बीचएयू के पत्रकारिता विभाग में दलित शिक्षिका के उत्पीड़न का मामला पुलिस ने सचेतन रूप से गलत एफआइआर कर के फंसा दिया है जिसका लाभ उठाकर आरोपी प्रो. कुमार पंकज मनमाने ढंग से खुद को बचाने के लिए साजिशों को अंजाम दे रहे हैं। कुलपति द्वारा नियुक्त जांच आयोग की जांच शुरू होने से पहले ही पंकज ने खुद को पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पद से मुक्त कर के एक ऐसे असोसिएट प्रोफेसर को इसकी जिम्मेदारी दे दी है जो तकनीकी रूप से इस पद का हक़दार नहीं था, लेकिन पीडि़ता प्रो. शोभना नर्लीकर का प्रमोशन 2014 से अब तक रोक कर उसका रास्ता साफ़ किया गया।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता और जन संप्रेषण विभाग के अध्यक्ष पद से डॉ. कुमार पंकज ने ‘इस्तीफ़ा’ दे दिया है और उनकी जगह असोसिएट प्रोफेसर अनुराग दवे को यह पद सौंपा गया है। गुरुवार को अमर उजाला में छपी खबर कहती है कि ‘विभाग में किसी असोसिएट प्रोफेसर के न होने की दशा में पूर्व में प्रो. पंकज को अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई थी लेकिन बाद में डॉ. अनुराग दवे के असोसिएट प्रोफेसर बनने के बाद अब विश्वविद्यालय प्रशासन ने नियमानुसार उन्हें विभागाध्यक्ष बना दिया।”
इस ख़बर में जिसको ‘नियमानुसार’ बताया जा रहा है, वह दरअसल सारे नियमों को ताक पर रखकर किया गया काम है जिसकी पृष्ठभूमि काफी पहले से तैयार थी। अव्वल तो कुमार पंकज के इस पद से हटने की वजह डॉ. शोभना नर्लीकर द्वारा उनके खिलाफ़ करवाया गया भेदभाव, दलित उत्पीड़न व जाने से मारने की धमकी का मुकदमा है जिसकी जांच विश्वविद्यालय ने एक रिटायर्ड जस्टिस को सौंपी है और जो अब तक परवान नहीं चढ़ सकी है। दूसरे, अनुराग दवे की जगह इस पद की स्वाभाविक प्रत्याशी डॉ. शोभना ही थीं जिन्हें काफी पहले असोसिएट प्रोफेसर बन जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें अब तक यह प्रमोशन नहीं दिया गया है।
डॉ. शोभना ने मीडियाविजिल से बातचीत में यह साफ़ बताया था कि कैसे 2014 में उन्हें असोसिएट प्रोफेसर बनने से रोका गया वरना वे अब तक विभागाध्यक्ष के पद पर होतीं। विभाग के सूत्रों की मानें तो विभाग में असोसिएट प्रोफेसर का न होना कोई संयोग नहीं है बल्कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत डॉ. शोभना का प्रमोशन रोक कर किया गया ताकि कोई और असोसिएट प्रोफेसर विभागाध्यक्ष बनने की स्थिति में आ सके। डॉ. शोभना ने अपना प्रमोशन रोके जाने के संबंध में कुलपति को एक पत्र भी लिखा था। इस लिहाज से प्रो. कुमार पंकज का जांच के ठीक बीच अनुराग दवे को विभागाध्यक्ष की कुर्सी सौंपना एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है और कायदे से इसे इस्तीफ़ा नहीं कहा जा सकता।
दूसरे, एक चौंकाने वाली बात यह सामने आई है कि लंका थाना पुलिस ने अपने यहां दर्ज एफआईआर में दलित उत्पीड़न की शिकार डॉ. शोभना को न केवल ”जूता-चप्पलों की माला” पहनाई, बल्कि उसे ”नंगा तक घुमा दिया” जबकि पीड़िता ने अपनी तहरीर में कहीं भी इन शब्दों का जिक्र तक नहीं किया है।
वनांचल एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक पुलिस ने जानबूझ कर एससी/एसटी उत्पीड़न कानून ऐसी धाराएं लगाई हैं जिनमें आरोपी की गिरफ्तारी नहीं हो सकती, इसीलिए प्रो. कुमार पंकज अब तक बचे हुए हैं।
वनांचल एक्सप्रेस ने जब डॉ.शोभना नर्लिकर की तहरीर, उसके आधार पर लंका थाने में दर्ज एफआइआर और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (नृशंसता निवारण) अधिनियम-1989 के यथासंशोधित प्रावधानों का अध्ययन किया तो पाया कि पुलिस ने तहरीर के शब्दों से अलग जाकर एससी/एसटी एक्ट की 3(1)(डी) धारा का इस्तेमाल किया है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (नृशंसता निवारण) संशोधित अधिनियम-2015 की धारा-3(1)(डी) कहता है, कोई व्यक्ति, जो अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति वर्ग का नहीं है, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति वर्ग के सदस्य को जूता-चप्पलों की माला पहनाता है या अर्द्ध नग्न या नग्न घुमाता है तो उसे कम से कम छह महीने और अधिकतम पांच साल की जेल के साथ जुर्माने की सजा होगी।
अगर पीड़िता की तहरीर में उल्लेखित शब्दों पर गौर करें तो लंका पुलिस को भारतीय दंड संहिता की धारा-504 (गाली-गलौज) और 506 (जान से मारने की धमकी) के अलावा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (निशंसता निवारण) अधिनियम-1989 की यथासंशोधित धारा-3(1)(आर) एवं 3(1)(एस) में एफ.आई.आर. दर्ज करनी चाहिए थे लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इस अधिनियम की धारा-3(1)(आर) में ऊंची जाति के व्यक्ति द्वारा किसी सार्वजनिक स्थान पर अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति वर्ग के सदस्य को नीचा दिखाने के उद्देश्य से बेइज्जत करने का जिक्र किया गया है जबकि धारा-3(1)(एस) में किसी सार्वजनिक स्थान पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के सदस्य को जाति सूचक शब्द द्वारा गाली देने का उल्लेख किया गया है। तहरीर में पीड़िता ने कायस्थ समुदाय से ताल्लुक रखने वाले प्रो. कुमार पंकज पर जातिसूचक शब्द का प्रयोग करते हुए भद्दी-भद्दी गालियां देने का आरोप लगाया है।
इस बाबत जब पुलिस विभाग के पूर्व आइजी और दलित चिंतक एस.आर.दारापुरी से बात की गई तो उन्होंने कहा, “पुलिस ने आरोपी को लाभ पहुंचाने के लिए जान-बूझकर ऐसा किया है। इसके लिए वह पूरी तरह से दोषी है। उसके खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत कार्रवाई होनी चाहिए। इसमें इसका प्रावधान है।”