(आजकल अस्मितावादी विमर्श के प्रमुख चेहरे और इंडिया टुडे के संपादक समेत देश के कई पत्रकारिता संस्थानों में अहम पदों पर रह चुके वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल और वामपंथी कार्यकर्ताओं के बीच बहस छिड़ी हुई है। छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया को धमकाने पर दिलीप मंडल की फ़ेसबुक टिप्पणी के बाद यह बहस तीखी हो उठी है। जेएनयू के शोधछात्र और आइसा से जुड़े बृजेश यादव ने दिलीप मंडल की तमाम वामविरोधी टिप्पणियों को आधार बनाते हुए एक लेख लिखा है। यह बहस महत्वपूर्ण है और इसे साफ़ नीयत से आगे बढ़ाया जाए तो तमाम ज़रूरी प्रश्नों के जवाब मिल सकते हैं। हमें ख़ुशी होगी अगर दिलीप मंडल बृजेश यादव की स्थापनाओें का लिखित प्रतिवाद करें-संपादक)
जेएनयू में ओबीसी फोरम के अभिभावक दिलीप मंडल ने बेला भाटिया पर बस्तर में किये गए हमले के बारे में एक बयान जारी करके एकसाथ कई बातों को साफ़ कर दिया है। दिलीप जी का कहना है कि लक्ष्मणपुर बाथे समेत कई मामलों में सवर्ण ही हमलावर थे, बेला भी उन्हीं के बीच की हैं, तो अब जब बेला पर अटैक हुआ है तो सवर्ण उनका बचाव करें, ओबीसी को पहले अपने बचाव के बारे में सोचना चाहिए। उनका कहना है कि सवर्ण बेला भाटिया पर हुए हमले के बारे में किसी ओबीसी को चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
‘‘विकास विरोधी’’ ‘‘माओवाद समर्थक’’ बेला को छत्तीसगढ़ पुलिस बस्तर से क्यों खदेड़ना चाहती है, छत्तीसगढ़ में ऐसा क्या चल रहा है कि बेला भाटिया अपना चमकता कैरियर छोड़कर आदिवासियों के बीच रह रही है – इस दिशा में देखते तो बेला समेत कई कार्यकर्ताओं को खदेड़ने, पत्रकारों को जेल में बंद करने के उद्देश्य पर कुछ रौशनी पड़ सकती थी लेकिन दिलीप जी यह सब नहीं सोचते या समझना नहीं चाहते! ‘क्या हो रहा है’ से अधिक उनकी रुचि इसमें है कि ‘किसके साथ हो रहा है’। प्रोसेस नहीं, पर्सन प्रमुख है। (यह अवतारवादी चिंतन का केन्द्रबिन्दु है जहां से ब्राह्मणवाद को रसद मिलती है।)
सवाल यह है कि दिलीप मंडल जिस सोशल जस्टिस की बात करते हैं वह इतना विभाजित (सेलेक्टिव) क्यों है? ओबीसी को सबसे पहले और सबसे ऊपर रखने से ब्राह्मण ही नहीं, दलित या आदिवासी भी ‘‘अदर’’ हो जाता है। इस प्रकार जब सभी अस्मिताएं एक दूसरे की ‘‘अदर’’ हैं तो इस पूंजीवादी तंत्र में ‘‘तरक्की’’ करने के लिए आपस में ही कंपटीशन व संघर्ष हो के रहेगा! फिर आरक्षण चाहिए। बात यह है कि वंचित समुदाय का विचारक इतनी मोटी बात क्यों नहीं समझ पा रहा है कि सेलेक्टिव सोशल जस्टिस की मांग, ‘बांटो और राज करो’ की होलिस्टिक राजनीति की शिकार हो जाना है। ओबीसी या किसी भी अस्मिता को आगे करके की जा रही यह मांग दरअसल सामाजिक न्याय विरोधी मांग है, लोकतंत्र के खि़लाफ़ तो वह है ही! हद यह है कि यह मांग खुद उस समुदाय के खि़लाफ़ है – ‘‘आगे बढ़ने’’ के ख्वाहिशमंद कुछ लोगों का इससे चाहे जो भी भला हो ले!
