बीते पांच साल के एनडीए के शासन में जो सबसे बड़े पत्रकारीय उद्घाटन हुए और जो विवाद सबसे लंबे समय तक चले, उनमें निर्विवाद रूप से जस्टिस बीएच लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत का मामला सबसे बड़ा था जिसे ‘’दि कारवां’’ पत्रिका ने सामने लाने का काम किया और बाद में कई अन्य पत्रकारों ने उसकी अलग-अलग परतों को उघाड़ा। अंग्रेज़ी और हिंदी भाषी मुख्यधारा के मीडिया में जस्टिस लोया से जुड़ी खबरें तकरीबन नदारद रहीं। हिंदी में मीडियाविजिल और जनचौक ऐसे दो पोर्टल रहे जिन्होंने लगातार आ रही कहानियों का तर्जुमा अपने पाठकों के लिए प्रकाशित किया।
अब जबकि लोकसभा चुनाव जारी हैं और देश की जनता नई सरकार चुनने के लिए मतदान कर रही है, जस्टिस लोया को तकरीबन भुला दिया गया है। एक जज की मौत पर हुए विमर्श पर लोकतंत्र ने परत दर परत ऐसी धूल चढ़ा दी कि अब कोई इस पर बात भी नहीं करता। विस्मृति के ऐसे दौर में जनचौक वेबसाइट से संबद्ध वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र मिश्र, प्रदीप सिंह और उपेन्द्र चौधरी ने जस्टिस लोया से जुड़ी अब तक सामने आई समूची कहानी का संकलन कर के उसे एक किताब का रूप दिया है औ नाम रखा है ‘’सत्ता की सूली’’। इस पुस्तक का लोकार्पण सोमवार, 15 अप्रैल को दिल्ली के प्रेस क्लब में किया जाएगा जिसमें जस्टिस बीजी कोलसे पाटील भी मौजूद होंगे, जो लोया प्रकरण में एक अहम किरदार रहे हैं। मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए ‘’सत्ता की सूली’’ का एक अहम अंश प्रस्तुत कर रहा है। (संपादक)
कहा जता है कि यह जजमेंट ड्राफ्ट कुछ और नहीं,बल्कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को सोहराबुद्दीन एनकाउंटर संबंधी मुकदमे से बरी करने का ड्राफ्ट था। जज लोया ड्राफ्ट को देखते ही हक्का-बक्का रह गए। इस घटना से वह बिल्कुल अंदर तक हिल गए। यह बहुत स्वाभाविक था क्योंकि किसी जज को एक फैसले का ड्राफ्ट सौंपा गया था। शायद इतिहास में यह अपने किस्म की अनूठी घटना थी। दुनिया में शायद ही इसकी कोई दूसरी मिसाल मिले।
एडवोकेट सतीश यूके के मुताबिक सीबीआई कोर्ट में जज बन कर आने के बाद से ही उन पर सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले से अमित शाह को कथित तौर पर बरी करने का दबाव पड़ने लगा था। लोया का कहना था कि इतनी जल्दी फैसला नहीं सुनाया जा सकता है क्योंकि मामले से संबंधित बारह से पंद्रह हजार पेजों को पहले पढ़ कर समझना होगा। तब कहीं जाकर इस पर फैसला सुनाया जा सकता है। इस काम में कम से कम छह महीने का वक्त लग सकता था लेकिन उनसे कहा गया कि नहीं,फैसला जल्द होना चाहिए और उनकी ‘सहूलियत’ के लिहाज से उनके पास पहले से तैयार एक जजमेंट ड्राफ्ट भेज दिया गया। दिनों-दिन जजमेंट ड्राफ्ट को फैसले के रूप में अदालत में सुनाने का दबाव उन पर बढ़ता जा रहा था। लोया कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर वो क्या करें। कुछ दिनों तक उलझन, तनाव और दबाव के बीच समाधान निकालने की उधेड़बुन में वो लगे रहे लेकिन उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।
बुरे वक्त में अक्सर लोगों को मित्रों की याद आती है। लोया ने भी अपने मन के बोझ और इस घटना के दर्द को अपने मित्रों से साझा करने का मन बनाया लेकिन इस मामले में उनकी कौन मदद कर सकता है, यह समझ में नहीं आ रहा था। इसी बीच उनके जेहन में अपने से वरिष्ठ और मित्रवत व्यवहार करने वाले रिटायर जिला जज प्रकाश थोम्ब्रे और एडवोकेट श्रीकांत खंडालकर का नाम सूझा। यह अक्टूबर 2014 के तीसरे हफ्ते की बात है, जब बीएच लोया ने अपने साथ घटी घटना को थोम्ब्रे और खंडालकर को बताया। मामला गंभीर और अपने किस्म का अद्भुत था। पहली बार ऐसी घटना उन तीनों लोगों के सामने आयी थी इसलिए कई दिनों की चर्चा और गंभीर विचार-विमर्श के बाद भी वे लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके।
