गाय नहीं भैंस के दूध ने दी मज़बूती, पाखंडी संन्यासी न पढ़ते हैं न पढ़ने देते हैं-काँचा अइलैय्या

‘इन ज्ञान विरोधियों ने मेरी किताबों को पढ़ा ही नहीं, जिन्होंने किताबों को सिलेबस से निकालने की बात की। तुम मेरी किताबें सिलेबस से निकालोगे, तो हज़ारों लोग मेरी किताबें सड़कों पर पढ़ेंगे।’ –काँचा अइलैय्या

मेरे नाम के आगे ‘शेफर्ड’ लगा है, जिसका अर्थ होता है ‘चरवाहा’, ये कहते हैं कि ये नाम ईसाई नाम है। ये थोड़ा भी पढ़ते-लिखते नहीं, मेरे पूर्वज भी चरवाहे थे, मैं भी वही हूँ। अगर ये पढ़ने लिखने वाले होते, तो कभी किताबों पर बैन नहीं लगाते। ये ज्ञान विरोधी लोग हैं, जो मुल्क का नुकसान कर रहे हैं। हम शूद्र लोगों ने काम कर करके ही मुल्क को बनाया है, जबकि दो चार सवर्ण जातियों ने बिना कोई काम किए परजीवी की तरह बस खाया है। इसीलिए हमारा मुल्क इतना पीछे हो गया। अब ये हमारे सवालों व विचारों को भी मिलना चाहते हैं, लेकिन ये सफल नहीं होंगे।’

मशहूर सामाजिक चिंतक काँचा अइलैय्या दिल्ली विश्वविद्यालय में 3 नवंबर को पब्लिक मीटिंग में उसी अंदाज़ में खरी बातें कर रहे थे जिसके लिए वे ख़ास मशहूर हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में शैक्षणिक मामलों की स्थायी समिति ने उनकी तीन किताबों को पाठ्यक्रम से हटाने की सिफारिश की है जिसका व्यापक विरोध हो रहा है। इसी क्रम में काँचा अइलैय्या आमंत्रित थे। 24 अक्टूबर को  समिति ने दो विवादित प्रस्ताव दिए। पहला यह कि राजनीति विज्ञान विभाग के पाठ्यक्रम में शामिल काँचा अइलैय्या की किताबें ‘व्हाई आई एम नॉट अ हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज़्म- ए क्रिटीक ऑफ स्पिरिचुअल फ़ासिज़्म’ और ‘पोस्ट हिन्दू इंडिया- अ डिस्कोर्स इन दलित-बहुजन सोशियो स्पिरिचुयल ऐंड साइंटिफिक रिवोल्यूशन’ के पाठ ‘हिन्दू विरोधी’ व ‘भारतीयता विरोधी’ हैं, इसलिए हटा दी जाएँ। दूसरा विवादित सुझाव ये था कि ‘दलित’ शब्द संविधान में नहीं है, इसलिए ‘दलित’ शब्द का अकादमिक प्रयोग वर्जित किया जाए।

‘फ़ाइट फॉर सोशल जस्टिस इन डीयू’ द्वारा आयोजित इस प्रतिरोध सभा में काँचा को ‘बैन कल्चर के प्रतिरोध में’ बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। काँचा ने अपनी तीनों किताबों पर तफ़सील से बात की। उन्होंने ललकार- ‘अगर तुम किताबों को सिलेबस से निकालोगे, तो हज़ारों लोग हाथ में किताबें लेकर सड़कों पर पढ़ेंगे, विचारों को नहीं मारा जा सकता।’ डीयू में आम तौर पर पब्लिक मीटिंग की संस्कृति नहीं रही है, बावजूद इसके नॉर्थ कैंपस के गेट नं 4 पर खुले मंच से काँचा को सुनने सैकड़ों की संख्या डीयू के शिक्षक व छात्र तीन घंटे तक जमे रहे। काँचा ने क्रमशः अपनी किताबों पर बात करते हुए कहा- ‘मैं हिन्दू क्यों नहीं हूँ किताब में मैंने बचपन में बच्चे के पैदा होने से लेकर, उसकी सामाजिक निर्मिति, बचपन, विवाह, सामाजिक संबंध, हिन्दू देवी-देवता और हमारे देवी-देवता, दलितीकरण बनाम हिंदुकरण जैसे विषयों पर विस्तार से बात की है। हिन्दुत्व के ठेकेदार संघी लोगों से मैं ये सवाल करता हूँ कि ‘शूद्र’ कभी हिन्दू हो ही नहीं सकता, जिसका दर्शन मैं, समाजशास्त्र और आर्थिक-सामाजिक मनोविज्ञान अपनी किताबों में दे रहा हूँ। मेरी बातं गलत करनी है, तो इनका जवाब देते हुए किताबें लिखो। लेकिन ये ज्ञान विरोधी हैं, वरना किताबों पर बैन न करते।”