दिलीप मंडल की संकट अब आप देख लीजिए। वे ओबीसी के लिए आरक्षण के रास्ते सामाजिक न्याय मांग कर रहे हैं, बेला भाटिया को बस्तर से खदेड़ने को वे कोई मुद्दा नहीं मानते – यहां तक ठीक है – बात यह है कि बेला के संघर्ष और उन्हें बस्तर से निकालने के उद्देश्यों की अनदेखी करके दिलीप मंडल आदिवासियों की जल जंगल जमीन की लड़ाई के साथ दगा ही नहीं कर रहे हैं बल्कि पुलिसिया उत्पीड़न और सरकारी जुल्म की ख़ामोश हिमायत कर रहे हैं?
इस बात को साफ साफ देख लीजिए कि केवल अपनी आइडेंटिटी के लिए सामाजिक न्याय की मांग के चक्कर में उलझना, रूलिंग क्लास की हिंसा हत्या लूट झूठ की होलिस्टिक परियोजना का हिस्सा बन जाना है, मगर इसकी कोई भनक दिलीप जी को नहीं है! एक आइडेटिंटी के लिए न्याय की मांग करनेवाला, दूसरी आइडेंटिटी के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ चल रहे संघर्ष के सिपाही को घसीटे जाते देखकर अगर मुँह फेर ले रहा है तो वह जिस ‘‘व्यक्तिवादी’’ न्याय की मांग कर रहा है – वह मुद्दे के साथ, संघर्ष के साथ, जनता के साथ ही नहीं, सामाजिक न्याय के सवाल के साथ और लोकतंत्र के साथ धोखाधड़ी है। सवाल यह है कि दिलीप मंडल एक साथ कितने मोर्चों पर ‘‘कामयाब’’ होना चाहते हैं?
अस्ल में खिलाड़ी जब यह भूल जाता है कि वह खेल का हिस्सा है तो उस सूरमा खिलौने की जो गति होती है वही इस समय दिलीप मंडल की हो रही है। अस्मिता की राजनीति करने वाले सभी लोगों का यही हाल है। वे बहुत फुर्ती दिखाने के चक्कर में अपनी ही बिल में घुसे जा रहे हैं और इस ‘‘मंगलमय यात्रा’’ में व्यवधान खड़ा करने वालों को ऊँची आवाज़ में फटकारते जा रहे हैं।
दिलीप मंडल के ‘ओबीसी एक्टिविस्ट’ का सच यह है कि वह इस सामंती-पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा पैदा किया हुआ नियो लिबरल भस्मासुर है। मानसिक रूप से अंधा और वैचारिक रूप से बहरा रूलिंग क्लास का यह तरक्कीपसंद ‘‘खिलौना’’ सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के खिलाफ तो है ही, वह अपने ओबीसी समुदाय के खिलाफ होने से पहले खुद अपने खिलाफ है। अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि यह भस्मासुरी चेतना वंचित समुदाय के ‘‘आगे बढ़ चुके’’ विद्वानों के ठाकुरद्वारे तक घंटी हिला रही है। कविताओं, कहानियों से लेकर विमर्श तक इस भस्मासुर की पहुँच बढ़ती जा रही है। हश्र यह कि वे अपने वास्तविक अनुभव का अर्थ अनर्थ भी नहीं बूझ पा रहे।
दिलीप जी की तर्कपद्धति का एक सिरा यह है कि ओबीसी कहीं भी हो वह अपना है, बाकी सब ग़ैर हैं। बेला भाटिया अपना चमकता हुआ कैरियर छोड़ आदिवासियों के बीच काम कर रही हैं – इस बात का कोई महत्व या मतलब इसलिए नहीं है क्योंकि वे ओबीसी नहीं है! नरेन्द्र मोदी की सरकार नफ़रत की राजनीति करके कॉरपोरेट का बिजनेस बढ़ा रही है मगर बीए एमए की फर्जी डिग्री धारक, सामूहिक हत्याकांड का अपराधी, भारत की संप्रभुता का ‘संस्कारवान’ दलाल अपना ठहरा, क्योंकि मोदी ओबीसी है।
आईडेंटिटी पॉलिटिक्स का यह उलझाव देखिए और यह समझने की कोशिश कीजिए कि सामाजिक न्याय के स्वयंभू अलम्बरदार दिलीप मंडल क्या कर रहे हैं और किस तरह के समीकरण सेट करने की फिराक में कहां उलझ रहे हैं? यहां से आप ओबीसी फोड़म की राजनीति को भी बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
2.
