रचना सिंह
अपन की एक खास विशेषता है सवाल से भागने की। हम बीएचयूआइट भी थोड़े अजीब किस्म के हैं। जरा सी आलोचना हुई नहीं कि लगता है कि इज्जत अब गई कि तब गई। विश्वविद्यालय की लड़कियां अपने ऊपर होने वाले छेड़छाड़ के खिलाफ आजिज होकर आंदोलन पर उतारू क्या हुईं सबकी आंतों में दर्द का मरोड़ उठने लगा। शील-शुचिता पर गहरा संकट आन पड़ा। नये-पुराने बीएचयूआइटों ने पक्ष-विपक्ष में तुरंत मोर्चा सँभाल लिया। किसी की वेदना छलक कर हलक से निकल कर बाहर आ गई– ”यह आंदोलन मूलत: विश्वविद्यालय को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है।” एक वरिष्ठ आचार्य ने नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाते हुए कहा- ”जो कोई भी इस विश्वविद्यालय में कुछ भी गड़बड़ करेगा उसे मालवीयजी की आत्मा अवश्य ही दंडित करेगी” (गोया मालवीयजी की आत्मा को चित्रगुप्त ने कोई काम एलॉट ही नहीं किया हो)।
अतीत के नोस्टाल्जिक हवाई चिंतन में जीने वालों को लगता है जैसे धरती पर इससे बेहतर कोई जगह न थी, न है और न होगी। दरअसल, मालवीय भक्ति का जैसा विद्रूप चेहरा यहां देखने को मिलता है वैसा शायद ही कहीं देखने को मिले। विश्वविद्यालय में किसी भी तरह का पाप होता रहे आप चुपचाप सुनिए, देखिए और भुगतिए और हर मंच से मालवीयजी को प्रिय एक-दो श्लोकों को कंठ के ज़ोर से गाते रहिए क्योंकि आपके अपने हक-हुकूक की लड़ाई के बारे में सोचते ही मालवीय-मर्यादा तार-तार होने लगती है।
कोई भी संस्थान/परिसर तभी सुरक्षित कहा जाता है जब वहां चौतरफा खुशी का माहौल हो- पर्यावरण से लेकर दैनंदिन व्यवहार तक। क्या बीएचयू इस तरह का माहौल दे पा रहा है? जबाब है नहीं। और यह कहने में हमें कत्तई गुरेज़ नहीं है कि ऐसा माहौल आज से नहीं जब हम केंद्रीय विद्यालय की कक्षा नौवीं-दसवीं के विद्यार्थी थे तब से है। तब छात्रावास में रहने वाले लड़के हों या कोई और, ‘लौलिताओं’ की तलाश में बीएचयू के मुख्य डाकघर के आसपास चाय पीने के लिए आ धमकते थे। जाड़े के दिनों में भी एकदम सुबह-सबेरे ही हाजिर हो जाते थे और तमाम अश्लील फब्तियां हमारे ऊपर टैंक के गोलों की तरह बरसाते थे। कभी जरा सा अवसर मिला नहीं कि शरीर छूने से भी बाज नहीं आते थे। कुछ कहने पर बेहया की तरह हंसना और ”काहो भौजी…।” यहां तक कि ठेले-खोमचे वाले भी मौका नहीं चूकते थे। घर पर जब कभी कहने की कोशिश की गई तो वही पुरानी शिक्षा- ”उधर जाने क्या जरूरत थी? मत जाओ! ध्यान मत दो!” आखिर माता-पिता इससे अधिक कर भी क्या सकते थे? बेटी को पढ़ाएं या फ़ौजदारी करें?