उन्होंने ‘ बफैलो नेशनलिज़्म’ किताब में कामगार शूद्र जातियों के बारे में बात करते हुए बताया कि ‘इस मुल्क को गाय का दूध नहीं, भैंस के दूध से मजबूती आई है, लेकिन चूंकि भैंस काली होती है और शूद्रों के साथ जुड़ी है, इसलिए इसकी पूजा नहीं करते। मेरा वश चले तो हर विश्वविद्यालय के गेट पर भैंस लेकर बांध दूँ कि देखो ये इस मुल्क की मेहनत व कामगार हिम्मत की प्रतीक है। आज ज़रूरत है कि वैज्ञानिक चेतना के साथ सभी को मुफ्त शिक्षा दी जाए, जबकि ये ज्ञान-विरोधी शिक्षा को ही बर्बाद कर रहे हैं।’

अपनी तीसरी किताब ‘हिन्दुत्व मुक्त भारत’ पर बात करते हुए काँचा ने कहा कि ‘आज मुल्क पर ज्ञान विरोधी, शूद्र विरोधी संघी ताकतों का कब्जा है, इसीलिए यहाँ की  ज्ञान-मीमांसा दुनिया के सामने फिसड्डी रही। शूद्रों और महिलाओं को कभी पढ़ने नहीं दिया, जबकि यही कामगार लोग हैं। वरना भारत की कोई एक किताब भी प्लेटो, अरस्तू, एडम स्मिथ की तरह दुनिया भर में पढ़ाई जाती। ये सब सन्यासी पाखंडी हैं, जो आज सत्ता में बैठे हैं। इनका विरोध करना देश विरोधी व ज्ञान विरोधी होना नहीं है। इनको कभी समझ नहीं आएगा। न पढ़ते हैं और न पढ़ने देंगे।

इस प्रतिरोध सभा में छात्रों और शिक्षकों की जबरदस्त भागीदारी हुई जिसने दिल्ली विश्वविद्यालय में एक नई परंपरा का आग़ाज़ किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थायी समिति के प्रस्ताव के विरोध में  राजनीति विज्ञान विभाग ने प्रस्ताव पारित किया कि वे अपने यहाँ पाठ्यक्रम में कोई बदलाव नहीं करेंगे। अंतिम निर्णय विश्वविद्यालय की अकादमिक समिति को करना है। गौरतलब है कि दो वर्ष पहले ए. के रामानुजन के लेख ‘तीन सौ रामायण’ को विभाग के विरोध के बाद हटा दिया गया था, साथ ही नंदिनी सुंदर व अर्चना प्रसाद की आदिवासियों पर लिखी किताबों को ‘नक्सली’ बताकर हटा दिया गया। इसी कड़ी में अब दलित-बहुजन वैचारिक दर्शन व समाजशास्त्रीय विश्लेषण पर आधारित काँचा की किताबों को ‘हिन्दू विरोधी’ बताकर हटाया जा रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में पहली बार ‘बैन’ की गई किताबों के लेखक का व्याख्यान सुना गया।

सवाल स्वाभाविक है कि दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक व महिलाओं सत्ता के इन पर लिखी किताबें विश्वविद्यालयों में नहीं पढ़ी जाएँगी, तो फिर विश्वविद्यालय किस काम के लिए हैं? क्या उनका पाठ्यक्रम सत्ता तय करेगी? डीयू में ये सवाल अब सिर चढ़कर बोल रहा है। 30 और 31 अक्टूबर को इस मुद्दे पर प्रदर्शन हुआ था। ‘संघी सिलेबस नहीं चलेगा, भगवा सिलेबस नहीं चलेगा’ जैसे नारों से परिसर गूँज उठा था। प्रतिबंधित किए जा रहे लेखक को बुलाकर दिल्ली विश्वविद्यालय के चेतनशील तबके न साबित कर दिया कि विचारों को पाबंदी से नहीं मारा जा सकता।

प्रतिरोध सभा को कई शिक्षकों और शोधार्थियों ने भी संबोधित किया।  धन्यवाद ज्ञापन शिक्षक नेता नंदिता नारायण ने दिया

 



 

 

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