बारे में मेरा यह आकलन गलत हो सकता है पर क्या उस गलती से अलग है जो नोटबंदी के रूप में की गई थी या इससे नुकसान कम हुआ? इंदिरा गांधी जितनी बुरी रही हों, उनके खिलाफ अदालत का फैसला आया था और इमरजेंसी का भी विरोध हुआ। अभी आप प्रधानमंत्री से सवाल पूछने वालों का हश्र देख रहे हैं भले वो राहुल गांधी हों या अभिज्ञान। फिर भी मुद्दा वह नहीं है। मेरे लिये मुद्दा है अखबारों में खबरों की प्रस्तुति। कहने की जरूरत नहीं है कि अखबार हेडलाइन मैनेजमेंट में शामिल हैं और सरकार सब पर किसी भी तरह नियंत्रण करने में। इसमें उसे अदालतों का भी सहयोग मिलता लग रहा है। हालांकि, कानून की समझ और जानकारी मुझे नहीं है पर अखबारों में जो छपता है वही नागरिकों को पता चलता है और मुझे भी उन्हीं खबरों से पता चल रहा है कि इमरजेंसी का विरोध तो हो सकता था पर इस सरकार का विरोध नहीं हो सकता है। 

भारत की मुख्यधारा की मीडिया विज्ञापनों के लिए या दूसरे कारणों से सरकार की शरण में हैं लेकिन जो नहीं है उसे नियंत्रण में करने की बेशर्म कोशिशें और सहयोग साफ दिख रहे हैं। आइये आज ट्वीटर के मामले की चर्चा करते हैं और इसी बहाने स्थिति की तुलना लगभग 50 साल पुरानी इमरजेंसी से करते हैं जिसे भाजपा के लोग भूल नहीं पा रहे हैं या भूलना ही नहीं चाहते हैं। आज टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर एक खबर है, कर्नाटक हाईकोर्ट ने ट्वीटर की याचिका खारिज की, 50 लाख का खर्च भी लगाया। यह एक बड़ी और महत्वपूर्ण खबर है लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया के अलावा मुझे सिर्फ अमर उजाला में पहले पन्ने पर दिखी। यहां इसका मुख्य शीर्षक है, सरकार के कहने पर हटाने ही होंगे ट्वीट और खाते। इसके साथ केंद्रीय मंत्री और संघ परिवार ही नहीं सरकार के भी प्रचारक, अश्विनी वैष्णव का पक्ष भी छापा गया है जो उनका ट्वीट ही है। निष्पक्षता का तकाजा था कि इसपर ट्वीटर का पक्ष छापा जाता जो फैसले के खिलाफ नहीं हो सकता था फिर भी ट्वीटर का पक्ष तो बताता या ट्वीटर के किसी उपयोगकर्ता का पक्ष बताया जाना चाहिए था। 

ट्वीटर का महत्व और उसपर सरकार का नियंत्रण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि केंद्रीय मंत्री जो भी बोलते हैं वह छप जाता है और वह गलत भी होता है। उदाहरण के लिए आज नवोदय टाइम्स की एक खबर का शीर्षक है, “राहुल पीएम बनते हैं तो भ्रष्टाचार बन जाएगा देश की नियति : (अमित) शाह”। कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस की ओर से ऐसा कोई कह नहीं सकता है, कहेगा तो छपेगा नहीं और विज्ञापन के रूप में छपा है तो उसपर मुकदमा है जबकि अमित शाह कर्नाटक चुनाव से पहले भी कांग्रेस के खिलाफ निराधार बयान दे चुके हैं। मैं इस पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया या प्रतिक्रिया नहीं करने की चर्चा नहीं करूंगा। पर मेरी चिन्ता है कि सरकार प्रचार के सभी साधनों पर अपना एकाधिकार क्यों चाहती है। यही इमरजेंसी में हुआ था, नियमानुसार कोशिश हुई थी तो उसका विरोध हुआ था और अभी विरोध को गलत ठहराया जा रहा है। 

मुकदमा करने वाले पर जुर्माना और डरावना है। इमरजेंसी के दिनों में ऐसा मुझे याद नहीं है और बाद के समय में अदालतें स्वमेव मामले लेती थीं जो पिछले 10 साल में सुना नहीं गया। ऐसे में ट्वीटर तो जुर्माना या मुकदमे का खर्चा झेल भी ले आम आदमी तो वकील की फीस मुश्किल से देता है जुर्माना भरने का डर हो जाए तो अदालत जाने से ही डरेगा। यह स्थिति इमरजेंसी के समय नहीं थी। इसलिए अभी की स्थिति मुझे इमरजेंसी से बुरी लगती है। आइये ट्वीटर के मामले में जो फैसला आया है उससे संबंधित खबर की चर्चा करें। मैं फैसले के गुण-दोष के बारे में नहीं जानता पर इमरजेंसी से उसकी तुलना भर कर रहा हूं। इसके लिए आइए पहले समझें कि मामला क्या है?        