थोड़ा और बड़े हुए तो महिला महाविद्यालय और फ़ैकल्टी में जाना पड़ा। खुदा न खास्ता कभी कम दूरी की सोचते हुए छात्रावास के रास्ते से यदि गुजरना हुआ तो छात्रावासों के अंत:वासी अचानक ‘खेदा’ पर निकल आते थे। विविध मुद्राओं और विचित्र रूपों में अवतरित इन दर्जनों दंतैल महिषों की नितांत पूर्वाञ्चली लंपटई ‘महोच्चार’ से व्योम का सारा वातावरण ही महादुर्गंध के संगीत से गुंजायमान हो उठता था। युधिष्ठिर की तरह नीची दृष्टि किए हुए चलना हमारी मजबूरी होती थी, पर मन तो यही कहता था कि काश कोई देवी इन पर चरण-प्रहार कर इनके मस्तक को विदीर्ण कर देती।
मैं अच्छी तरह जानती हूं कि उनमें से कुछ लोग आज इसी विश्वविद्यालय में आचार्य/उपाचार्य/चीफ प्राक्टर तक की कुर्सी पर बैठकर मालवीय गरिमा की रक्षा में ‘राग-गर्दभ’ में ‘सत्येन-ब्रह्मचर्य’ का पाठ कर रहे हैं। मैं तो बस यही जानना चाहती हूं कि कोई लड़की सायकिल/स्कूटी से अगर जा रही है तो इन आततायियों को कभी यह खयाल नहीं आया कि बेचारी सुबह परीक्षा देने जा रही है या घर/अस्पताल में किसी घटना के घटित होने की आशंका या तनाव में भागी जा रही हैं। नवरात्र में कुंआरी कन्याओं को खाना खिलाने के लिए परेशान इन टोटकेबाज़ जाहिलों के मन में कभी इन लड़कियों के प्रति घर के बाहर भी पवित्र भाव क्यों नहीं उपजा। और तो और, यहीं के पालक-बालक समाजशास्त्री बड़ी प्रसन्नतापूर्वक ‘फ़ैकल्टी-रोड’ को माल-रोड कहते थे। आज जो इन परेशान लड़कियों को धर्म-कर्तव्य-चरित्र का पाठ पढ़ा रहें हैं, उन्होने कभी इस परिसर को ‘सुरक्षित’ बनाने की पहल की?
जब 21-22 सितंबर को छात्राओं ने ‘अनसेफ बीएचयू’ का बैनर सिंहद्वार पर टांग दिया तो यहाँ के जातिवादी खोल में पले-बढ़े धुरंधरों के दिल को बड़ा जबर्दस्त धक्का लगा। उद्दण्ड और जाहिल अध्यापकों की कौन कहे, कुछ पढे-लिखे और पेशे के प्रति ईमानदार कर्मियों के भी पेट में मरोड़ उठने लगा कि यह तो ठीक नहीं है। विरोध अपनी जगह सही है पर विश्वविद्यालय की गरिमा की रक्षा हम सबकी ज़िम्मेदारी है। विश्वविद्यालय की गरिमा की रक्षा तो तभी हो सकती है अथवा होती है जब ‘जाति’ से ऊपर उठकर ‘मेरिट’ को महत्व दिया जाए लेकिन इस विश्वविद्यालय ने यह काम शायद ही किया हो। ‘
इसी विश्वविद्यालय के एक प्रखर और मेधावी छात्र ने 1956 से लेकर 1996 तक के कुलपतियों के कार्यकाल का ‘इथनोग्राफिक’ अध्ययन किया है। आंकड़ों पर आधारित यह अध्ययन जब पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई तो तब के कुलपति ने इसे लाइब्रेरी में रखवाने से मना कर दिया जबकि लेखक ने इस पुस्तक की दो प्रतियां दानस्वरूप लाइब्रेरी को भेंट भी कर दी थीं। कुलपति-भय के कारण इसे ‘क्लासीफाइड’ नहीं किया गया। बेटी-बेटा-बहू-दामाद से लगायत ‘डीप-रिलेशन’ तक की पड़ताल करने वाली इस पुस्तक में चार दशकों के जातिवादी इतिहास का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। उस दौर में थोड़ी बहुत जो गरिमा बची थी, वह पिछले चार-पांच कुलपतियों के कार्यकाल में पूर्णत: ध्वस्त हो गई। विश्वविद्यालय शब्द से ‘विश्व’ कब गायब होकर ‘स्थानीयता’ मे परिवर्तित हो गया, किसी को पता ही नहीं चला।
