अखबार बता रहे हैं कि मोदी जी दोषियों को बख्शेंगे नहीं, तो ब्रजभूषण पर एक्शन क्यों नहीं?

आज मेरे सात में से पांच अखबारों ने पहले पन्ने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दावे को प्रमुखता से छापा है। दावा यह है कि रेल दुर्घटना के दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेंगे या दोषियों को बख्शेंगे नहीं। मुझे लगता है कि भाजपा के शासन में या नरेन्द्र मोदी के राज में या संघ परिवार की व्यवस्था में सजा सिर्फ नरेन्द्र मोदी (या शायद गिनती के कुछ और लोग देते हैं)। अदालतों की सजा को इसमें शामिल नहीं करना चाहिए पर ऐसे उदाहरण हैं जिससे लगता है कि सजा हुई क्योंकि मोदी जी चाहते थे और नहीं हुई या अभी फैसला नहीं हुआ है क्योंकि मोदी जी यही चाहते हैं। नौ वर्ष के अपने शासन में प्रधानमंत्री ने और कुछ चाहे न किया हो यह स्थिति तो बना ही ली है कि वे जिसे न चाहें उसे सजा न हो और अगर चाहें तो उसे बचने का कोई रास्ता न हो। भले मुकदमा लड़ने, बचने और बरी होने की सजा ही भुगत ले। आप जानते हैं इसलिए उदाहरण देने की जरूरत नहीं है। 

दोषियों को बख्शेंगे नहीं (अमर उजाला) और दोषी पाये जाने वालों पर होगी कड़ी कार्रवाई (नवोदय टाइम्स) की खबर में में ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए इसे प्रमुखता दी जाए। खास कर बृजभूषण सिंह के मामले में कार्रवाई नहीं होने के मद्देनजर। बृज भूषण सिंह के खिलाफ कार्रवाई की जरूरत और उनकी स्थिति को देखते हुए आप कह सकते हैं कि वे बचे हुए नहीं हैं और उनके खिलाफ कार्रवाई चल ही रही है। पर इसमें प्रधानमंत्री की क्या भूमिका है और वे जेल क्यों नहीं गये हैं या उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया है, समझना मुश्किल नहीं है। गिरफ्तार नहीं होने के सबके अपने कारण होंगे और अगर बृजभूषण सिंह के मामले में हैं तो जो दोषी पाया नहीं गया है उसके मामले में इसका कोई मतलब मुझे नहीं समझ में आता है। व्यवस्था यही है कि किसी को बलि का बकरा बना दिया जाता है और यही होता दिखता है। संभव है प्रधानमंत्री ने इसीलिए कहा हो और प्रधानमंत्री ने कहा है तो अखबारों में छपना ही था। लेकिन मुद्दा यह है कि अखबार वाले संबंधित सवाल क्यों नहीं उठाते हैं? 

जैसा मैंने पहले कहा है, सात में से पांच अखबारों ने प्रधानमंत्री के कहे को जस का तस छाप दिया है। नहीं छापने वाला अखबार है, हिन्दुस्तान टाइम्स और द टेलीग्राफ। द हिन्दुस्तान टाइम्स ने अपनी बैनर खबर में मरने वाले 294 बताये हैं जबकि आज बाकी सभी अखबारों में मरने वालों की संख्या 288 बताई गई है और मैं समझ रहा था कि यह किसी नई  सरकारी व्यवस्था का कमाल है। वरना ऐसे मामलों में मरने वालों की संख्या अक्सर अलग-अलग होती है और लगता नहीं है कि एक-दो आदमी की मौत का कोई मायने खबर देने वालों के लिए है। लेकिन आज सभी अखबारों में मरने वालों की संख्या एक देखकर लगा कि सरकार ने कोई व्यवस्था की है या मीडिया वालों का काम अब और आसान हो गया है। जो भी हो, हि्न्दुस्तान टाइम्स में मरने वालों की संख्या 6 ज्यादा है और इसके मायने हो सकते हैं। पर वह बाद की बात है। 

