बरसों पहले शायर कह गया था, ”साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं, उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं”। भारत के प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान IIMC यानी भारतीय जनसंचार संस्थान का आज यही हाल है। उसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहयोगी संस्था विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के साथ सबकी आंखों के सामने दिनदहाड़े एक संयुक्त आयोजन कर लिया, लेकिन जब सूचना के अधिकार के तहत खुद संस्थान के ही छात्रों ने इस बारे में जानकारी मांगी तो संस्थान ने शुतुरमुर्ग की तरह अपना मुंह आरटीआइ के बेशर्म जवाबों में छुपा लिया।
संस्थान के छात्रों की एक आरटीआइ के जवाब में आइआइएमसी ने इस बात से साफ़ इनकार कर दिया है कि 5 अप्रैल 2017 को दोनों संस्थानों ने मिलकर कोई संयुक्त आयोजन किया था। आरटीआइ में जवाब आया है कि संस्थान के रिकॉर्ड के हिसाब से ऐसी कोई सूचना उपलब्ध ही नहीं है, जिसके बारे में इन तीन सवालों में पूछा गया था:
- विवेकानंद इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन ने 5 अप्रैल 2017 को IIMC का ऑफिशियल लोगो लगाते हुए तथा IIMC को in association with बताते हुए, ‘Communicating India’ विषय पर जो कांफ्रेंस कराया था, उसके बारे में क्या IIMC प्रशासन को जानकारी थी या नहीं?
- यदि IIMC प्रशासन को इस कांफ्रेंस के बारे में जानकारी थी, तो IIMC को उस फ़ाउंडेशन के साथ कांफ्रेंस के लिए ‘in association with’ होने की अनुमति किस सक्षम प्राधिकारी (competent authority) के द्वारा दी गई थी? प्राधिकारी का नाम व पद (Name & Post) बताने की कृपा करें।
- यदि कांफ्रेंस को लेकर कोई अनुमति दी गई थी, तो उस अनुमति पत्र की छायाप्रति देने की कृपा करें।
बात यहीं रुक जाती तो भी गनीमत थी, लेकिन विवेकानंद फाउंडेशन से अपना पल्ला झाड़ने के लिए आइआइएमसी को खुद अपने आधिकारिक ‘लोगो’ से मुंह मोड़ना पड़ा है। आरटीआइ में इस लोगो के प्रयोग के बारे में भी पूछा गया था, जिसका जवाब उसने यह दिया है कि IIMC प्रशासन को लोगो (चिह्न) के पंजीकरण के बारे में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। संस्थान के छात्र अंकित सिंह द्वारा दाखिल आरटीआइ आवेदन में यह भी पूछा गया था कि IIMC अपने जिस लोगो (चिह्न) को प्रॉस्पेक्टस, मुख्य भवन एवं तमाम दस्तावेजों पर प्रयोग में लाती है, क्या वह:
- भारत में स्थापित किसी विधिक प्राधिकारी (Legal authority) या विधिक संस्था के समक्ष पंजीकृत है? या भारत के किसी विधिक अधिनियम (Legal Act) के तहत कभी पंजीकृत हुआ है?
- यदि IIMC का लोगो (चिह्न) पंजीकृत है, तो उसके पंजीकरण प्रमाण-पत्र की छायाप्रति उपलब्ध कराइए।
केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की बहुमत वाली सरकार 16 मई 2014 को बनने के बाद से ही उच्च शिक्षा के संस्थानों में आरएसएस और उसकी सहयोगी संस्थाओं व संगठनों का जिस तरीके से दखल बढ़ा है, वैसे में आइआइएमसी को अपवाद नहीं माना जा सकता लेकिन एक बात जो समझ में नहीं आती वो यह है कि यह संस्थान आखिर एक कार्यक्रम के आयोजन को लेकर आरटीआइ में झूठ क्यों बोल रहा है। आइआइएमसी की वैधानिक स्थिति यह है कि इसे भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत स्वायत्त संस्थान का दरजा प्राप्त है। अगर यह संस्थान स्वायत्त है, तो इसके पास ज़ाहिर तौर पर किसी अन्य संस्थान के साथ मिलकर कार्यक्रम करवाने की भी स्वायत्तता होगी, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। फिर केंद्र में दक्षिणपंथी सरकार के होने के नाते स्वाभाविक है कि इस संस्थान के ऊपर उसका कुछ प्रभाव रहेगा। इसे नकारने से स्वायत्तता के ढोंग को बनाया रखा जा सकेगा, क्या आइआइएमसी इस गफ़लत में है?