दरअसल, जज प्रकाश थोम्ब्रे और एडवोकेट खंडालकर का काम जिला अदालतों तक ही सीमित था। इसलिए अब इस मसले पर उन लोगों ने स्वयं कोई राय बनाने के बजाय बांबे हाईकोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश बीजी कोलसे पाटिल से संपर्क करने का निर्णय लिया। इन तीनों से जस्टिस कोलसे पाटिल पहले से परिचित थे। मुंबई में ही उनसे मिलने का समय तय हुआ। जब जज लोया ने अपनी परेशानी का कारण जस्टिस कोलसे पाटिल को बताया तो उनके भी अचरज का ठिकाना न रहा। इस घटना को न्याय के प्रति गंभीर साजिश बताते हुए जस्टिस पाटिल ने कानूनी कार्रवाई करने की सलाह दी। जस्टिस पाटिल ने बताया, “मामले की गंभीरता को देखते हुए हमने उन लोगों को दिल्ली जाकर सुप्रीम कोर्ट के किसी बड़े एडवोकेट से कानूनी राय लेने की सलाह दी थी, क्योंकि किसी जज को जजमेंट ड्राफ्ट देकर उस पर साइन करके जजमेंट सुनाने को लिए विवश करना न्यायिक इतिहास में पहली बार सुन रहा था।”
सुप्रीम कोर्ट के किसी बड़े वकील से कानूनी सलाह लेने की बात तो तय हो गयी लेकिन ये काम इतना आसान और सीधा नहीं था। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए इसकी गोपनीयता बनाए रखने की भी चुनौती थी। किस एडवोकेट के पास जाया जाए, यह बड़ा सवाल था। लंबे विचार-विमर्श के बाद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के नाम पर सहमति बनी। रिटायर्ड जज प्रकाश थोम्ब्रे, एडवोकेट श्रीकांत खंडालकर और सतीश यूके पर दिल्ली आकर मामले से संबंधित कानूनी पहलुओं को समझने की जिम्मेदारी दी गयी। 4 नवंबर, 2014 को दिल्ली आने के लिए थोम्ब्रे, खंडालकर और सतीश यूके का एयर टिकट बुक करा लिया गया। इसी बीच 4 नवंबर को खंडालकर के एक महत्वपूर्ण मुकदमे की सुनवाई की तारीख आ गयी। लिहाजा खंडालकर दिल्ली नहीं आ सके। चूंकि दिल्ली आने की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी, लिहाजा जज थोम्ब्रे, सतीश यूके और उनके भाई प्रदीप 4 नवंबर को विमान से नागपुर से दिल्ली आ गए। दिल्ली पहुंच कर ये सभी लोग पहाड़गंज के होटल सिंह इंपोरियम में ठहरे। प्रशांत भूषण के चैंबर में फोन से बात कर मिलने का समय तय हुआ। 8 नवंबर, 2014 को सुबह 9 बजे जज थोम्ब्रे, एडवोकेट सतीश यूके और प्रदीप नोएडा स्थित भूषण के आवास पर उनसे मिलने पहुंचे। ड्राफ्ट उनके सामने रखा गया।
प्रदीप के मुताबिक, “प्रशांत भूषण उस समय नाश्ता कर रहे थे। नाश्ता करते हुए ही उन्होंने जजमेंट ड्राफ्ट और अन्य दस्तावेजों पर नजर डाली। कागजात देखने के बाद उन्होंने कहा कि यह कानूनी दृष्टि से बहुत कमजोर है। उनका मानना था कि ऐसे दस्तावेज अदालत में साक्ष्य के रूप में ठहर नहीं सकते।” प्रशांत के पास वे बहुत उम्मीद लेकर गए थे। इस राय को सुनने के बाद वे बहुत निराश हुए। दिल्ली से मुबंई लौटकर इन लोगों ने जब सब कुछ लोया को बताया, तो वे बहुत दुखी हुए। सतीश यूके के अनुसार, “जजमेंट ड्राफ्ट के साक्ष्य के रूप में स्वीकार न हो पाने की बात को सुनकर जज लोया बहुत परेशान हो गये थे। इस घटना के बाद उनको गहरा धक्का लगा और वह अंदर से टूट गए। फिर भी वह किसी दबाव और लालच के सामने झुकने को तैयार नहीं थे।”
दबाव और जल्द फैसला सुनाने की यह पहली और आखिरी घटना नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा था, उन पर दबाव भी बढ़ता जा रहा था। इसके साथ ही लोया की बेचैनी भी बढती जा रही थी। पक्ष में फैसला सुनाने के एवज में कथित तौर पर उन्हें मालामाल करने का वादा किया जा रहा था। इसी दौरान एक घटना घटी। बांबे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मोहित शाह, जिन पर पूरे न्यायिक प्रशासन को चलाने की जिम्मेदारी थी, की लोया से मुलाकात हुई। जस्टिस मोहित शाह लोया को इस मामले को जल्द से जल्द रफा-दफा करने की सलाह दी। बताया जाता है कि इसकी एवज में उन्होंने जज लोया के सामने 100 करोड़ रुपये और मुंबई में एक मकान देने का प्रस्ताव भी रखा। उन्होंने लोया से पूछा