विजेंद्र सिंह चौहान
इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के छात्र व शिक्षकों में एक बैचैनी का माहौल है। बेचैनी का सबब है एमफिल की प्रवेश परीक्षा। हाल के सालों में शिक्षा नीति की रुग्णता के चलते सरकारी विश्वविद्यालयों में एकदम जड़ता की स्थिति है तथा सालों से किसी भी कोर्स में सीटों की संख्या में कोई इजाफा नहीं हुआ है। बीए या एमए जैसे पाठ्यक्रमों के बाद रोजगार के अवसर लगभग शून्य हैं नतीजतन रिसर्च डिग्री में आवेदकों की सख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। हिन्दी साहित्य जैसे पाठ्यक्रम में भी महज 25 सीटों के लिए 875 विद्यार्थियों ने परीक्षा दी है। जाहिर है दाखिले में भारी मारामारी है।
हमारे समाज का सच यह है कि जब संसाधन कम हों तो उस पर पहला हक दबंग और ऊंचे तबके का होता है इसके लिए भले ही पिछड़ों के मुँह से उनका जायज निवाला भी क्यों न छीनना पड़े। बिल्कुल यही फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय में हो रहा है। हालत ये है कि प्रवेश परीक्षा में 400 में से 263 अंक पाए सामान्य वर्ग के प्रतिभागी को साक्षात्कार का बुलावा दिया गया है जबकि ओबीसी वर्ग में 289 अंक पाए विद्यार्थी को यह अवसर नहीं दिया गया।
यह जितना कॉमन सेंस के खिलाफ है उतना ही संवैधानिक प्रावधानों, विश्वविद्यालय के नियमों के भी। किंतु विभाग के अध्यक्ष तथा प्रवेश परीक्षा से जुड़े ऊँची जाति के प्रोफसर इस सामान्य सी दिखने वाली विसंगति को देखने और इसे सुधारने से इंकार कर रहे हैं। विभाग के अन्य प्रोफेसर अकेले में तो मान रहे हैं कि यह सामाजिक न्याय और नियमों के खिलाफ है किंतु खुलकर यह कहने से बच रहे हैं। ज़ाहिर है पिछड़े वर्ग के चंद छात्रों के लिए प्रोजेक्ट, नियुक्तियों तथा अन्य स्वार्थों का जोखिम लेना फायदे का सौदा जो नहीं है।
हिन्दी विभाग की प्रवेश परीक्षा की यह धॉंधली इस मायने में और चिंताजनक है कि यह कोई एकल भ्रष्टाचार नहीं है वरन व्यवस्थागत अनाचार है। इसके तहत किया यह गया है कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को केवल उनकी श्रेणी में आवेदक स्वीकार किया जा रहा है जबकि नियम यह है कि जो आवेदक मेरिट के अनुसार अनारक्षित श्रेणी में योग्य पाए जाते हैं उन्हें अनारक्षित ही माना जाता है तथा अनारक्षित वर्ग की सूची समाप्त होने के बाद आरक्षित वर्ग के अन्य अभ्यर्थियों को जोड़ा जाता है। अर्थात अनारक्षित वर्ग का अर्थ अनारक्षित मात्र होता है न कि सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित होना।
हिन्दी विभाग के इस उदाहरण से समझें तो यदि नियम कायदों का सही पालन किया जाता तो समान्य वर्ग की कटआफ 290 होनी चाहिए थी तथा इसके बाद के 18 और ओबीसी छा्त्रों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाना चाहिए था जिनकी कटआफ मौजूदा परिणाम में 255 अंक होनी चाहिए थी। स्वाभाविक है विद्यार्थी इसके खिलाफ आंदोलित हैं तथा परिणाम को ठीक करने की मॉंग कर रहे हैं वहीं इस मामले ने विश्वविद्यालय में सवर्ण तथा आरक्षित विद्यार्थियों के बीच दरार पैदा कर दी है। यह तर्क किसी को समझ नहीं आ रहा है कि मात्र 15 फीसदी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले समूहों को 51 फीसदी आरक्षण कैसे दिया जा सकता है।
