मनोज कुमार राय
संस्मरण लिखना एक कठिन विधा मानी जाती है,यदि वह ‘आब्जेक्टिविटी’ के साथ लिखी गई हो। आजकल संस्मरण और आत्मकथा लेखन की भरमार हो गई है। इनमें जातीय प्रधानता (दलित आत्मकथा) अथवा अपनी ‘आचरण-सम्पदा’ की पतनगाथा को खास तवज्जो दिया जा रहा है। आजकल रचनाशीलता अथवा पाठक को उदात्तता का बोध कराने वाले साहित्य का प्राय: लोप सा हो गया है । सब कुछ राजनीति की तरह तात्कालिता ही जीवनोद्देश्य हो गया है। अभी हाल-हाल में आई पुस्तक ‘रंजिश ही सही’ इसका टटका उदाहरण है। ‘लेखक की किस्सागोई और खिलंदनापण का पता चलता है’ या लेखक में ‘विटी-निटी और ह्यूमर’ अब भी शेष है, इत्यादि तरह के क्लीशे़ज़ आपको अनेक चेले-चपाटी अथवा धूर्त सहकर्मियों की कलम से यत्र-तत्र भविष्य में प्रकाशित होने वाले समीक्षा लेखन में देखने को मिल ही जाएँगे। पर मेरी रुचि कुमार कमल के नकली साहित्य(रंजिश ही सही) में न होकर प्रत्यक्ष अनुभव से जुड़ी है । इसलिए जब उनकी पुस्तक की चर्चा चली तो मैं भी आधुनिक ग्रंथालय विज्ञान के जनक एसआर रंगनाथन के ‘फाइव लाज़ आफ लाइब्रेरी साईंस’ का सम्मान करते हुए सरसरी तौर पर इस पुस्तक को उलटने–पुलटने से अपने को रोक नहीं पाया। वैसे तो यह पुस्तक कुल मिलाकर एक अतिमहत्वाकांक्षी, अनर्गल, अश्लील, झूठ और कुंठित मानसिकता से लबरेज लेखक का पिटारा भर है जिसे खरीदकर पढ़ना कत्तई समझदारी नहीं होगी।
इस पुस्तक पर कुछ लिखने का मेरा कोई इरादा नहीं है क्योंकि यह हिन्दी साहित्य के तमाम कथित-पुरस्कृत छोटे-बड़े साहित्यकारों और लेखकों का घटिया और निजी दस्त-नाबदान है जिसमें सच और झूठ तो लिखने वाला या संबधित जन ही जानते होंगे। हिन्दी साहित्य/विभाग की दशा-दिशा यदि इतनी गंदी और घृणित है तो राम ही मालिक है। मेरे कई पुराने मित्र उन दिनों ‘कमल’ में उगे ‘कीचड़’ की चर्चा चटखारे लेकर करते थे उस पर अविश्वास का कोई कारण नहीं दिखता है। फिर भी किसी के निजी जीवन और ड्राइंग रूम के खिड़की दरवाजों में झांकना न तो कोई अच्छा कार्य है न ही मेरी कोई रुचि है। पर पुस्तक से गुजरते हुए लगा कि इन ‘कामजल-पिपासु और मूत्रागार के उपासक’ अध्यापक/लेखक के साथ जो मेरा अनुभव है उसे साझा करना मेरा दायित्व है। लेखक से मेरा दो बार साक्षात साक्षात्कार हुआ है और वह भी बड़े ऐतिहासिक ढंग से (राह चलते तो कई बार देखा है)। मैं अपनी कलम को इसी मुलाक़ात के दायरे तक सीमित रखते हुए विश्वविद्यालयीय अध्यापकीय मानसिकता की तरफ इशारा करूंगा जो कमोवेश लगभग सभी विश्वविद्यालयों में देखने को मिल जायेगी।