कि बताओ तुम और क्या चाहते हो लेकिन लोया की शख्सियत दूसरी ही तरह की थी। ईमानदारी उनकी सबसे बड़ी बीमारी बन गयी थी। लिहाजा इस मसले पर भी किसी तरह का समझौता करने का सवाल नहीं था। लोया हालांकि हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के सामने थे- वह चीफ जस्टिस जिनके हाथ में न केवल निचली अदालतों के जजों का तबादला और प्रोन्नति थी बल्कि किसी को हाईकोर्ट का जज बनाने के लिए प्रस्ताव तक भेजने का अधिकार था। लोया थे कि अपने जमीर से किसी तरह के समझौते के लिए तैयार ही नहीं थे। इसके साथ ही उनका दिमागी तनाव बढ़ता जा रहा था। उसको साझा करने के लिए मुंबई में न तो कोई नजदीकी मित्र था और न ही विश्वसनीय शख्स। घरवालों को ये बात बताकर उनकी परेशानी को और बढ़ा नहीं चाहते थे। लिहाजा उमड़-घुमड़ कर पूरा मामला उनके भीतर ही बना हुआ था।
उनकी इस परेशानी का कोर्ट में मौजूद दूसरे लोगों को भी अहसास होने लगा। रुबाबुद्दीन इस केस की हर सुनवाई पर कोर्ट में मौजूद रहते थे। दरअसल, रुबाबुद्दीन को डायरी लिखने की आदत है। ये मामला भी उनकी डायरी में दर्ज होने से नहीं बच सका। उन्होंने बताया कि घर आकर वह अदालत की हर कार्यवाही को अपनी डायरी में लिखा करते थे, जिसमें सिर्फ कोर्ट की ही नहीं, बल्कि उसके बाहर की घटनाओं का भी सिलसिलेवार तरीके से जिक्र है। उसी डायरी के एक पन्ने में उन्होंने जस्टिस लोया के संबंध में भी कुछ बातें लिखी हैं। रुबाबुद्दीन ने अपनी डायरी के पहले पेज पर लिखा है, “10 नवंबर, 2014 को जज लोया ने किसी भारी दबाव में आकर मुख्य आरोपी अमित शाह को चार्जशीट पेश होने तक हाजिरी माफी दे दी।’’ आगे वह लिखते हैं, “हाजिरी माफी का यह आदेश लिखवाते समय जज लोया बार-बार कोर्ट रूम में मेरी तरफ (रुबाबुद्दीन) देख रहे थे। उनका दिल बहुत बेचैन था और चेहरे पर एक शर्म झलक रही थी। उनके चेहरे को देखकर ऐसा लग रहा था कि उन्हें किसी बड़े दबाव और बहुत मजबूरी में उनको अमित शाह को हाजिरी माफी देनी पड़ी।’’
अदालत का माहौल और केस की गंभीर स्थिति को समझने के लिहाज से रुबाबुद्दीन की डायरी एक बार फिर दस्तावेजी सबूत बनकर सामने आती है। रुबाबुद्दीन का कहना था कि 25 या 28 नवंबर के आसपास की बात होगी। सेशन कोर्ट की रूटीन तारीख थी। वो कार्यवाही में भाग लेने के लिए मुंबई गए हुए थे। कोर्ट का माहौल सामान्य दिनों की तुलना में बिल्कुल अलग था। हमेशा मुस्कराने वाले जज लोया के चेहरे से उस दिन मुस्कान गायब थी। पूरी कोर्ट ने मानो गंभीरता की चादर ओढ़ ली थी। घर लौटकर उन्होंने अपनी डायरी में बाकायदा इसका जिक्र किया। उन्होंने लिखा, ‘‘लोया साहब परेशान थे। टेंशन में थे। प्रेशर में थे। हंसमुख इंसान थे। वो मजाक भी करते थे। हंसाते थे कोर्ट के अंदर।’’
लोया की ये परेशानी अब अदालत तक सीमित नहीं रही। इसने उनके घर को भी अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया। इस चीज को उनके परिजन और साथ रहने वाले जिन दूसरे लोगों ने भी महसूस किया, उन्हीं में से एक थीं उनकी भांजी नुपूर बालाप्रसाद बियानी। बियानी अपने मामा यानी लोया के साथ मुंबई स्थित उनके मकान में ही रहती थीं और वहीं रहकर अपनी पढ़ाई कर रही थीं। “दि कारवां” में प्रकाशित खबर के मुताबिक लोया की भांजी नूपुर बालाप्रसाद बियानी भी जज लोया पर पड़ रहे दबाव को स्वीकार करती हैं। उस दौर को याद करते हुए नूपुर कहती हैं, “जब वह अदालत से घर लौटते थे, तब उनका चेहरा बेहद तनावपूर्ण दिखता था। ऐसा लगता था कि जैसे वह किसी भारी दबाव में थे। उनके ऊपर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा था। इस तनाव का कारण सोहराबुद्दीन केस था। यह एक बहुत बड़ा मामला था। इस तनाव और दबाव का सामना कैसे करें? हर कोई इसमें शामिल है।” (21 नवंबर, 2017, कारवां पोर्टल) ये तनाव 15 दिसंबर, 2014 को अमित शाह को व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश होने के आदेश के बाद और बढ़ गया।