जेएनयू में ओबीसी फोरम की ओर से चल रही भूख हड़ताल गोकि समाप्त हो गई है लेकिन ताज़ा घटनाक्रम यह है कि एबीवीपी, ओबीसी फोरम के समर्थन में सामने आ गया है। दिलीप मंडल की मोदी सरकार में कहां तक रसाई है, यह तो हम नहीं जानते लेकिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के साथ ओबीसी फोरम के तालमेल में कुछ तो ‘‘अपना’’ है!! जिसकी निरंतरता आप दिलीप मंडल के बयान में भी देख सकते हैं।
आप देखें कि गुलामों दासों के वंशजों की एक समस्या यह है कि वे स्वतंत्र होकर भी जो कुछ करते हैं वह उनके खि़लाफ़ होने से पहले उनके शत्रुओं के हक़ में होती है। यह समूचे वंचित समुदाय की कठिनाई है। पेंच यह बन रहा है कि उनकी पहली घोषित शत्रुता उसी से ठन रही है जो उनका वास्तविक मित्र है या हो सकता है। मिसाल के तौर पर, जेएनयू में जिस आइसा ने 2008 से 2010 तक सुप्रीम कोर्ट तक लड़कर ओबीसी रिजर्वेशन को लागू करवाया, उसी आइसा को ओबीसी फोड़म के पराक्रमी इन दिनों सामाजिक न्याय विरोधी और अपना दुश्मन नंबर एक बता रहे हैं।
आरक्षण विरोधी एबीवीपी से इनका कोई झगड़ा नहीं है। उस समय आइसा की टांग खींचने में जुटे एसएफआई व एआईएसएफ से वाम होने की वजह से जो भी दिक्कत हो पर आरक्षण के मसले पर इनका मुख्य आत्मघाती निशाना आइसा की ओर है।
आप समझिए कि जेएनयू से जिस लेफ़्ट को उखाड़ने में कांग्रेस भाजपा की सरकारें लिंगदोह लागू करने समेत सारा तिकड़म करके नाकाम रहीं, ट्रिपल बी जैसे वाइस चांसलर का कैरियर ख़राब हो गया, उस लेफ्ट को आजकल ये लोग नह-दांत देकर खुरचने में तल्लीन हैं। बहस का, विचार का वह डेमोक्रेटिक स्पेस, वह मंच ही ख़तम कर देना चाहते हैं ये लोग – जिस स्पेस की बदौलत ये वहां दाखि़ला पा सके। इस ‘बहादुरी’ को देखिए। यह वंचित की समस्या का शायद सबसे विकराल रूप है। मोदी सरकार से, राइट विंग से नहीं, इन तथाकथित अंबेडकरवादियों और सामाजिक न्यायवादियों की पहली लड़ाई वाम से है। आरक्षण के कंधे पर सवार सामाजिक न्याय की राजनीति, वंचित समुदाय के अंदर जिस तबके का विकास कर रही है, उसके प्रतिनिधि हैं ये लोग।
संघी सामंती शक्तियों के खि़लाफ़ देशभर में लेफ़्ट-अंबेडकराइट व्यापक एकता बनाये जाने की ऐतिहासिक ज़रूरत हो तो हो, इनकी बला से। ये लोग अपना आत्मघाती कार्यभार जोते हुए हैं। वॉयवा का नंबर घटे, फैकल्टी की नियुक्तियों में आरक्षण लागू किया जाए – इस लड़ाई में इनकी तोपों का निशाना जेएनयू प्रशासन और मानव संसाधन मंत्रालय से पहले लेफ़्ट की ओर और लेफ़्ट में भी आइसा की ओर है। गोया आइसा को नेस्तनाबूद किये बगै़र यह संघर्ष आगे बढ़ ही नहीं सकता। इनके संघर्ष से जेएनयू प्रशासन को जो शह मिल रही है, आइसा पर निशानाबाजी करने से गरीब पिछड़े विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए उपलब्ध इस डेमोक्रेटिक स्पेस को जो क्षति पहुँच रही है – इसकी कोई चिंता, कोई भनक इन फाइटर्स को दूर दूर तक क्यों नहीं है – इसे आप देख लीजिए। इनके परचे देख लीजिए, इनके बयान सुन लीजिए।