बात 1990 की है जब मैं बिरला छात्रावास के कमरा संख्या 118 का अंतेवासी था। बसंत का अवसान हो चुका था और वातावरण में आम-महुआ के बौर-फल की भीनी-भीनी खूशबू पोर-पोर में भिन रही थी। अलसुबह उठकर यदि आप छात्रावास से निकल कर मालवीयजी के सौंदर्यबोध का दर्शन करना चाहें तो किसी भी सड़क को पकड़ लीजिये अद्भुत नजारा देखने को मिलेगा। खेल के विशाल मैदान,छायादार और फलदार वृक्ष, विशाल छात्रावास,समकोण पर काटती हुई सड़के,प्रत्येक चौराहों पर पीपल-बरगद-पाकड़ के पेड़ आदि मालवीयजी की अद्भुत कल्पना का दर्शन करा देते हैं। छात्रावास का जीवन अत्यंत निरभ्र,शुभ और पवित्र होता है। इन दिनों झूठ-फरेब से मुक्त जीवन में नई ऊंचाइयों को छूने की ललक होती है। गलतियाँ भी होती हैं और उससे सीखने का भरपूर अवसर भी होता है। निराशा के क्षणों में भी अक्सर ‘तेज: प्रचंड’ की तरह हर बाधा को तोड़ने के लिए मन-मस्तिष्क का कसमसा उठना एक सहज प्रक्रिया होती है। परीक्षा के दिनों में यह भाव कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो जाता है क्योंकि इस पर भविष्य का दांव लगा होता है। उन्हीं दिनों कुछ इसी तरह के माहौल में मैं भी अपने को इस नदी-धारा में डालने की कोशिश कर रहा था।
एक दिन हमारे छात्रावासी मित्र अनिल सिंह शाम के समय कमरे पर आए और कहा कि ‘यार चलो, नरिया चलते हैं। रिफिल खरीदनी है।’ मैंने मित्र से कहा कि ‘दूध पिलाओगे तो अवश्य चलूँगा’। थोड़ा ना-नुकुर करने के बाद मित्र तैयार हो गए और हम दोनों पैदल ही ‘ए’ ब्लाक के कोने पर बने पतले रास्ते (अब शायद बंद कर दिया गया है क्योंकि विवि प्रगति कर रहा है) निकलकर मेडिकल छात्रावास से होते हुए आगे बढ़े। तभी एक और मित्र साइकिल से आते हुए दिखे और वे भी हम लोगों के साथ हो लिए। हम दोनों पैदल थे और मित्र अतुल सिंह गौतम जो आजकल कहीं कर्नल-जनरल होंगे,अपनी साइकिल से हमलोगों के कदम-से कदम मिलाकर चल रहे थे। उन दिनों नरिया-बाजार हमलोगों के लिए सबसे नजदीक का बाजार होता था और दैनिक आवश्यकता की काफी चीजें वहाँ मिल जाती थी। सड़क पर प्राय: सन्नाटा था। नरिया वाले रास्ते के तिराहे से महज दस-पाँच कदम हमलोग पहले होंगे कि बाईं तरफ एनसीसी रोड से एक तेज गति से आती हुई गाड़ी दिखाई दी। वह गाड़ी अभी दूर थी और हम लोगों ने सड़क पार कर लिया। तब तक गाड़ी भी नजदीक आ चुकी थी। दो कदम आगे बढ़कर गाड़ी रुकी और उसमें एक-दो सुरक्षाकर्मी उतरे और कहा कि ‘आफिस चलो! साहब बुलाये हैं’।
अभी हमलोग कुछ कहते कि पीछे से ‘मूसदानी’ जिसमें दर्जन भर सुरक्षाकर्मी बैठे थे, भी आ गई। कार चली गई। हम दोनों पैदल मित्रों को उस मूसदानी में बैठने को कहा गया। हम दोनों चुपचाप बैठ गए और तीसरे मित्र के साथ दो सुरक्षाकर्मी उसकी साइकिल के साथ हो लिए। तीन-चार मिनट के भीतर ही हम लोग ‘चीफ प्राक्टर’ कार्यालय में पहुँच गए। गाड़ी से उतर कर मैं वहाँ बरामदेनुमा जगह में रखे गए एक टूटे फूटे सोफ़े पर बैठ गया और मित्र अनिल भी वहीं विराजे। अभी हमलोग बैठे ही थे कि किसी अधिकारी ने ‘मोहल्ला अस्सी’ की ‘काशी-गया’ गाली से नवाजते हुए कहा –‘अबे सोफ़ा पर कैसे बैठ गए? चलो पत्थर पर बैठो’। मानो वज्र ही टूट पड़ा। विश्वविद्यालय के संसाधनों पर पहला हक छात्रों का होता है और यहाँ डंडा पीटने वाले नकारा किस्म के सुरक्षाकर्मी गालियों की बौछार करने पर आमादा थे। मरता क्या न करता! हमलोग बरामदे से बाहर आकर खड़े हो गए। ‘चीफ प्राक्टर’ कार्यालय जाने का यह पहला अवसर था। अत: पता ही नहीं था कि किधर जाना है ,कहाँ बैठना है अथवा किससे बात करनी है। अभी इसी उहापोह में थे कि सामने से हमारे तीसरे मित्र भी आते हुए दिखे। उन्होंने एक किनारे साइकिल खड़ी की और हमारी तरफ बढ़े। देखने से साफ लग रहा था कि मित्र की धुनाई कर दी गई है (बाद में अतुल ने बताया कि सुरक्षाकर्मियों ने उस पर 20-25 डंडे गिराए थे और उसके पीछे जो बड़ा कारण था वह था उन सुरक्षाकर्मियों से उसका अँग्रेजी में बात करना)।
अब तक माजरा समझ में आ गया था कि परीक्षा से एक दिन पहले हम लोग किसी घटिया सोच के शिकार हो चुके हैं। ‘हनुमान-चालीसा’ के अलावा और कोई सहारा नहीं दिख रहा था। तब तक एक सुरक्षाकर्मी ठीक मेरे बगल में आकर बोला कि भाग्यशाली हो कि आज दिलावर सिंह (नाम स्पष्ट याद नहीं है) नहीं है, वरना चमड़ी उधेड़ देता। चालीसा-पाठ का असर तुरंत दिखा। निश्चिंत हुआ कि खूंखार और निर्दय सुरक्षाकर्मी उस दिन नहीं था। जब हम तीनों मित्र एक साथ हो लिए तभी किसी की आवाज कान में गूंजी, ‘इन सबों को ऊपर ले चलो और गरम करो’। मैं तो काँप गया कि अब क्या होगा? इसी बीच अनिल ने थोड़ी चालाकी करने की कोशिश की और कहा चचा! बरसातु सिंह हमारे रिश्तेदार हैं। उसने यह बात इसलिए कही कि शायद इस नाम के प्रताप से हम सब छूट जाएँगे। बरसातु सिंह एक नामी प्राक्टर कर्मी थे। नाम के हिसाब से वे प्राक्टर के पर्याय थे। जब कभी छात्रों और प्राक्टर कर्मियों के बीच कुछ धकम-पेल होती थी तो आकाश में बस एक ही नाम गुंजायमान होता था-बरसतुआ …….के। और मान लिया जाता था कि समस्त प्राक्टरकर्मियों से बदला ले लिया गया। होली के दिनों में भी बरसातु सिंह को ही गाली दी जाती थी और छात्र मान लेते थे कि होली का रिश्ता निभ गया। बरसातु सिंह का नाम सुनते ही एक सुरक्षाकर्मी ने मित्र पर निर्दयता-पूर्वक चार डंडे जड़ दिये। मेरे पास तो ‘हनुमानजी’ के अलावा कोई चारा ही नहीं था। बचपन से ही हनुमानजी साथ देते आयें हैं – चाहे किसी के खेत से चना उखाड़ना हो या पेड से कटहल तोड़ना। जब-जब मैंने हनुमान जी को ‘बाजी जात गजेन्द्र की राखौ बाजी लाज’ की तरह शुद्ध मन से याद किया है, उन्होने सहायता की है और आज भी उनकी अहेतुक कृपा बनी हुई है।