वहीं दूसरी ओर इस बात को भी लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है कि हिन्दी जैसे कम मॉंग वाले विभाग तक में केवल 25 सीटों के लिए 870 आवेदन आने का सबब क्या है? जाहिर है शोध में सो भी प्रबंधन, कंप्यूटर या अर्थशास्त्र नहीं वरन सूर कबीर तुलसी यानि साहित्य में, अचानक कोई रुचि का विस्फोट नहीं हो गया है अपितु यह बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी का ही एक सूचक है। एमए तथा नेट/जेआरएफ पास विद्यार्थी तक केवल इस उम्मीद में शोध की दिशा में आ रहे हैं कि जो थोड़ी बहुत राशि फेलोशिप के रूप में प्राप्त होगी उसके ही भरोसे बुछ और समय काटा जा सकेगा।
उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में भी दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों के आधे से ज्यादा पद रिक्त हैं तथा इन पर चार चार महीने की अवधि की एडहॉक बहाली के बूते काम चलाया जा रहा है। ये एडहॉक शिक्षक बेहद अपमानजनक तथा असुरक्षित सेवा शर्तों के तहत काम करते हुए विश्वविद्यालय का अधिकांश बोझ अपने ऊपर उठाए हुए हैं।
एक रोचक अंतरकथा हिन्दी विभाग के अंदर इस धॉंधली पर प्रतिक्रिया को लेकर सामने आती है। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी शिक्षकों की संख्या लगभग छ: सौ है जिनमें से 22 शिक्षक विभाग में तथा शेष विभिन्न कॉलेजों में हैं। उल्लेखनीय है कि इन शिक्षकों में से कई जाने माने लेखक हैं तथा कई का लेखन तथा सक्रियता का क्षेत्र सामाजिक न्याय ही है। विश्वविद्यालय की बेवसाइट पर इन विद्वानों के नाम तथा विभिन्न प्रोजेक्ट तथा पुस्तकों की जानकारी मिलती है जिनमें सामाजिक न्याय तथा इससे जुड़े विषय भी शामिल हैं किंतु इस मामले में संघर्ष के लिए मुट्ठी भर शिक्षक ही सामने हैं, उनमें भी कई एडहॉक के रूप बेहद असुरक्षित नौकरी कर रहे हैं।
इस मामले में विभाग का पक्ष बेहद टालमटोल वाला है। उनकी ओर से पहली सफाई तो यह है कि उन्होंने पहले से चली आ रही प्रक्रिया का ही पालन किया है, जाहिर है यह बेहद लचर तर्क है क्योंकि किसीभी गलती को कभी भी सुधारा जा सकता है। यदि पहले से चली आ रही प्रक्रिया दोषपूर्ण है तो उसे सुधार लेने में क्या दिक्कत है। एक अन्य तर्क यह दिया गया कि अभी प्रक्रिया चल रही है जब अंतिम परिणाम आएगा उसमें आरक्षित वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। यह तर्क भी हास्यास्पद ही है क्योकि जिन आरक्षित छात्रों को सामान्य वर्ग के छात्रों से भी अधिक अंक होने के बावजूद साक्षात्कार का बुलावा ही नहीं दिया गया उनसे तो अवसर छिन ही गया अत: इसका उपचार तो संभव ही नहीं है।
उल्लेखनीय है विभाग में लिखित परीक्षा को केवल स्क्रीनिंग परीक्षा मान लिया जाता है तथा प्रवेश पूरी तरह साक्षात्कार के आधार पर लिया जाता है यानि वहॉं पूरी तरह पसंद नापसंद व भाई भतीजावाद/जातिवाद की गुंजाइश रहती ही है। उल्लेखनीय है लिखित परीक्षा के परिणाम भी बेहद संदेहास्पद दिखाई दे रहे हैं क्योंकि शीर्ष स्थान के प्राप्तांक (387/400) दिख रहे हैं जिसके बाद सीधे 330 अंक हैं। कोई भी शिक्षक जानता है कि 875 परीक्षार्थियों की वस्तुनिष्ठ परीक्षा में इस स्तर पर 57 अंक का अंतर असंभव है। उल्लेखनीय है कि 387 अंक पाने वाले अभ्यर्थियों का विभाग के इस परीक्षा से जुडे़ एक शिक्षक के परिवार से होने की जानकारी खुद विभाग में है तथा आशंका व्यक्त की जा रही है कि परीक्षा की शुचिता से समझौता हुआ है किंतु पुन: इस मामले में भी सभी मौन ही हैं।
विजेंद्र सिंह चौहान
ब्लॉगर व स्तंभकार (डॉ.) विजेंद्र सिंह चौहान हिन्दी के शुरूआती ब्लॉगरों में से हैं। यूनीकोड-पूर्व युग में उनके संपादन में ‘इत्रिका’ हिन्दी की आरंभिक इंटरनेट पत्रिका थी। इनकी पुस्तक ‘मीडिया व स्त्री:एक उत्तर विमर्श’ भारतेंदु हरिश्चंद्र राष्ट्रीय पुरस्कार (भारत सरकार) से सम्मानित कृति है।
संप्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर ।