जगदीश्वर चतुर्वेदी
ऐसा गम मैंने नहीं देखा बौद्धिकों के चेहरे गम और दहशत में डूबे हुए थे। चारों ओर बेचैनी थी । कैसे हुआ,कौन लोग थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री स्व.श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या की। हत्या क्यों की। क्या खबर है।क्या क्या कर रहे हो इत्यादि सवालों को लगातार जेएनयू के छात्र -शिक्षक और कर्मचारी छात्रसंघ के दफतर में आकर पूछ रहे थे। मैंने तीन -चार दिन पहले ही छात्रसंघ अध्यक्ष का पद संभाला था,अभी हम लोग सही तरीके से यूनियन का दफतर भी ठीक नहीं कर पाए थे। चुनाव की थकान दूर करने में सभी छात्र व्यस्त थे कि अचानक 31 अक्टूबर 1984 को सुबह 11 बजे के करीब खबर आई प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी है। सारे कैंपस का वातावरण गमगीन हो गया ।लोग परेशान थे। मैं समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ ? उसी रात को पेरियार होस्टल में शोकसभा हुई जिसमें हजारों छात्रों और शिक्षकों ने शिरकत की और सभी ने शोक व्यक्त किया। श्रीमती गांधी की हत्या के तुरंत बाद ही अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। किसी ने अफवाह उडा दी कि यूनियनवाले मिठाई बांट रहे थे। जबकि सच यह नहीं था। छात्रसंघ की तरफ से हमने शोक वार्ता और हत्या की निंदा का बयान जारी कर दिया था। इसके बावजूद अफवाहें शांत होने का नाम नहीं ले रही थीं। चारों ओर छात्र-छात्राओं को सतर्क कर दिया गया और कैम्पस में चौकसी बढा दी गयी।
कैंपस में दुष्ट तत्व भी थे। वे हमेशा तनाव और असुरक्षा के वातावरण में झंझट पैदा करने और राजनीतिक बदला लेने की फिराक में रहते थे। खैर ,छात्रों की चौकसी, राजनीतिक मुस्तैदी और दूरदर्शिता ने कैम्पस को संभावित संकट से बचा लिया।
दिल्ली शहर और देश के विभिन्न इलाकों में हत्यारे गिरोहों ने सिखों की संपत्ति और जानोमाल पर हमले शुरू कर दिए थे। ये हमले इतने भयावह थे कि आज उनके बारे में जब भी सोचता हूँ तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। श्रीमती गांधी की हत्या के बाद हत्यारे गिरोहों का नेतृत्व कौन लोग कर रहे थे, आज इसे दिल्ली का बच्चा बच्चा जानता है। इनमें कुछ लोग अभी जिंदा हैं और कुछ लोग मर चुके हैं। यहां किसी भी दल और नेता का नाम लेना जरूरी नहीं है।कई हजार सिख औरतें विधवा बना दी गयीं। हजारों सिखों को घरों में घुसकर कत्ल किया गया।कई हजार घर जला दिए गए। घर जलाने वाले कौन थे , कैसे आए थे, इसके विवरण और ब्यौरे आज भी किसी भी पीडित के मुँह से दिल्ली के जनसंहार पीडित इलाके में जाकर सुन सकते हैं। अनेक पीडित अभी भी जिंदा हैं।
श्रीमती गांधी की हत्या और सिख जनसंहार ने सारे देश को स्तब्ध कर दिया।इस हत्याकांड ने देश में साम्प्रदायिकता की लहर पैदा की। जिस दिन हत्या हुई उसी दिन रात को जेएनयू में छात्रसंघ की शोकसभा थी और उसमें सभी छात्रसंगठनों के प्रतिनिधियों के अलावा सैंकड़ो छात्रों और अनेक शिक्षकों ने भी भाग लिया था। सभी संगठनों के लोगों ने श्रीमती गांधी की हत्या की तीखे शब्दों में निंदा की और सबकी एक ही राय थी कि हमें जेएनयू कैंपस में कोई दुर्घटना नहीं होने देनी है। कैंपस में चौकसी बढा दी गयी।