  1. सरकार ने फरवरी 2021 से फरवरी 2022 के बीच ट्वीटर को 1,474 अकांउट, 175 ट्वीट, 256 यूआरएल और एक हैशटैग ब्लॉक करने के आदेश दिए थे। सरकार ने यह आदेश इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के सेक्शन 69 ए के तहत दिए थे।
  2. सरकार ने पिछले साल 4 और 6 जून को ट्वीटर को नोटिस जारी कर पूछा था कि ब्लॉकिंग से जुड़े आदेशों का पालन क्यों नहीं किया गया है। ट्विटर ने 9 जून को जवाब दिया था कि जिन कंटेंट के खिलाफ सरकार के आदेशों का पालन नहीं किया गया है, उनके लिए ट्विटर को लगता है कि वे सेक्शन 69ए का उल्लंघन नहीं करते हैं। 
  3. 27 जून को मिनिस्ट्री ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी ने ट्विटर को नोटिस भेजकर कहा कि केंद्र सरकार के आदेश न मानने पर कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
  4. ट्विटर ने 39 यूआरएल को ब्लॉक करने के सरकार के 10 आदेशों को कोर्ट में चुनौती दी। 26 जुलाई, 2022 को जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित की सिंगल जज बेंच ने इस पर पहली बार सुनवाई की। इसके बाद केंद्र सरकार और ट्विटर दोनों ने कोर्ट के सामने अपना पक्ष रखा।
  5. हाईकोर्ट ने इस साल 21 अप्रैल को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। 30 जून को फैसला सुनाया और 45 दिन के अंदर जुर्माना जमा करने के लिए कहा।

इस पूरे मामले में मोटे तौर पर मेरा मानना है कि अगर कोई ट्वीट, अकाउंट, यूआरएल या हैशटैग आपत्तिजनक है तो सरकार को कार्रवाई जरूर करनी चाहिए। लेकिन अपने लिए अपनी जरूरत के अनुसार कार्रवाई सरकार को ही करनी चाहिए। ट्वीटर को स्वतंत्र रूप से काम करने की छूट देनी चाहिए जैसे अखबारों और संपादकों को दिया जाता है। इस तरह अखबार में छपी हुई खबर को हटाने के लिए नहीं कहा जा सकता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि अपराध नहीं हुआ है। अपराधी को सजा की जरूरत नहीं है। सजा तब भी होनी चाहिए। सरकार अदालत में शिकायत करे, आदेश ट्वीटर को भेजे और ट्वीटर उसका पालन करेगा। सरकार और अदालत में फर्क है। सरकार को अदालत का काम नहीं करना चाहिए और अदालत को भी अपना काम सरकार के जिम्मे नहीं सौंपना चाहिए। हो सकता है मैं गलत होऊं लेकिन ऐसी चाहत वाली सरकार इमरजेंसी का विरोध कैसे कर रही है – इमरजेंसी तो खास स्थिति में खास समय के लिए लगी थी। सरकार ऐसा सामान्य तौर पर चाहती है और बीबीसी का मामला उदाहरण है उसे दूसरे कानूनों से परेशान किया गया। भले उसने इस मामले में भी अपराध किया हो लेकिन साफ है कि मामला गुजरात पर फिल्म के कारण उठा जबकि सरकार कश्मीर फाइल्स और दि केरला स्टोरी का प्रचार करती रही है। 

यह अधिकारों का दुरुपयोग नहीं हुआ? दूसरी ओर, आपत्तिजनक, सांप्रदायिक, झूठ या भ्रामक ट्वीट अगर अपराध है और ट्वीटर ने कार्रवाई नहीं की तो सरकार ने क्यों नहीं की? वैसे भी, ऐसे ट्वीट को हटा देना पर्याप्त नहीं है उसके खिलाफ कार्रवाई तो पुलिस करेगी उस बारे में सरकार क्यों नहीं कुछ कर रही है या अदालत पूछ रही है? इस मामले में सरकार की साख और खबर की बात करूं तो एक खबर का शीर्षक है, “ट्वीटर के पूर्व सीईओ ने कहा, किसान आंदोलन के दौरान उसपर छापे पड़े, गिरफ्तारी की धमकी दी; आईटी मंत्री ने कहा सरासर झूठ”। क्या यह यकीन करने वाली बात है? मंत्री की साख ऐसी है? पहले की खबरों से क्या आरोपों की पुष्टि नहीं होती है। इन सबके अलावा, अगर ट्वीटर सरकार की बात नहीं मान रहा है या नियंत्रण में नहीं है और नियंत्रण में होना जायज है तो सरकार उसे भारत में धंधा क्यों करने दे रही है? उसे बोरिया बिस्तर समेटने के लिए मजबूर क्यों नहीं किया जा रहा है? जाहिर है, उसका रहना सरकार के हित में है और वह चाहती है कि उसके होने का अधिकतम लाभ उठाया जाए। ऐसे में अदालत के आदेश की ये खास बातें क्या फैसले पर ऊंगली उठाती नहीं लगती हैं?    