पिछले साल संस्थान में आरएसएस के नेता इंद्रेश कुमार का एक व्याख्यान रखवाया गया था। इंद्रेश कुमार का नाम ‘भगवा आतंकवाद’ के मामले में सीबीआइ की चार्जशीट में आ चुका है और फिलहाल वे आरएसएस की संबद्ध संस्था मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की देखरेख कर रहे हैं। इस बारे में जब संस्थान से पड़ताल की गई, तो यह बताया गया था कि आइआइएमसी ने अपना सभागार आयोजकों को किराये पर दिया है जो कि एक पुरानी रवायत है।
संस्थान के एक प्रोफेसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि संस्थान को अपना खर्चा निकालना होता है, इसलिए वह सभागार किराये पर देता है। यह बात अलग है कि कुछ कारणवश इंद्रेश कुमार का कार्यक्रम रद्द हो गया, लेकिन बिलकुल यही बात तब सामने आई थी जब एस्सेल-ज़ी समूह के चेयरमैन सुभाष चंद्रा का शो आइआइएमसी के सभागार में किया जाना था। यह कार्यक्रम भी तीन अधिसूचनाओं के बाद रद्द कर दिया गया था।
अगर मान लें कि विवेकानंद फाउंडेशन के साथ मिलकर 5 अप्रैल को आयोजित आइआइएमसी का कार्यक्रम अनौपचारिक था, तो उसमें आइआइएमसी का आधिकारिक लोगो क्यों लगाया गया और उसके बारे में खबर पीआइबी से क्यों जारी की गई। आरटीआइ के जवाब के मुताबिक अगर संस्थान का लोगो अपंजीकृत है, तो क्या उसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है।
इस संदर्भ में कई सवाल संस्थान पर बनते हैं क्योंकि पिछले कई साल से आइआइएमसी के पूर्व छात्र संघ के बतौर आइआइएमसीएए यानी अलुमनाइ असोसिएशन नामक एक एनजीओ भी संस्थान के लोगो का इस्तेमाल अपने कार्यक्रमों में करता रहा है जिसमें कॉरपोरेट इकाइयों से खुलेआम चंदा लिया जाता है। कोका कोला से लेकर सरकारी उपक्रमों के पैसे से चलने वाली आइआइएमसीएए (IMCAA) की शराब-कबाब वाली आलीशान पार्टियों में जिस धड़ल्ले से आइआइएमसी के सभागार और लोगो का इस्तेमाल किया जाता है, वह सबसे पहला और सबसे बड़ा घोटाला है जिसमें खुद संस्थान के कुछ प्रशासनिक अधिकारी और प्रोफेसर निजी तौर पर शामिल रहे हैं और जिसके कर्ताधर्ता कोई और नहीं, इस संस्थान के कुछ पूर्व छात्र हैं।
आइआइएमसी की कहानी घोटालों से भरी पड़ी है। यहां एक अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हुआ करते थे जिन्हें यूपीए के राज में गबन के आरोप में निष्कासित कर दिया गया था। वे भाजपा के राज में दोबारा लौटकर आ गए हैं। मीडियाविजिल के संवाददाता ने उनसे जब वापसी की बाबत सवाल पूछा, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, ”मेरे साथ साजिश की गई थी। अब सब ठीक है।” साथ में खड़े एक प्रशासनिक अधिकारी ने हां में हां मिलाते हुए कहा, ”सरकार अब अपनी है।”
उक्त प्रोफेसर कुछ साल पहले शुरू हुए हिंदू मीडिया फोरम नामक एक दक्षिणपंथी पहल के संरक्षक हैं जिसमें कुछ बड़े हिंदूवादी पत्रकार भी शामिल हैं। आज अगर ”अपनी सरकार” के संरक्षण में ऐतिहासिक ‘साजिशों’ को दुरुस्त करने का समय आया है, तो आइआइएमसी को आधिकारिक तौर पर इसे स्वीकारने में कैसा हर्ज है? ये तो वही बात हुई कि आप कुकर्म सारे करेंगे लेकिन कागज पर अपने को ‘स्वायत्त’ दिखाते रहेंगे।
आज से 16 साल पहले 2001 में जब एनडीए की दूसरी सरकार में सुषमा स्वराज सूचना और प्रसारण मंत्री थीं और आइआइएमसी के दीक्षांत समारोह में डिप्लोमा देने आई थीं, तो मंच पर चढ़कर हिंदी पत्रकारिता के कुछ असहमत छात्रों ने डिप्लोमा लेने से इनकार कर दिया था और उसे वहीं उनके सामने फाड़ दिया था। आज के छात्र ज्यादा व्यवस्थित और कारगर तरीके से अपना विरोध जता रहे हैं और आरटीआइ के माध्यम से इस संस्थान में जड़ों तक फैल चुकी सड़ांध को सामने ला रहे हैं। कहीं फिर ऐसा न हो कि जब ये छात्र मंच पर सूचना और प्रसारण मंत्री के हाथों से अपने डिप्लोमा के प्रमाण-पत्र लेने जाएं, तो सोलह साल पहले वाला दृश्य इस सरकार को देखना पड़े।
एचसीयू, एफटीआइआइ और जेएनयू की दुर्गति के बाद आइआइएमसी का जो हाल इस सरकार में हुआ है, बहुत संभव है कि प्रतिरोध की नई निंगारी यहां से भड़के। बादशाह का इकबाल चुक गया है। आइआइएमसी को बस डिप्लोमा फाड़े जाने का इंतज़ार है।
आरटीआइ आवेदक छात्र अंकित सिंह ने इस मामले का पूरा विवरण अपनी फेसबुक दीवार पर प्रकाशित किया है जिसे यहां देखा जा सकता है।