फिर भी कोई कसर बच रही हो तो इनके प्रेरणास्रोत दिलीप मंडल की बेशर्मी देख लीजिए। उन्हें विनिवेश के नाम पर ठेकेदारी का विकास नहीं दिख गया, आतंकवाद के नाम पर बेकसूर नौजवानों का एनकाउंटर नहीं दिख रहा, जन-धन की चौतरफा लूट नहीं दिख रही, किसी असली निशानेबाज की तरह उन्हें केवल बेला भाटिया की जाति दिख रही है। बयान में लक्ष्मणपुर बाथे के साथ बेला को जिस तरह जोड़ा है दिलीप मंडल ने – वह दृष्टिहीनता से बढ़कर दिमाग़ी दिवालियापन का सबूत है।
ओबीसी फोड़म के पहरुओं के विकृत बोध की हद यह है कि ये कुछ पढ़ या सुन लें तो भी गेंद से बल्ले की मुलाक़ात नहीं हो पाती। ये नहीं जानते कि जो ये बोल रहे हैं वह कोई और भी बोला है या वह ‘ज्ञान’ डायरेक्ट इनके भेजे में अवतरित हो गया है। किसी डेमोक्रेटिक स्पेस का दुरुपयोग किस हद तक किया जा सकता है – यह देखना सुनना हो तो इनकी जद्द बद्द सुनिये और इनकी बेशऊर अक़्ल-बंद हरकतें देखिये। इन्हें नहीं मालूम कि जिस जेएनयू में ये लोग आये हैं उसकी ईंट दर ईंट सिरजने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी कितनी जद्दोजहद घटी है। इन्हें बता भी दिया जाए तो इनके पल्ले कुछ नहीं पड़ सकता। यह स्थिति है। ग़नीमत सिर्फ़ यह है कि जेएनयू का वृहत्तर दलित ओबीसी आदिवासी स्त्री मॉइनारिटी छात्र समुदाय इनकी आत्मघाती थियेटरबाजी के व्यक्तिवादी कुंठित इरादों को भलीभाँति समझता है। समता बराबरी के योद्धाओं को सामंती पूँजीवाद के दलाल, अंधकार अज्ञान के कैरियर इन मिर्ची-सेठों का भी निस्तारण करना होगा।
स्पष्ट है कि समस्या पर्सन में नहीं, प्रोसेस में है, सामंती खंडहरों पर विकासमान इस पूँजीवादी तंत्र के क्रिया व्यापार में है – जो अपनी हर गतिविधि में अंधकार अज्ञान के कैरियर पैदा करके भेदभाव के एक से एक कलात्मक चित्र उरेह रहा है। निश्चय ही ब्राह्मण इस व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभार्थी है लेकिन हर बात में ब्राह्मणों की तादाद गिनने से कोई फ़ायदा नहीं, क्योंकि मसअला उँच-नीच की विकास प्रक्रिया के विरोध का है, इक्वलिटी की दिशा में संघर्ष को तेज़ करने का है। जो लोग आरक्षण के सहारे इस बाभन-बनिया तंत्र में नौकरी खट रहे हैं, वे अपने अपने समुदाय के ‘श्रेष्ठ’ बन गए हैं। कुछ नौकरी-ग्रस्त दलित ओबीसी आदिवासी तो महाबाभनों से भी निकृष्ट ‘सुपीरियर’ हैं। दिलीप मंडल हर मौक़े पर पुराने बाभन की गणना पेश करके सामाजिक न्याय के नाम पर नया बाभन पैदा करने की माँग करते रह रहे हैं – यह चिंतन पद्धति खुद ब्राह्मणवादी है, पर्सन केन्द्रित है, पदार्थवाद विरोधी है, अवतारवादी है। आरक्षण और नौकरी के रास्ते ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष को आगे बढ़ाने के ख्वाब जितनी जल्दी ठीक कर लिये जाएंगे, वंचितों के हक़ के हक़ में यह उतना ही अच्छा होगा। मज़दूरों का राज क़ायम किया जाना है तो मध्यवर्गीय चेतना के नौकरों के भरोसे यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती – कान से मोबाइल की कनपेली निकालकर यह बात साफ साफ सुन लीजिए।
.बृजेश यादव