दोस्तों, आपने वो गाना सुना था, ”कबूतर जा जा जा, पहले प्यार की पहली चिठ्ठी साजन को दे आ…..” ये जो बुलबुल है, वो भी कबूतर की तरह का एक पक्षी होता है। असल में कबूतर जो पक्षी होता है, वो मनवांछित जगह के लिए उड़ाने भरता है, ये तो हमें पता ही था। ये पहली बार पता चला कि, वो इस मामले में बुलबुल उससे एक कदम आगे है, जो चाहे तो संदेसे की जगह आदमी को भी अपनी पीठ पर बिठा कर ले जा सकती है। जिसने भी ये नई खोज की है, उस व्यक्ति को पकड़ कर जर्बदस्ती पद्म श्री और पद्म विभूषण एक साथ दे देना चाहिए। वैसे ये लिखते हुए एक गाना मुझे और याद आ रहा है, ”क़ैद में बुलबुल सैयाद मुस्कुराए, कहा भी ना जाए, चुप रहा भी ना जाए”। पता नहीं यहां कितना फिट बैठेगा ये गाना, क्योंकि बुलबुल क़ैद में नहीं थी, वो तो कै़दी को लेकर उड़ गई थी। जो भी हो, बुलबुल कमाल की थी, जाने अब वो या उस तरह की बुलबुल होती भी हैं या नहीं। लेकिन यहां कैद में बुलबुल नहीं है, वो व्यक्ति विषेष हैं जिन्हें पीठ पर बिठाकर बुलबुल ले जाती थी, सैर करने के लिए।
लेकिन इस हाहाकारी खोज में, बुलबल और श्री सावरकर के बारे में जो बातें होनी चाहिए, और नहीं हो रही हैं वो मैं आपके पेशे नज़र करना चाहता हूं। पहली ये कि उसी पैरा में जहां ये लिखा है कि बुलबुल सावरकर को पीठ पर बिठाकर मातृभूमि के दर्शन कराने ले जाती थी, उसी में लिखा है कि जिस सेल में सावरकार बंद थे उसमें सुंई के बराबर भी छेद नहीं था। अब पहला सवाल तो यही उठता है कि पीठ पर बैठने के लिए सावरकर बाहर आने का चमत्कार करते थे या उन्हें पीठ पर बिठाने का श्रेय लेने के लिए यही चमत्कार बुलबुल किया करती थी। ये चमत्कार करने के लिए बुलबुल दीवार और दरवाज़ों के आर-पार जाती थी, या एक जगह गायब होकर दूसरी जगह प्रकट होती थी। सवाल इसलिए है कि अगर ये चमत्कार की ताकत सावरकर की थी, तो उसे उन्होने जेल के उस सेल में ही इस्तेमाल किया, क्योंकि जब वो एक महिला के बलात्कार के इल्जाम में पकड़े गए थे तो, सीधा पकड़ लिए गए, गायब नहीं हुए। दूसरा सवाल ये है कि जो बुलबुल सावरकर को पीठ पर बिठाकर मातृभूमि के दर्शन कराने ले जाती थी, वही बुलबुल उन्हें वापस लाया करती थी, या ये वन साइड सर्विस थी, क्योंकि पैरा में ये स्पष्ट नहीं है कि वही बुलबुल वापस लाती थी। तीसरा और बहुत मासूम सा सवाल उन लोगों से है जो सावरकर के माफीनामों को ये तर्क देकर डिफेंड करते हैं कि माफीनामा जेल से छूटने के लिए था ताकि वे देशसेवा कर सकें, कि भाई जब जेल से निकलना उनके हाथ में था, तो माफीनामा की ज़रूरत ही क्या थी।