खैर, अभी ‘जय हनुमान ज्ञान गुणसागर’ शुरू कर ही रहा था कि एक डंडा बाएँ हांथ की कनिष्ठिका के जोड़ पर गिरा । चटाक! पूरा शरीर झन्ना गया। आज भी जब मैं इस संस्मरण को आप सबसे साझा कर रहा हूँ तो नजर उस कनिष्ठिका पर बरबस टिक जा रही है जिस पर किसी माननीय का डंडा गिरा था। इसकी टीस आज भी एकदम ताजा है । आज भी मन करता है कि ‘केशव-केशनि’ का बाल पकड़कर हिलाऊँ और पूछूँ कि ‘अरे नीच आदमी! कौन सी गलती हमने की थी जो इस तरह का निर्दयतापूर्ण व्यवहार करवा रहे थे। साहित्य का कौन सा पाठालोचन था वह’। खैर! निर्देशानुसार हमलोगों को एक कर्मचारी ने ऊपर जाने के लिए बनी सीढ़ियों की तरफ इशारा किया और आगे बढ़ गया। सीढ़ी का रास्ता अंधकारमय था। मुझे अब पक्का विश्वास हो चुका था कि ये किसी ऐसी जगह ले जा रहें हैं जहां ‘करेंट का झटका’ देंगे क्योंकि ‘गरम करने का आदेश’ और ‘रास्ते का अंधकार’ का जो कोलाज बन रहा था वह ‘इलेक्ट्रिक टार्चर’ का ही बन रहा था। अब मैं पूरी तरह से हनुमान आश्रित हो गया- ‘हरि अनाथ के नाथ’।
सौभाग्य से 12-15 सीढ़ी चढ़ने के बाद एक कार्यालयनुमा कमरा दिखा जहां 4-5 लोग बैठे दिखे। कमरे में प्रवेश करते ही एक आवाज गूंजी- ‘ओम प्रकाश सिंह की गुंडई खत्म कर दी तो तुम लोगों की क्या औकात है’। हम लोग सन्न थे । आखिर हम लोगों ने तो कुछ गलत किया भी नहीं और उपर से गाली-डंडा भी सहें जा रहें हैं फिर भी हमी गुंडई कर रहें हैं! हंसी और रोना दोनों आ रहा था। तभी मेरा ध्यान एक व्यक्ति की तरफ गया जो ज्यादा वाचाल था। सफ़ेद शर्ट पहने ‘गँवईं बिरजू महाराज’ की स्टाइल में बाल बिखेरे हुए अपनी बदजबान से हमलोगों को हड़काए चले जा रहा था। हमलोग मेमने की तरह भेड़ियों से न्याय की गुहार कर रहे थे कि ‘गुरुजी हमने कुछ गलत नहीं किया है। हमलोग तो सिर्फ रिफिल लेने बाजार जा रहे थे। इसमे हमलोगों की क्या गलती है’? अंतत: यह कहने पर कि ‘आज के बाद ऐसी गलती नहीं होगी’, हमलोगों की जान छूटी और छात्रावास लौटे। अपने ही विद्यार्थियों को नीचा दिखाकर ये प्राक्टरनुमा अध्यापक कैसे अपने को श्रेष्ठ साबित करने पर उतारू हो जाते हैं, समझना मुश्किल नहीं है।
घटना के 27 वर्ष बीत जाने के बाद आज भी मैं यह बात समझ पाने में असमर्थ हूँ कि बहुतेरे अध्यापक ‘प्रार्क्टोरियल बोर्ड’ में जाने के लिए क्यों लालायित रहते हैं। पठन-पाठन जैसा पवित्र कार्य छोड़कर चौबीस घंटा अनपढ़-गंवार-अनैतिक कृत्यों के गोरखधंधों में संलिप्त कामी-लोभी कुलपतियों का चरण पकड़ने के ‘चारण-युग’ को क्यों चरितार्थ कराते हैं? मुफ्त गाड़ी-गनर लेकर घूमने अथवा कुछ महुआ-आम-जामुन के फल मुफ्त अपने घर मंगाने के अलावा कौन सा सुख प्राप्त करते हैं? चापलूस अध्यापकों और सुरक्षाकर्मियों से लैस इस कंट्रोल-कार्यालय में बैठकर रामचरितमानस का पाठ तो होता । अपितु एक दूसरे को पटकनी देने के फिराक में माता-पिता से मिला संस्कार भी छीजने लगता है और अपने ही विद्यार्थी ‘दाऊद-इब्राहिम’ की तरह दिखने लगते हैं। फिर तो भीतर रमण-तृषा के लिए ताक-झांक को सदैव तैयार बैठी आसुरी शक्तियों को अपना हुनर दिखाने का अवसर मिल ही जाता है-‘आवत देखि विषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी’।