प्रधानमंत्री ने जो कहा वह टाइम्स ऑफ इंडिया में शब्दशः छपा है और हिन्दी (रोमन) में है। पहले इसे पढ़ लीजिये, “ये घटना अत्यंत गंभीर है, हर प्रकार की जांच के निर्देश दिए गए हैं और जो भी दोषी पाया जाएगा उसको सख्त से सख्त सजा हो, उसको बख्शा नहीं जाएगा”। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार यह 1995 के बाद का देश का सबसे बड़ा रेल हादसा है और कहने की जरूरत नहीं है कि दुनिया के बड़े हादसों में एक होगा। इसीलिए प्रधानमंत्री हादसा स्थल पर गए हैं और साथ में रेल मंत्री भी गए हैं। दुर्घटना का दोषी कौन है और अंततः कौन ठहराया जाएगा वह सब बाद की बात है लेकिन खबर यह है कि रेल दुर्घटना टालने के लिए एक कवच सुरक्षा व्यवस्था का प्रचार रेल मंत्री कर रहे थे और दुर्घटना से कुछ ही दिन पहले रेलवे में प्रधानमंत्री के सहयोग से कायाकल्प जैसे योगदान की चर्चा कर चुके हैं। ऐसे में दुर्घटना के लिए सर्वोच्च स्तर पर कौन दोषी है यह तय करना मुश्किल होगा। प्रधानमंत्री को रेल मंत्री को दोषी ठहराना नहीं चाहिए औऱ रेल मंत्री खुद दोषी होना स्वीकार कर लें तो कोई बड़ी बात है नहीं, भाजपा में इस्तीफे तो होते नहीं हैं। इसलिए, यह मुद्दा ही नहीं है।   

मुद्दा यह है कि जिस कवच का प्रचार किया जा रहा था वह इस लाइन पर नहीं था और टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के अनुसार होता तो दुर्घटना टलती या नहीं उसपर विशेषज्ञों में मतभेद है। फिर भी अगर कोई व्यवस्था देश भर में लागू नहीं हुई थी तो उसका प्रचार करने का क्या मतलब था। और इसे बारी-बारी से किया जाना था, इसमें समय लगना था और इस बीच दुर्घटना हो गई तो क्या कहेंगे – यह सोचा भी नहीं गया तो दोषी को तलाशने की भी क्या जरूरत है। मेरे हिसाब से जब मंत्री या सर्वोच्च स्तर पर सरकार इसके लिए तैयार ही नहीं थी या सोचा ही नहीं था कि दुर्घटना हो सकती है तो कवच की जरूरत भी क्यों थी? कुल मिलाकर, इससे सरकार की कार्यशैली, प्राथमिकता और सुरक्षा उपायों की जरूरत के प्रति उसकी गंभीरता का पता चलता है। दूसरी ओर, संतोषजनक जवाब नहीं देना, चुप रह जाना, हर सवाल को टाल देना, विषय बदल देना, प्रेस कांफ्रेंस नहीं करना जैसे मामले तो हैं ही। 

जहां तक संतोषजनक स्पष्टीकरण की बात है यह स्पष्ट नहीं है कि ब्रजभूषण सिंह की गिरफ्तारी के मार्ग में कवच है कि नहीं और है तो कैसा, किसका है। पर दुर्घटना ग्रस्त ट्रेन के मामले में ममता बनर्जी ने कहा है कि उसमें एंटी कोलिजन डिवाइस नहीं था। इसपर रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव यह कहा बताते हैं (टीओआई के अनुसार) कि यह एंटी कोलिजन डिवाइस का मुद्दा नहीं है। मतलब बहुप्रचारित कवच अगर ऐसी दुर्घटना के लिए नहीं है तो उसका प्रचार क्या था और अब स्पष्ट करने में क्या दिक्कत है। मीडिया भी नहीं बतायेगा लेकिन वह यह प्रचार जरूर कर रहे है कि दुर्घटनाग्रस्त ट्रेन के यात्रियों ने ई-टिकट लेते समय बीमा लिया होता तो उन्हें बीमा से भी मुआवजा मिलता। पर यह नहीं बता रहा है कि दुर्घटना ग्रस्त ट्रेन में कितने लोगों ने बीमा लिया था। सरकार या आईसीआरटीसी अपने स्तर पर क्यों नहीं बता दे रहा है और इसके साथ बीमा की प्रचार क्यों नहीं कर रहा है। यह सब कभी समझ में नहीं आने वाले मुद्दे हैं। 

दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा – को खबर से बड़े फौन्ट में नहीं छापने वाला मेरा दूसरा अखबार है, द टेलीग्राफ। इसमें एक खबर का शीर्षक है, स्पीड पर फोकस के बीच सुरक्षा के लिए पैसे कम पड़ गये। आप जानते हैं कि मोदी सरकार ट्रेन की स्पीड बढ़ाने पर पूरा जोर लगा रही थी और इस क्रम में बंदे भारत ट्रेन का उद्घाटन प्रधानमंत्री के नियमित कामों में था। पहली ट्रेन दिल्ली से बनारस के बीच चली थी, ठीक से नहीं चल पाई फिर भी देश भर में कई ट्रेन चलाई गईं और ज्यादातर का उद्घाटन प्रधानमंत्री ने खुद किया। इसी का नतीजा रहा कि सुंदरता के लिये लगाया गया फाइबर का कवर भी टूट जाए तो गोदी वाले प्रचार करने लगते थे लेकिन यह महंगी ट्रेन किसी काम की नहीं है और रेल गाड़ी की स्पीड कितनी भी बढ़ा दी जाए (बुलेट ट्रेन अपवाद है) हवाई जहाज का मुकाबला नहीं कर पाएगी। और हवाई जहाज पर चलने वाले ट्रेन से चलें ऐसी स्थितियां अभी नहीं हैं। ऐसे में वंदे भारत ट्रेन पर समय और संसाधन लगाना व्यर्थ था और खबर है कि इस बीच सुरक्षा के लिए धन की कमी रही या उसमें योगदान नहीं किया गया। मोटे तौर पर दोनों का मतलब है उसपर ध्यान नहीं देना। द टेलीग्राफ में छपी एक तालिका के अनुसार 2017 से 21 तक अगर इस मद में 20,000 करोड़ रुपये दिए जाने थे तो सिर्फ 4,225 करोड़ रुपए दिए गए हैं। इससे सुरक्षा को मिलने वाली प्राथमिकता और कवच के प्रचार से सरकार के काम को समझिये पर आम अखबार यह सब नहीं बतायेंगे। 

द टेलीग्राफ का आज का कोट लालू प्रसाद का है, “केंद्र की सरकार ने भारतीय रेल को पूरी तरह नष्ट कर दिया है”। आप जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों में रेल किराया बढ़ा है, छूट कम हुई है, आरक्षित टिकट लौटने पर ज्यादा पैसे कटते हैं या कम लौटता है और वापसी के नियम भी ऐसे बना दिये गए हैं कि आप टिकट वापस नहीं कर पाएं और रेलवे फायदे में रहे। बदले में आपको बंदे भारत जैसी ट्रेन मिली है जिसके बारे में कहा जाता है कि बड़े लोगों के लिए है। पर असल में यह उन लोगों के लिए है जिन्हें न प्लैटफॉर्म पर सुविधा की जरूरत है और न  स्टेशन से निकलने और वहां जाने के लिए। प्लैटफॉर्म पर एसी तो छोड़िये लिफ्ट और एस्केलेटर अभी महानगरों में भी पूरे नहीं लगे हैं, बैट्री वाली गाड़ी चल सकती है तो उसकी अनुमति नहीं है और कुलियों के दबाव में उसपर सामान लेकर नहीं जा सकते हैं। कुल मिलाकर यात्रियों की समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया या जो किया गया वह बहुत कम है और डिजिटल भारत में सिंगनल खराब होने से तीन ट्रेनें भिड़ गईं। यात्रियों की सुविधा के लिए ट्रेन निश्चित समय से चले तो भी बड़ी बात होती पर वह भी नहीं किया गया या किया जा सका। बीच में इसके लिए यात्रा का समय बढ़ा देने का आसान उपाय आजमाया गया था पर वह भी नहीं चला। और प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि दोषियों को बख्शशेंगे नहीं। 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और वरिष्ठ अनुवादक हैं।

 

 

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