सिनेमा, राजनीति व समाज के जटिल अंतरसम्बन्धों को अपनी विचारोत्तेजक कृतियों में विश्लेषित करने वाले अध्येता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में प्राध्यापक रहे प्रो. फ़रीद काज़मी का कल 22 दिसम्बर को निधन हो गया। फ़रीद काज़मी सिनेमा के उन बिरले अध्येताओं में से थे, जिन्होंने विश्लेषण के लिए समांतर या आर्ट सिनेमा की जगह हमेशा ही लोकप्रिय (पॉप्युलर) या ‘कन्वेंशनल’ सिनेमा को चुना।
लोकप्रिय सिनेमा में प्रकट होने वाले वर्चस्वशाली राजनीतिक विमर्श, जेंडर सम्बन्धों और सेक्सुअलिटी, भारतीय सिनेमा में प्रस्तुत की जाने वाली अल्पसंख्यकों की छवियाँ, भारतीय सिनेमा में सेक्स और हिंसा की मौजूदगी को उन्होंने अपनी पुस्तकों में लगातार रेखांकित किया।
उनका आरम्भिक कार्य मानवाधिकार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उससे जुड़ी अवधारणाओं और मानवाधिकार के विविध आयामों से जुड़ा था। नब्बे के दशक में उन्होंने भारतीय सिनेमा के विभिन्न पक्षों पर गहराई से लिखना शुरू किया। उनकी रुचि उस सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ को समझने व विश्लेषित करने में थी, जिसमें लोकप्रिय भारतीय सिनेमा का निर्माण हो रहा था। उन सामाजिक दशाओं का अध्ययन, जिनमें लोकप्रिय सिनेमा का दर्शक इन फ़िल्मों को देख और आत्मसात कर रहा था।
इसी क्रम में उन्होंने ‘मुस्लिम सोशल’ कही जाने वाली फ़िल्मों के विश्लेषण के ज़रिए सिनेमा में मुस्लिम समाज व परिवार और विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के प्रस्तुतीकरण, उनसे जुड़ी रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के निर्माण की प्रक्रिया को रेखांकित किया।
अपने एक अन्य महत्त्वपूर्ण लेख में फ़रीद काज़मी ने बॉलीवुड की फ़िल्मों में सत्तर-अस्सी के दशक में नायक को ‘एंग्री यंग मैन’ के रूप में प्रस्तुत करने की परिघटना और उसके निहितार्थों को विश्लेषित किया। उनका यह लेख आशीष नंदी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘द सीक्रेट पॉलिटिक्स ऑफ़ अवर डिज़ायर्स’ में छपा था।
लोकप्रिय सिनेमा के विश्लेषण के लिए फ़्रेमवर्क की तलाश करते हुए फ़रीद काज़मी ने वर्ष 1999 में प्रकाशित हुई अपनी चर्चित किताब ‘द पॉलिटिक्स ऑफ़ इंडियाज़ कन्वेंशनल सिनेमा’ में सिनेमा अध्ययन की एक नई सैद्धांतिकी विकसित करने का प्रयास किया। लोकप्रिय फ़िल्मों में अभिव्यक्त होने वाली प्रतिरोध, विद्रोह और व्यक्ति से जुड़ी धारणाओं को भी उन्होंने अपने विश्लेषण के दायरे में लाया। अपनी एक अन्य पुस्तक ‘सेक्स इन सिनेमा’ में उन्होंने भारतीय फ़िल्मों में सेक्सुअलिटी और जेंडर सम्बन्धों की प्रस्तुति और उनकी रचना में अहम भूमिका निभाने वाले सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों की पड़ताल की। इसके लिए उन्होंने पचास के दशक से लेकर नब्बे के दशक तक में बनी फ़िल्मों को बतौर स्रोत इस्तेमाल किया।
अभी पिछले ही वर्ष उनकी एक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक है : ‘लग जा गले : इंडियाज़ कन्वेंशनल सिनेमाज़ ट्रिस्ट विद हिटलर’। जिसमें उन्होंने हिटलर के विचारों, फ़ासीवाद की धारणा और लोकप्रिय भारतीय सिनेमा की वैचारिक साम्यता को इंगित किया है। हालिया दौर में भारतीय परिदृश्य को ध्यान में रखें तो उनकी यह किताब और भी प्रासंगिक हो उठती है।
जहाँ एक ओर फ़रीद काज़मी अपनी इन कृतियों से लोकप्रिय सिनेमा की सैद्धांतिकी गढ़ते रहे। वहीं बतौर शिक्षक वे अपनी कक्षाओं में और कक्षा के बाहर भी छात्रों से रूबरू होते हुए उनके मन में सिनेमा को गहराई से समझने, उसकी जटिलताओं को विश्लेषित करने और सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में रखकर सिनेमा को देखने का हुनर विकसित करते रहे। उन्हें सलाम!
शुभनीत कौसिक के फ़ेसबुक से साभार।