‘इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं !’ -भगत सिंह
बेशक आज उन्हें एक महिला को प्रॉक्टर लगाना पड़ा हो लेकिन बीएचयू देश का एकमात्र विश्वविद्यालय है जिसके परिसर में पुरुष प्रधानता के चरम प्रतिरूप आरएसएस का दफ्तर खुला हुआ है. वर्तमान कुलपति त्रिपाठी ने यह सुविधा देते हुए संस्थापक के समय की परंपरा का हवाला दिया था. माना जाता है, मदनमोहन मालवीय को आरएसएस मूल्यों की खातिर मोदी सरकार ने भारत रत्न से नवाजा है. अब बेशक, छात्राओं के यौन उत्पीड़न पर विस्फोटक विरोध के चलते, मोदी और योगी, कुलपति को बलि का बकरा बनाने को विवश हैं, सच्चाई यह है कि त्रिपाठी का इस पद पर चयन मोदी की ही कृपा का नतीजा है.
2014 में मोदी को बनारस संसदीय क्षेत्र से नामांकन भरने के लिए जरूरी लगा कि उनके प्रस्तावकों में मदनमोहन मालवीय के निकट परिवार से भी कोई हो. कई सदस्यों के मना करने के बाद मालवीय जी के पौत्र जस्टिस गिरधर मालवीय ने यह भूमिका निभाई. इस कर्ज को उतारने के लिए गिरधर मालवीय को बीएचयू के कुलपति चयन के लिए बनी सर्च समिति का अध्यक्ष बना दिया गया. त्रिपाठी, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में एक घोर ब्राह्मणवादी फैकल्टी थे, गिरधर मालवीय के इलाहाबाद स्थित एनजीओ में सेक्रेटरी का काम भी देखते थे. बस उनके बीएचयू का कुलपति बनने का रास्ता साफ़ हो गया.
वामपंथी विचारक अरुण महेश्वरी, ने वर्तमान बीएचयू घटनाक्रम पर निम्न टिप्पणी की-
बीएचयू के कुलपति जी सी त्रिपाठी ने छेड़खानी करने वाले लड़कों के बारे में कहा है – ‘आखिर वे लड़के हैं, ऐसा तो करेंगे ही । लड़कियों को उनसे दूर रहना चाहिए । शाम छ: बजे के बाद सड़क पर नहीं निकलना चाहिए और अपने कमरों की खिड़कियाँ बंद रखनी चाहिए ।‘
क्या इस प्रकार आरएसएस-भाजपा भारत में बलात्कारियों के लिये सामाजिक स्वीकृति की एक नई ज़मीन तैयार कर रही है ?
कुलपति बहुत गर्व से यह भी कहता है कि वह संघ का स्वयंसेवक है । क्यों न उसकी बातों को आरएसएस-भाजपा की बातें ही मानी जाए ?
याद आती है एक पुरानी बात । आरएसएस पर अपने अध्ययन के दौरान हमने पाया था कि उसके स्थापनाकर्ता हेडगवार संघ में औरतों के प्रवेश के विरोधी थे । हमने उनका यह वक्तव्य देखा था कि आदमी और औरत का संबंध घी और आग के बीच का संबंध होता है । दोनों अग़ल-बग़ल में होने से ताप तो होगा ही । इसीलिये संघ की महिला शाखा की स्थापना भी काफी बाद में की गई । उसकी अपनी अलग कहानी है ।
क्या संघी कुलपति इसी दक़ियानूसी बात को नहीं दोहरा रहा है ?
क्या भारत में बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं को सीधे सांप्रदायिक राजनीति के उत्थान के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है ?
आरएसएस के फासिस्ट चरित्र के अनुकूल त्रिपाठी के कार्यकाल में, निलंबित बीएचयू स्टूडेंट यूनियन को पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. जबकि मनोज सिन्हा और महेंद्र नाथ पांडे के रूप में विश्वविद्यालय के दो पूर्व अध्यक्ष मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किये गए. पांडे तो अब प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बनाये जा चुके हैं. आरएसएस की प्राथमिकताओं का अंदाजा उनके समर्थकों के इस बार-बार दोहराये गए दावे में झलकता है कि बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देंगे. यही मर्दाना फोबिया कुलपति त्रिपाठी के उपरोक्त निर्देशों के भी पीछे है.
सोचिये, जेएनयू स्टूडेंट यूनियन पर काबिज होने के लिए आरएसएस इतना उद्वेलित क्यों दिखता है? इस बार उनके छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद के जेएनयू छात्र संघ चुनाव में गत वर्षों के मुकाबले कुछ वोट क्या बढ़ गए, वे इन आंकड़ों को बंदरिया के मरे बच्चे की तरह छाती से चिपटाए छलांगे लगाते देखे जा रहे हैं| उधर दिल्ली विश्वविद्यालय स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष पद पर पांच वर्ष बाद कांग्रेसी छात्र संगठन एनएसयूआई को मिली जीत का जश्न पार्टी ने ऐसे मनाया जैसे वे लोकसभा आम चुनाव जीत गए हों! इसी तरह, साल दर साल जो लेफ्ट जेएनयू में जीतता चला आ रहा है, उनकी पार्टियों ने ही क्या राजनीतिक तीर मार लिए?