देश के विभिन्न इलाकों में सिखों के ऊपर हमले हो रहे थे,उनकी घर,दुकान संपत्ति आदि को नष्ट किया जा रहा था। पास के मुनीरका,आरकेपुरम आदि इलाकों में भी आगजनी और लूटपाट की घटनाएं हो रही थीं। दूर के जनकपुरी,मंगोलपुरी,साउथ एक्सटेंशन आदि में हिंसाचार जारी था। सिखों के घर जलाए जा रहे थे।सिखों को जिंदा जलाया जा रहा था। ट्रकों में पेट्रोल,डीजल आदि लेकर हथियारबंद गिरोह हमले करते घूम रहे थे।हत्यारे गिरोहों ने कई बार जेएनयू में भी प्रवेश करने की कोशिश की लेकिन छात्रों ने उन्हें घुसने नहीं दिया। जेएनयू से दो किलोमीटर की दूरी पर ही हरिकिशनसिंह पब्लिक स्कूल में सिख कर्मचारियों और शिक्षकों की तरफ से अचानक संदेश मिला कि जान खतरे में है किसी तरह बचा लो। आर. के .पुरम से किसी सरदार परिवार का एक शिक्षक के यहां फोन आया हत्यारे गिरोह स्कूल में आग लगा रहे हैं। उन्होंने सारे स्कूल को जला दिया था। अनेक सिख परिवार बाथरूम और पायखाने में बंद पडे थे। ये सभी स्कूल के कर्मी थे, शिक्षक थे। शिक्षक के यहां से संदेश मेरे पास आया कि कुछ करो। सारे कैंपस में कहीं पर कोई हथियार नहीं था। विचारों की जंग लडने वाले हथियारों के हमलों के सामने निहत्थे थे। देर रात एक बजे विचार आया सोशल साइंस की नयी बिल्डिंग के पास कोई इमारत बन रही थी वहां पर जो लोहे के सरिया पडे थे वे मंगाए गए और जेएनयू में चौतरफा लोहे की छड़ों के सहारे निगरानी और चौकसी का काम शुरू हुआ। किसी तरह दो तीन मोटर साइकिल और शिक्षकों की दो कारें जुगाड करके हरकिशन पब्लिक स्कूल में पायखाने में बंद पडे लोगों को जान जोखिम में डालकर कैंपस लाया गया,इस आपरेशन को कैंपस में छुपाकर किया गया था क्योंकि कैंपस में भी शरारती तत्व थे जो इस मौके पर हमला कर सकते थे। सतलज होस्टल,जिसमें मैं रहता था ,उसके कॉमन रूम में इनलोगों को पहली रात टिकाया गया। बाद में सभी परिवारों को अलग अलग शिक्षकों के घरों पर टिकाया गया। यह सारी परेशानी चल ही रही थी कि मुझे याद आया जेएनयू में उस समय एक सरदार रजिस्ट्रार था। डर था कोई शरारती तत्व उस पर हमला न कर दे। प्रो अगवानी उस समय रेक्टर थे और कैंपस में सबसे अलोकव्रिय व्यक्ति थे। उनके लिए भी खतरा था। मेरा डर सही साबित हुआ। मैं जब रजिस्ट्रार के घर गया तो मेरा सिर शर्म से झुक गया। रजिस्ट्रार साहब डर के मारे अपने बाल कटा चुके थे । जिससे कोई उन्हें सिख न समझे।उस समय देश में जगह-जगह सैंकडों सिखों ने जान बचाने के लिए अपने बाल कटवा लिए थे। जिससे उन पर हमले न हों। डाउन कैंपस में एक छोटी दुकान थी जिसे एक सरदार चलाता था, चिन्ता हुई कहीं उस दुकान पर तो हमला नहीं कर दिया। जाकर देखा तो होश उड गए शरारती लोगों ने सरदार की दुकान में लाग लगा दी थी। मैंने रजिस्ट्रार साहब से कहा आपने बाल कटाकर अच्छा नहीं किया आप चिन्ता न करें, हम सब हैं। यही बात प्रो. अगवानी से भी जाकर कही तो उन्ाके मन में भरोसा पैदा हुआ। कैंपस में सारे छात्र परेशान थे,उनके पास दिल्ली के विभिन्न इलाकों से खबरें आ रही थीं, और जिसके पास जो भी नई खबर आती, हम तुरंत कोई न कोई रास्ता निकालने में जुट जाते।
याद आ रहा है जिस समय आरकेपुरम में सिख परिवारों के घरों में चुन-चुनकर आग लगाई जा रही थी उसी समय दो लड़के जेएनयू से घटनास्थल पर मोटर साइकिल से भेजे गए, हमने ठीक किया था और कुछ न हो सके तो कम से कम पानी की बाल्टी से आग बुझाने का काम करो। यह जोखिम का काम था। आरकेपुरम में जिन घरों में आग लगाई गयी थी वहां पानी की बाल्टी का जमकर इस्तेमाल किया गया।हत्यारे गिरोह आग लगा रहे थे जेएनयू के छात्र पीछे से जाकर आग बुझा रहे थे। पुलिस का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था।
कैंपस में चौकसी और मीटिंगें चल रही थीं। आसपास के इलाकों में जेएनयू के बहादुर छात्र अपनी पहलीकदमी पर आग बुझाने का काम कर रहे थे। सारा कैंपस इस आयोजन में शामिल था। श्रीमती गांधी का अंतिम संस्कार होते ही उसके बाद वाले दिन हमने दिल्ली में शांतिमार्च निकालने का फैसला लिया। मैंने दिल्ली के पुलिस अधिकारियों से प्रदर्शन के लिए अनुमति मांगी उन्होंने अनुमति नहीं दी। हमने प्रदर्शन में जेएनयू के शिक्षक और कर्मचारी सभी को बुलाया था । जेएनयू के अब तक के इतिहास का यह सबसे बड़ा शांतिमार्च था। इसमें जेएनयू के सारे कर्मचारी,छात्र और सैंकडों शिक्षक शामिल हुए। ऐसे शिक्षकों ने इस मार्च में हिस्सा लिया था जिन्होंने अपने जीवन में कभी किसी भी जुलूस में हिस्सा नहीं लिया था, मुझे अच्छी तरह याद है विज्ञान के सबसे बडे विद्वान् शिवतोष मुखर्जी अपनी पत्नी के साथ जुलूस में आए थे,वे दोनों पर्यावरणविज्ञान स्कूल में प्रोफेसर थे,वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक आशुतोष मुखर्जी के करीबी परिवारी थे। जुलूस में तकरीबन सात हजार लोग कैंपस से निकले थे,बगैर पुलिस की अनुमति के हमने शांति जुलूस निकाला ,मैंने शिक्षक संघ के अध्यक्ष कुरैशी साहब को झूठ कह दिया कि प्रदर्शन की अनुमति ले ली है। मैं जानता था अवैध जुलूस में जेएनयू के शिक्षक शामिल नहीं होंगे। मेरा झूठ पकडा गया पुलिस के बडे अधिकारियों ने आरकेपुरम सैक्टर 1 पर जुलूस रोक दिया और कहा आपके पास प्रदर्शन की अनुमति नहीं है।आपको गिरफतार करते हैं। मैंने पुलिस ऑफीसर को कहा तुम जानते नहीं हो इस जुलूस में बहुत बडे बडे़ लोग हैं वे तुम्हारी वर्दी उतरवा देंगे। उनके गांधी परिवार से गहरे रिश्ते हैं। अफसर डर गया बोला मैं आपको छोडूँगा नहीं मैंने कहा जुलूस खत्म हो जाए तब पकडकर ले जाना मुझे आपत्ति नहीं है। इस तरह आरकेपुरम से पुलिस का दल-बल हमारे साथ चलने लगा और यह जुलूस जिस इलाके से गुजरा वहां के बाशिंदे सैंकडों की तादाद में शामिल होते चले गए । जुलूस में शामिल लोगों के सीने पर काले बिल्ले लगे थे, शांति के पोस्टर हाथ में थे। उस जुलूस का देश के सभी माध्यमों के अलावा दुनिया के सभी माध्यमों में व्यापक कवरेज आया था। यह देश का पहला विशाल शांतिमार्च था। जुलूस जब कैंपस में लौट आया तो अपना समापन