यूपी-बिहार मिलाकर लगभग चार-पांच करोड़ की आबादी बीएचयू के अस्पताल पर भरोसा करती आई है। सस्ते और उचित इलाज के लिए लगभग तैंतीस जिलों के लोग इस अस्पताल की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं। किसी भी प्रकार की गंभीर बीमारी के लिए सबसे पहले यहां की जनता इसी अस्पताल की ओर दौड़ी चली आती है। एक समय था जब यहां के चिकित्सकों ने सचमुच में कर्तव्य-निर्वहन में अपनी छाप छोड़ी थी पर समय के साथ इस अस्पताल में भी जातिवादी रोग लग गए। चिकित्सकों ने न केवल निजी प्रैक्टिस शुरू की वरन जांच से लेकर दवा खरीद में ‘कमीशन’ खाना शुरू कर दिया। बीएचयू अस्पताल में आपरेशन करेंगे और उसके एवज में दस-बीस हजार अलग से ऐंठ लेते हैं। यहा के हर डाक्टर का अपना चहेता दुकानदार है जहां से हर शाम इनका बंधा-बंधाया पैसा आ जाता है। यहां के कुशल चिकित्सकों ने अपने अयोग्य वंशजों के लिए इसे सुरक्षित कर लिया। अभी हाल में हुई नियुक्तियां इस बात की पुष्टि भी करती हैं। यह एकमात्र ऐसा संस्थान है जहां बिना प्रोफेसर के ‘कार्डियोलाजी’ में ‘डीएम’ की डिग्री दी जाती रही है। हद तो तब हो गई जब जानवरों के उपयोग में आने वाली दवा से मनुष्यों को बेहोश किया जाने लगा। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह दवा भी वहां से खरीदी गई जहां इस दवा के लिए कोई लाइसेन्स ही नहीं दिया गया है। अस्पताल में मिलने वाली दवा बाहर की दुकानों से महंगी मिलती है। सैंपल के लिए डाक्टरों को दी जाने वाली दवा भी इन दुकानों पर सहज ही उपलब्ध रहती है।
इस विश्वविद्यालय से पिछले दिनों ‘पीडियाट्रिक्स’ के एक प्रोफेसर को यौन उत्पीड़न के आरोप में धरे गए थे पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उस प्रोफेसर को ‘वीआरएस’ देते हुए बाइज्जत बाहर का रास्ता दिखा दिया। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि अंतरराष्ट्रीय यौन उत्पीड़न के एक आरोपी को इस अस्पताल का मालिक ही बना दिया गया। ऐसी विकट परिस्थिति में यह अस्पताल आज हम सब के लिए असुरक्षित हो चुका है।
मालवीयजी एक ‘विजनरी’ व्यक्ति थे। वे पारिस्थितिकी तंत्र को ठीक तरीके से समझते थे इसीलिए जब इस विश्वविद्यालय की संरचना को अंतिम स्वरूप दिया जा रहा था तो उनके मन में सिंधु-सभ्यता की अच्छाइयों का ध्यान था। वृक्षों और सड़कों के साथ साथ परिसर में रहने वाले अध्यापकों-कर्मचारियों के रहने लिए आवास आदि का निर्माण कराते हुए उन्होने इसकी पारिस्थितिकी को विशेष रूप से ध्यान में रखा था। छायादार और फलदार वृक्ष के साथ इमारती और पर्यावरणीय दृष्टि से लाभदायक वृक्षों की एक लंबी श्रृंखला तैयार की थी। तालाब और मैदान भी इस विश्वविद्यालय की खूबसूरती के अंग हुआ करते थे। समय बदला और बौने किस्म के सत्तालोलुप और जातिवादी सोच के लोग कुलपति बनते गए और विवि धीरे-धीरे असुरक्षित होता चला गया। तालाब तो अब इस विश्वविद्यालय में आपको शायद ही दिखें। मैदानों पर धीरे-धीरे कब्जा बढ़ता गया। अधिकांश मैदानों का स्वरूप बदलता गया और वहां पर कंक्रीट के जंगल खड़े होते चले गए। यह सिलसिला जहां-जहां खाली जमीन मिलती गई वहां-वहां चलता रहा क्योंकि अधिसंरचना का खेल सबसे खूबसूरत खेल है। यहां निश्चित रकम आपके दरवाजे पर दस्तक देने के लिए तैयार बैठी होती है। इसीलिए आज कुलपतियों का मूल्यांकन उनकी ज्ञान-क्षुधा से नहीं, भवन-निर्माण से किया जाता है।