दुनिया के विभिन्न देशों में ‘स्टूडेंट यूनियन’ कहने से जो भी मतलब ध्वनित होता हो, भारत में यह संसदीय राजनीति का ही पूरक रहा है| अंग्रेजी शासन के विरुद्ध, राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़ने के गांधी जी के छात्रों से बलिदानी आह्वान ने इस भागीदारी को अमिट आभा मंडल प्रदान किया| स्वतंत्र भारत में छात्र राजनीति के कई उतार-चढ़ाव भरे दौर देखे गये, और उसी अनुपात में इस आभा की चमक भी तेज, मंद या फीकी रही| सत्तर के दशक का जेपी आन्दोलन, 89-90 का मंडल आरक्षण संघर्ष और हालिया कन्हैया कुमार जेएनयू प्रकरण बताते हैं कि सत्ता राजनीति के लिए स्टूडेंट यूनियन पर भौतिक और वैचारिक पकड़ बनाना महत्त्व क्यों रखता है|
छात्र और राजनीति के परस्पर हीरावल सम्बन्ध पर राष्ट्र के सार्वकालिक आइकॉन भगत सिंह के 1928 में कलम बद्ध विचारों से आज भी प्रेरणा लेने वालों की कमी नहीं है| उनकी टिप्पणी के ये अंश देखिये-
‘इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान राजनीतिक या पोलिटिकल कामों में हिस्सा न लें । पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है । विद्यार्थियों से कालेज में दाख़िल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं कि वे पोलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे । आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की और से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा मंत्री है, स्कूल कालेजों के नाम एक सर्कुलर भेजता है कि कोई पढ़ने पढ़ाने वाला पालिटिक्स में हिस्सा न ले ।’
“………. हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फ़िज़ूल होती है। विद्यार्थी युवा-जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता । उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता । जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं लेकिन वे ऐसी कच्ची कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफ़सोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता । जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज ही अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है । इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए । यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं है ? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए हासिल की जाए । ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है ? कुछ ज़्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं कि काका तुम पालिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो ज़रूर लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो । तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फ़ायदेमन्द साबित होगे ।“
स्वतंत्रता मिलने के बाद भारतीय नीतिकारों ने सहज ही शिक्षा को रोजगार से जोड़ दिया| यह समाज में तेजी से पसरते मध्य वर्ग की आशाओं के अनुरूप भी था| हालाँकि साठ के दशक के बीतते न बीतते इस गुब्बारा कवायद का फटना जग जाहिर भी हो गया| समझना मुश्किल नहीं कि दिशाहीन स्टूडेंट यूनियन का एक लम्बा दौर इसी की परिणति रहा होगा| इसी तरह नब्बे के दशक में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण से नत्थी होती अर्थव्यवस्था ने स्टूडेंट यूनियनों के पालतू और पिछलग्गू चरित्र को रेखांकित किया| अंततः, आरएसएस की फासिस्ट जिद से गरमाये कन्हैया कुमार-रोहित वेमुला प्रकरण को स्टूडेंट यूनियन के जुझारूपन को रेखांकित करने का श्रेय दिया जाना चाहिए| बिना स्टूडेंट यूनियन के भी, बीएचयू का ताजा लैंगिक प्रकरण इसी कड़ी में है|
फिलहाल, नयी सहस्राब्दी के भारत में पारंपरिक किताबी शिक्षा के बजाय कौशल केन्द्रों पर जोर है| जिस अनुपात में इस व्यवस्था को रोजगार के रास्तों से जोड़ा जा सकेगा, वह आगामी वर्षों में स्टूडेंट यूनियन गतिविधियों का मानक बनेगा| अमेरिका में स्टूडेंट यूनियन का मतलब छात्रों के सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र से होता है, न कि उनकी राजनीतिक और आर्थिक हताशा को हवा देने वाले अवसरों से| उन्होंने अपने नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा और उनके सामुदायिक सामंजस्य को लेकर जो लोकतांत्रिक मंजिलें तय की हैं, यह उसका भी असर है|
मुझसे पूछिए तो मैं भगत सिंह के जन्म दिन पर, आरएसएस ही नहीं, किसी भी स्टूडेंट यूनियन के सामने बतौर चुनौती, भारतीय विवेक ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को सांस्कृतिक परचम बनाने का कार्यभार रखना चाहूँगा| कैंपस में, पितृसत्ता, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, राष्ट्रवाद जैसे फासीवादी मूल्यों या समाज निरपेक्ष शिक्षा की भूल-भुलैया से निकलने की सार्थक राजनीतिक पहल को संभव करने के लिए, इन्कलाब जिंदाबाद !
(अवकाश प्राप्त आईपीएस, विकास नारायण राय हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।)