भाषण देने के बाद मैंने सबको बताया कि यह जुलूस हमने पुलिस की अनुमति के बिना निकाला था और ये पुलिस वाले मुझे पकडकर ले जाना चाहते हैं। वहां मौजूद सभी लोगों ने प्रतिवाद में कहा था छात्रसंघ अध्यक्ष को पकडोगे तो हम सबको गिरफतार करना होगा। अंत में पुलिसबल मुझे गिरफतार किए बिना चला गया। मामला इससे और भी आगे बढ गया। लोगों ने सिख जनसंहार से पीडित परिवारों की शरणार्थी शिविरों में जाकर सहायता करने का प्रस्ताव दिया। इसके बाद जेएनयू के सभी लोग शहर से सहायता राशि जुटाने के काम में जुट गए। प्रतिदिन सैंकडों छात्र-छात्राओं की टोलियां कैंपस से बाहर जाकर घर-घर सामग्री संकलन के लिए जाती थीं और लाखों रूपयों का सामान एकत्रित करके लाती थीं।यह सामान पीडितों के कैम्प में बांटा गया। सहायता कार्य के लिए शरणार्थी कैम्प भी चुन लिया गया। बाद में पीडित परिवारों के घर जाकर जेएनयू छात्रसंघ और शिक्षक संघ के लोगों ने सहायता सामग्री के रूप में घरेलू काम के सभी बर्तनों से लेकर बिस्तर और पन्द्रह दिनों का राशन प्रत्येक घर में पहुँचाया। इस कार्य में हमारी दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने खास तौर पर मदद की। मैं भूल नहीं सकता दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो.जहूर सिद्दीकी साहब की सक्रियता को। उस समय हम सब नहीं जानते थे कि क्या कर रहे हैं, सभी भेद भुलाकर सिखों की सेवा और साम्प्रदायिक सदभाव का जो कार्य जेएनयू के छात्रों -श्िक्षकों और कर्मचारियों ने किया था वह हिन्दुस्तान के छात्र आंदोलन की अविस्मरणीय घटना है।
यह काम चल ही रहा था कि पश्चिम बंगाल के सातों विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों के द्वारा इकट्ठा की गई सहायता राशि लेकर तत्कालीन सांसद नेपालदेव भट्टाचार्य मेरे पास पहुँचे कि यह बंगाल की मददराशि है। किसी तरह इसे पीडित परिवारों तक पहुँचा दो। विपत्ति की उस घड़ी में पश्चिम बंगाल के छात्र सबसे पहले आगे आए। हमने उस राशि के जरिए जरूरी सामान और राशन खरीदकर पीडित परिवारों तक पहुँचाया। इसका हमें सुपरिणाम भी मिला अचानक जेएनयू के छात्रों को धन्यवाद देने प्रसिद्ध सिख संत और अकालीदल के प्रधान संत स्व.हरचंद सिंह लोंगोवाल,हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक सरदार महीप सिंह और राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला के साथ जेएनयू कैम्पस आए। संत लोंगोवाल ने झेलम लॉन में सार्वजनिक सभा को सम्बोधित किया था, उन्होंने कहा अकालीदल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने जेएनयू समुदाय खासकर छात्रों को सिख जनसंहार के समय साम्प्रदायिक सदभाव और पीडित सिख परिवारों की मदद करने,सिखों की जान बचाने के लिए धन्यवाद भेजा है। सिख जनसंहार की घडी में सिखों की जानोमाल की रक्षा में आपने जो भूमिका अदा की है उसके लिए हम आपके ऋणी हैं।सिखों की मदद करने के लिए उन्होंने जेएनयू समुदाय का धन्यवाद किया। हमारे सबके लिए संत लोंगोवाल का आना सबसे बड़ा पुरस्कार था। सारे छात्र उनके भाषण से प्रभावित थे।