फैसले की खास बातें 

  1. जुर्माना 45 दिन के भीतर भरना होगा। अगर नहीं भरा तो इसके बाद हर दिन 5 हजार और देने होंगे।
  2. अदालत को वजह भी नहीं बताई कि केंद्र का ट्वीट ब्लॉक करने का आदेश क्यों नहीं माना।
  3. आप एक मल्टी बिलेनियर कंपनी हो, कोई किसान या फिर आम आदमी नहीं, जिसे कानून नहीं पता हैं।
  4. ट्विटर ने सरकार के आदेशों का पालन नहीं किया।
  5. आदेश नहीं मानने पर सात साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान फाइन लगाया जा सकता है। 
  6. जिसका ट्वीट ब्लॉक कर रहे हैं, उसे कारण बताएं। 
  7. यह भी कि यह प्रतिबंध कुछ समय के लिए है या अनिश्चित काल के लिए।

मुझे लगता है कि भारत सरकार का आदेश तर्कसंगत हो तभी मानने का नियम होगा। कुछ भी आदेश कैसे माना जा सकता है और आदेश को चुनौती देने पर इतना भारी जुर्माना लगाने का मकसद क्या है? ट्वीट हटाने के पक्ष में ठोस कारण मांगना गुनाह तो नहीं हो सकता है और है तो जनहित में इसे दूर किया जाना चाहिए और नहीं हो रहा है तो यह इमरजेंसी से बुरी स्थिति नहीं हुई? वैसे भी ट्विटर ने हाईकोर्ट से कहा था- केंद्र के पास सोशल मीडिया पर अकाउंट ब्लॉक करने का जनरल ऑर्डर जारी करने का अधिकार नहीं है। ऐसे आदेशों में वजह भी बताई जानी चाहिए ताकि हम इसे यूजर्स को बता सकें। अगर ऑर्डर जारी करते वक्त वजह नहीं बताई जाती है तो इस बात की आशंका बनी रहती है कि बाद में कारण बनाए भी जा सकते हैं। मुझे नहीं लगता है कि ये तर्क इतने कमजोर हैं कि याचिका करने के लिए जुर्माना भी लगाया जाए। हालांकि मैं नहीं जानता कि कोई और कारण है कि नहीं। दूसरी ओर ट्वीटर ने दावा किया था कि सरकार के आदेश सेक्शन 69 ए का उल्लंघन करते हैं। सेक्शन 69 ए के तहत अकाउंट यूजर्स को उनके ट्वीट और अकाउंट ब्लॉक किए जाने पर जानकारी देनी होती है। लेकिन मंत्रालय ने उन्हें कोई नोटिस नहीं दिया।

इस पर केंद्र सरकार ने अदालत से कहा और पता नहीं उसे माना गया या नहीं कि, ट्वीटर अपने यूजर्स की तरफ से नहीं बोल सकता है। इस मामले में उसका कोर्ट में अपील दायर करने का कोई अधिकार नहीं बनता है। ट्वीट ब्लॉक करने का आदेश बिना विवेक के या एकतरफा तरीके से नहीं लिया गया था। राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए ट्विटर को ब्लॉक करने के आदेश दिए गए थे, जिससे लिंचिंग और मॉब वॉयलेंस की घटनाओं को रोका जा सके। ट्वीटर एक विदेशी कंपनी है और वह समानता और बोलने की आजादी के अधिकारों के आधार पर अपील दायर नहीं कर सकती है आदि। जरूरी नहीं है कि अदालत इन तर्कों को मान ले लेकिन इनसे केंद्र सरकार के रुख का पता तो चलता ही है। दूसरी ओर, ट्वीटर अपनी ओर से याचिका दायर कर यह तो कह ही सकता है कि उससे जबरन काम करवाया जा रहा है या जो काम करने के लिए कहा जा रहा वह तर्क संगत या कानून सम्मत नहीं है। इसके लिए जुर्माना लगाने का मतलब तो यही हुआ कि सरकार के आदेशों को चुनौती न दी जाए। यह इसलिए भी गंभीर है कि ट्वीटर के कार्रवाई न करने पर सरकार ने क्या किया यह पता ही नहीं है। फिर भी यह स्थिति इमरजेंसी जैसी नहीं है?   

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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