दूसरी मुलाक़ात कुमार कमल से वर्ष 2008 में तब हुई जब वे काहिविवि के ‘एकेडेमिक स्टाफ कालेज’ के निदेशक थे। मैं एक अभिविन्यास पाठ्यक्रम में वहाँ बतौर एक प्रतिभागी उपस्थित था। यह कार्यक्रम कुल चार सप्ताह का होता है। विभिन्न विषयों पर अलग-अलग विद्वान ‘सम्बन्धों’ के आधार पर इस कार्यक्रम में ‘यात्रा-मुद्रा’ के लालच में अपना ज्ञान गिराने आते रहते हैं। कितने प्रतिभागी इस कार्यक्रम से लाभान्वित होते हैं यह एक अलग विषय है। तो, उस पाठ्यक्रम में एक दिन तब केंद्रीय कार्यालय के उपकुलसचिव माथुर का RTI पर एक व्याख्यान था। आरटीआई कानून अभी नया-2 ही बना था तो एक हौवा की तरह यह चर्चा में बना रहता था। विवि के CPIO होने के नाते माथुर साहब भी अपना अनुभव-ज्ञान बांटने आए थे। एक घंटा तक उन्होने इस विषय पर अपनी शैली में ज्ञान दिया जो अधिकांश के पल्ले नहीं पड़ा था। व्याख्यान के बाद प्रश्नकाल में प्रतिभागियों को कुछ- कुछ प्रश्न करना होता है। मैंने भी बस ‘प्रश्न करने के लिए प्रश्न’ पूछ लिया कि ‘यदि विवि के CPIO ने उदाहरण के तौर पर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष के पास फाइल भेज दी और विभागाध्यक्ष महोदय से उत्तर मिलने में देर हो गई तो किस अनुपात में जुर्माना का बंटवारा होगा’। माथुर को जो उत्तर देना था दिया और बात खत्म हो गई।
पाठ्यक्रम के दूसरे दिन के वर्ग में मैं पीछे बैठा था। अचानक एक कोर्स कोआर्डिनेटर (विधि विभाग के संभवत: डा अजय कुमार थे) पिछले दरवाजे से आए और हमसे कहा कि डाइरेक्टर साहब बुला रहें हैं । मैंने पूछा क्यों? तो उनका उत्तर था कि मुझे नहीं पता। मैं पीछे के दरवाजे से बाहर निकला और डाइरेक्टर के कमरे में पहुंचा। 18 साल पुरानी घटना अचानक से स्मृतिपटल पर बिजली सी कौंधी और देखा कि सफ़ेद शर्ट में वही पुराने ‘गँवईं बिरजू महाराज’ आज निदेशक-कुर्सी पर विराजमान थे। आज इनकी बारी थी खैर मनाने की। मैं भी तैयार था कि चापलूसी से प्राप्त करने का पर्याय बन चुकी इस कुर्सी पर निदेशक को आज उसकी औकात बता ही दिया जाय। कमरे में घुसते ही उस दिन मैं फिर से सफ़ेद सोफ़े पर जान-बूझकर बैठ गया (जान बूझकर इसलिए कि पाठ्यक्रमों में भाग लेने वाले अध्यापक प्राय: अपना जमीर बेचकर पाठ्यक्रम पूरा करते हैं और महीना भर चपरासी से लेकर निदेशक की चापलूसी करते रहते हैं। निदेशक/कोआर्डिनेटर भी कुछ लोगों को ताड़ लेते हैं और उनसे सूचना आदि लेते रहते हैं)। यह सोफ़ा 1990 के प्राक्टर कार्यालय के सोफ़े से साफ-सुथरा और आरामदायक था।
बैठने के कुछ ही क्षण बाद निदेशक ने पूछा –
‘आपको क्या परेशानी है’?