इसे कहते हैं ईमानदारी, वफादारी, जो सावरकर ने जीवन भर निभाई, और यहां तक कि मरने के बाद सावरकर के चेले आज तक उस वफादारी को निभा रहे हैं। जिन आकाओं और मालिकों के प्रति वफादार रहने का वादा और दावा उन्होने अपने माफीनामों में किया, उसकी वजह से वो हमेशा बुलबुल की पीठ पर बैठकर जेल से जाते ज़रूर थे, लेकिन वापिस आ जाते थे, इतना ही नहीं, अपने इन चमत्कारी दौरों के बारे में वो अपने मालिकों को कुछ पता भी नहीं चलने देते थे। आधुनिक भारत में ईमानदारी का इससे बड़ा सबूत आपको नहीं मिलेगा, जिसे कहा माई बाप, उससे पूरी शिद्दत से निभाया भाई साहब। ईमानदारी कुछ इस हद तक निभाई गई, कि जिस आत्मकथा को ”चित्रगुप्त” के नाम से लिखा, खुद की इतनी प्रशंसा की कि बड़े-बड़े धुरंधरों को पसीने आ गए, उस किताब तक में ये राज़ नहीं खोला कि भई मैं बुलबुल की पीठ पर बैठ कर जेल से निकलते हुए मातृभूमि के दर्शन करने जाता हूं, ताकि माई-बापों की इज्जत पे कोई आंच ना आवे।
एक आखिरी सवाल ये उठता है कि जब उनके माई-बाप ने उनकी माफी मंजूर कर ली, यानी उन्हे ना सिर्फ जेल से निकाल कर काम पर रख लिया, ”कुछ लोगों का मानना है कि सावरकर को साठ रुपये माहवार पेंशन मिलती थी, मेरा कहना है कि वो उनकी माहवार तनख्वाह थी, जो अंग्रेज उन्हे देते थे। काम वह, जिसका जिक्र उनकी माफी की अर्जियों में मिलता है।” और उन्हे साठ रुपये माहवार तनख्वाह देने लगे, तो उस बुलबुल का क्या हुआ। क्योंकि सावरकर की किताब में और आधुनिक इतिहास की पुस्तक लिखने वाले ने इस बात का भी कोई जिक्र नहीं किया है कि सावरकर के जेल से निकलने के बाद, उस बुलबुल का क्या हुआ। हो सकता है कि वो किसी अन्य कैदी को अपनी पीठ पर बिठा कर जहां भी वो जाना चाहे ले जाती रही हो। क्या इतिहासकारों का ये कर्तव्य नहीं बनता कि इस तथ्य का पता करें कि इस बुलबुल की एक्सप्रेस सेवाएं सिर्फ सावरकर को हासिल थीं या फिर जेल में बंद अन्य कैदियों को भी ये सेवा मिली थी।
वैसे इस देश में जहां मोरनी को गर्भवती होने के लिए मोर के आंसू पीने होते हैं, और गाय आक्सीजन लेकर आक्सीजन की छोड़ती हैं, जहां गोबर खाकर बीमारियों का इलाज हो जाता है और घर पर गोबर का लेप करने से परमाणु विकिरण को रोका जा सकता है, बुलबुल की सवारी कोई ऐसी बात नहीं है जो हजम ना की जा सके। ये सब जो इस बात को मानने से इन्कार कर रहे हैं, वो सब हिंदुओं के वैभवशाली, चमत्कारिक इतिहास को नहीं जानते और देशद्रोही किस्म के लोग हैं। इसलिए इन ”हेटर्ज़” की भावनाओं का बिल्कुल संज्ञान नहीं लेना चाहिए। बाकी जो है सो तो हइये है।
इस मामले में ग़ालिब बहुत बढ़िया शेर कह कर गए हैं, अगर इजाज़त हो तो पेश करूं
वो करते हैं बुलबुलों की पीठ पर सवारी
हम भी उड़ें ऐसी किस्मत कहां हमारी
जब सावरकर और ग़ालिब दिल्ली के कूचे बल्लीमारान की दुकानों पर खीर और रबड़ी नोश फरमाते थे, तब सावरकर ने ग़ालिब को ये बुलबुल वाली बात बताई थी और जलभुन कर ग़ालिब ने ये शेर कहा था।