आजकल देश से लेकर विदेश तक ‘क्लाइमेट चेंज’ को लेकर चर्चा का बाजार गरम है। इस विश्वविद्यालय में भी इसकी खूब चर्चा है। जैसे-चर्चा बढ़ती गई, वैसे-वैसे इस परिसर की पारिस्थितिकी तंत्र पर खतरा बढ़ता गया। विश्वविद्यालय में जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई, वैसे-वैसे वृक्षों की संख्या घटती गई। केवल खानापूर्ति के लिए सरकारी वृक्ष खूब लगे। आज परिणाम यह है जो चौराहे कभी विशाल वृक्षों से आच्छादित हुआ करते थे, वे अब सूने और वीराने से लगते हैं। प्रवेश द्वार के निकट महिला महाविद्यालय और विश्वनाथ मंदिर का चौराहा इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। मेरा बचपन इसी विश्वविद्यालय में गुजरा है। इसकी सोंधी गंध आज भी मुझे आकर्षित करती है पर यह विशाल परिसर समय के साथ चौतरफा असुरक्षित होता चला गया है।
इतिहास इस बात का गवाह है कि किसी विवि का नाम सिर्फ उसके पूर्वजों के गौरवगान से नहीं अपितु उसका वर्तमान किस हद तक समय के साथ मुक़ाबले के लिए तैयार है, उससे जाना जाता है। पढ़ाई-लिखाई से लेकर उच्च कोटि की लाइब्रेरी किसी भी शिक्षण संस्थान की जान हुआ करती है। अत्यंत क्षोभ के साथ कहना पड़ रहा है इस विश्वविद्यालय में लाइब्रेरी की दशा सबसे खराब है। पिछले एक दशक से यह अपनी दुर्दशा के चरम पर है। पुस्तकों की खरीद-फरोख्त से लेकर नियुक्तियों में हुआ फर्जीवाड़ा ही इस केंद्रीय ग्रंथालय की पहचान बन गया है। क्या मजाल कि वहां लड़कियां ‘स्टैक’ में निश्चिंततापूर्वक पुस्तकें खोज सकें। वहां भी शोहदों की नजरें उनके इतिहास-भूगोल पर लगी ही रहती हैं।
बहादुर लड़कियों ने जब अपने दम पर आंदोलन को खड़ा करते हुए अपने आक्रोश को अभिव्यक्ति देते हुए सिंहद्वार पर ‘अनसेफ बीएचयू’ लिखा, तो विश्वविद्यालय में अपनी पैठ बना चुके भगवा-ब्राह्मण किले के खानाबदोशों को सबसे अधिक चिंता उसके ‘सुलेख’ को लेकर हुई। इन दलालों ने घोषित कर दिया कि यह सुलेख तो राष्ट्रवादियों/मालवीय प्रेमियों का तो हो ही नहीं सकता। अर्थात् अच्छी लिखावट उनके बस की बात नहीं है। वस्तुत: इस स्वत:स्फूर्त आंदोलन को बदनाम करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने हर हथकंडे अपनाए। इसके लिए धेलेबाजी से लेकर पेट्रोल बम तक का सहारा लिया गया। बात-बात में बम मारने-चलाने की कला वस्तुत: प्रयाग की धरती की उपज है न कि काशी की। हंसी तब और आती है जब एक तरफ भगवा-ब्राह्मण किले में परिवर्तित बीएचयू का वर्तमान इतिहास अपनी बरबादी पर अट्टहास कर रहा है और हम वीरगाथा काल के चारणों की तरह ‘मेरे मालवीय तो महान है’ विषय पर ललित-निबंध लिख रहे हैं। लब्बोलुआब यह कि विश्वविद्यालय यदि आज भी अगर कुछ लोगो को सुरक्षित लग रहा हो तो उसे शुतुरमुर्गी खयाल से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है। सच तो यह है कि ‘मालवीयजी का यह जीवंत मूर्तिमान विग्रह’ जातिवादी-दंश के कारण कत्तई महफूज नहीं है।