मैंने रूखाई से कहा-‘ कुछ नहीं’।
अगला सवाल– ‘कहाँ से आए हैं’? वर्धा से- जैसे मेरी कोई रुचि न हो इनके प्रश्न को सुनने में ।
‘आपने कल आरटीआई को लेकर कुछ सवाल किया था’। ‘हाँ किया था’। तो ! ’मैंने जबाब दिया।
‘हिन्दी विभाग से आपका कोई परिचय ’? ‘दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं’।
‘तो फिर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष को लेकर आपने कल आरटीआई के संदर्भ में सवाल क्यों किया था’।
‘सवाल और विभाग का नाम महज एक संयोग था । हिन्दी विभाग की जगह इतिहास-भूगोल का भी नाम हो सकता था । नाम में क्या रखा है’?
मि. पंकज ने कहा– ‘ठीक है। अब आप जा सकते हैं’।
‘समय नष्ट करने के लिए आपका धन्यवाद’ कहते हुए मैं खड़ा हुआ और बाहर निकला आया। मैं जब वर्ग में लौट कर अपनी सीट पर विराजमान हुआ तो मेरे मन में यह बात घूमने लगी कि 1990 में सीधे-साधे विद्यार्थियों के समक्ष शेर बनने वाला यह धवलवस्त्र धारी ‘गँवईं बिरजू महाराज’ आज इतना निरीह क्यों है। जो सवाल व्याख्यान के दौरान पूछे गए थे वह अत्यंत साधारण और सिर्फ जिज्ञासा और ‘प्रश्न करने के लिए प्रश्न’ था। पर यह शख्स उससे भी काँप गया। यह तो निश्चित था कि प्रतिभागी अध्यापकों में से ही किसी ने उनको बताया होगा। (ऐसे लोगों से आप क्या उम्मीद करेंगे कि वे अभिविन्यसित होंगे और भविष्य में छात्रहित अथवा संस्था हित में काम कर सकते हैं।) साथ के ही किसी अध्यापक ने बताया कि कुमार निदेशक पर आजकल उनके विभागीय सहकर्मी फिदा हैं। उन पर बतौर विभागाध्यक्ष और कुछ इधर-उधर की खबरों को लेकर आरटीआई डाली जा रही थी इसलिए वे डरे होंगे कि कहीं इस सवाल के पीछे कोई हिन्दी विभाग का हाथ तो नहीं है। मुझे उस दिन इन ‘गँवईं बिरजू महाराज’ का व्यक्तित्व बड़ा ही लिजलिजा और निर्वीर्य सा लगा। सचमुच ये मास्टर केवल कविता-कहानी-संस्मरण के ही कागजी शेर होते हैं। इधर बीच कोई बता रहा था कि इन ‘केशव-केशनि’ के पीछे बड़वानल स्तोत्रम की कोई मृगलोचनी शाकिनी-डाकिनी पीछे पड़ गई है जिससे ये भयाक्रांत होकर फिर कुछ डंडाधारी अध्यापकों के शरण में चले गए हैं– ‘बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा’।
लेखक अध्यापन से जुडे हैं. गांधी अध्ययन में विशेष रुचि. गांधी चिंतन के विभिन्न पहलुओं पर तीन-चार पुस्तकें प्रकाशित. समसमयिक विषयों पर यदा-कदा ललित शैली में लेखन. मूलत: गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं.