आज गलवान भिड़ंत के एक साल हो गए और इस मौके पर जारी सरकारी फोटो (एएनआई और पीटीआई दोनों की) इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर बिल्कुल एक जगह एक तरह से छपी है। इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर विज्ञापन है और फोटो तीन कॉलम में छपी है जबकि हिन्दुस्तान टाइम्स में विज्ञापन नहीं है और फोटो चार कॉलम में छपी है। आप इसका चाहे जो मतलब लगाएं पर यह फोटो सभी अखबारों में नहीं है जबकि ट्वीटर से संबंधित खबर द टेलीग्राफ और इंडियन एक्सप्रेस को छोड़कर बाकी तीन अखबारों में पहले पन्ने पर है। इंडियन एक्सप्रेस में ट्वीटर की जगह गूगल की खबर है उसकी चर्चा आगे है। आज ट्वीटर से संबंधित खबर का शीर्षक इस प्रकार है :
- आश्वासन के बावजूद ट्वीटर ने अभी तक अनुपालन अधिकारी नियुक्त नहीं किया। उपशीर्षक है, इस प्लैटफॉर्म पर पोस्ट की जाने वाली किसी भी सामग्री के लिए इसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है : सूत्र। (द हिन्दू)
- ट्वीटर ने भारत में तीसरे पक्ष की सामग्री के लिए कानूनी बचाव खोया (टाइम्स ऑफ इंडिया)
- अंतरिम अनुपालन अधिकारी के नाम की घोषणा हो चुकी है : ट्वीटर।
ट्वीटर से संबंधित हिन्दू और टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर बाईलाइन वाली है। अखबारों के कामकाज को जानने वाले समझ सकते हैं कि ऐसी खबरें कई बार प्लांट की जाती हैं और सिस्टम ठीक हो तो रुक भी जाती हैं या सिस्टम की मिलीभगत से छप भी जाती हैं। मेरे जैसे व्यक्ति की दिलचस्पी खबर से ज्यादा इस सब में होती है और हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक देखकर समझ में आ गया कि क्या हुआ होगा। आप भी समझ सकते हैं। दरअसल द हिन्दू की खबर के शीर्षक में ही सूत्रों का हवाला है और आजकल सूत्रों के जरिए खास किस्म की खबरें छप सकती हैं। इसलिए आप इसे आसानी से हेडलाइन मैनेजमेंट का भाग मान सकते हैं। दूसरा शीर्षक भी ऐसा नहीं है जिससे लगे कि जनता का कुछ बिगड़ने वाला है। या जनहित की कोई खबर हो। पढ़कर यही लगता है कि ट्वीटर ने सूचना (आदेश) के बाद भी कुछ नहीं किया तो भुगतेगा। जब कोई कार्रवाई हो तो उसकी सूचना हो सकती है। अभी तो यह उसे धमकाने या दबाव में लेने का तरीका लग रहा है।
टाइम्स ऑफ इंडिया इस खबर को ऐसे छाप कर ट्वीटर को धमकाता या उसके खिलाफ माहौल बनाता लग रहा है, “देखो मितरों, ट्वीटर से कहा था भारत में एक अनुपालन अधिकारी रखो अब उसने रखा नहीं। समय निकल गया है। इसलिए, उसके खिलाफ कार्रवाई की जाए तो यह मत समझना की सरकार ज्यादाती कर रही है।” यहां तीसरा शीर्षक हिन्दुस्तान टाइम्स का है। इसके अनुसार, अंतरिम अनुपालन अधिकारी के नाम की घोषणा हो चुकी है। अगर वाकई ऐसा है तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने टॉप पर छाप कर इतना महत्व क्यों दिया है? मुझे लग रहा है कि ट्वीटर के खिलाफ यह खबर आरोप की शक्ल में है और आरोप लगाने वाला अपना नाम नहीं बता रहा है इसलिए ‘सूत्र’ है। ऐसे में पत्रकारिता का सामान्य सिद्धांत है कि संबंधित पक्ष की प्रतिक्रिया ली जाए और हिन्दुस्तान टाइम्स में जो छपा है वही पत्रकारिता है। मौके के लिहाज से पहले पन्ने पर है वरना नहीं भी हो सकती थी।
कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार ट्वीटर और इस बहाने पूरे सोशल मीडिया ही नहीं संपूर्ण मध्यवर्ती संस्थानों को कसने की कोशिश में है और हम जिसे सोशल मीडिया कानून या नया आईटी कानून समझ रहे हैं वह दरअसल, सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्थानों के लिए दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 है और 25 फरवरी 2021 को जारी इससे संबंधित प्रेस विज्ञप्ति इस प्रकार थी, (सरकारी अनुवाद) “डिजिटल मीडिया से जुड़ी पारदर्शिता के अभाव, जवाबदेही और उपयोगकर्ताओं के अधिकारों को लेकर बढ़ती चिंताओं के बीच आम जनता और हितधारकों के साथ विस्तृत सलाह-मशविरा के बाद सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 87(2) के तहत मिले अधिकारों का उपयोग करते हुए और पूर्व सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्थानों के लिए दिशा-निर्देश) नियम 2011 के स्थान पर सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्थानों के लिए दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 तैयार किए गए हैं।”
ये नियम कैसे बने मुझे पता नहीं है लेकिन इन नियमों में खामियां ही खामियां हैं। और सरकार जिस ढंग से काम कर रही है उससे साफ है कि वह जनहित नहीं, अपना और अपनी पार्टी का प्रचार हित चाहती है। वरना “सूत्रों को” आज ट्वीटर को धमकाने की कोई जरूरत नहीं थी। अगर वह नियम नहीं मान रहा है (अव्वल तो सरकार की बात भी मानना चाहिए पर बात तो बात जैसी हो) तो सरकार उसे बोरिया बिस्तर समेटने के लिए मजबूर कर सकती है। पर जाहिर है सरकार ऐसा नहीं चाहती है। स्पष्ट रूप से वह चाहती है कि संबित पात्रा के ट्वीट को मैनिपुलेटेड टैग नहीं किया जाए और मंजुल के कार्टून लोग नहीं देख पाएं। भारतीय मीडिया सरकार का समर्थन करते हुए अब इस मामले में भी सरकार की सेवा में लगा हुआ है। वह मंजुल के कार्टून नहीं के बराबर छापता है और संबित पात्रा जो कहते हैं वह प्रचार होता है। खासकर टेलीविजन पर।
दिल्ली दंगे से संबंधित आदेश
दिल्ली दंगे से संबंधित मामले में हाईकोर्ट से तीन छात्र एक्टिविस्ट को जमानत मिलने और उसपर हाईकोर्ट की टिप्पणी कल ही आ गई थी। बेशक यह खबर सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी है और पर्याप्त महत्वपूर्ण है। लेकिन उस सरकार में कहां महत्वपूर्ण है जो जनता को ट्वीटर से “राहत” दिलाने के लिए परेशान है और सोशल मीडिया पर दबाव डाल रही है कि शिकायतें दूर करने की व्यवस्था करे। यह सब उस व्यवस्था में हो रहा है जहां एक साल जेल में रहने के बाद हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की और इस बीच नताशा नरवल के पिता का देहांत हो गया। निचली अदालत से उसे जमानत मिली लेकिन वह समय पर घर नहीं पहुंच पाई। यह उसी देश में हुआ जहां सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार अर्नब गोस्वामी को तो जमानत दे दी पर दूसरे पत्रकार राहत नहीं पा सके। नहीं पा सकते हैं। सच पूछिए तो बहुत सारे लोग सुप्रीम कोर्ट जाने का खर्च ही नहीं उठा सकते। लेकिन हमारी सरकार की प्राथमिकता ट्वीटर है। प्रसंगवश, आज टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर है कि केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन पर से शांति भंग करने का आरोप हटा लिया गया है। पिछले साल हाथरस जाते समय अक्तूबर में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था और अभी तक वह जेल में हैं। टीओआई ने यह खबर दिल्ली दंगे के आरोपियों को जमानत मिलने की खबर के साथ छापी है और आप समझ सकते हैं कि पुलिस जांच कैसे होती है और कैसे गिरप्तारियां होती हैं और किसे अग्रिम जमानत मिल जाती है और कौन लोग जेल में पड़े रहते हैं। संविधान के अनुसार हर नागरिक बराबर है और सरकार की कोशिश होनी चाहिए कि सबके साथ एक जैसा व्यवहार हो और सबकी शिकायत समान गति से दूर हो, कम से कम निर्दोष लोगों की तो हो ही। पर सरकार ट्वीटर ही देख रही लगती है।
संजय सिंह के घर पर हमला
हेडलाइन मैनेजमेंट के इस जमाने में ट्वीटर से संबंधित उपरोक्त खबर संयोग है या प्रयोग, समझना मुश्किल है। आइए, अब आपको आज की वो खबरें बताऊं जो कहीं है और कहीं नहीं। इनमें पहली खबर तो यही है कि अयोध्या में मंदिर के लिए जमीन खरीदे जाने के मामले में करोड़ों के घपले का आरोप लगाने वाले आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह के नॉर्थ एवेन्यू, दिल्ली स्थित घर में तोड़ फोड़ की गई। बंगाल में तृणमूल नेताओं और लंदन जा चुके आदार पूनावाले को पहले ही सुरक्षा देना तथा संजय सिंह पर हमला हो जाना इस सरकार की विशेषताओं में है। अनजाने लोगों ने उनके नाम की पट्टी को काला कर दिया। हमलावरों में दो पकड़कर पुलिस को सौंपे जा चुके हैं लेकिन आगे की सूचना पहले पन्ने पर नहीं है। तोड़फोड़ साधारण हो या वह प्रदर्शन भी हो तो इस समय पहले पन्ने की खबर है। क्यों नहीं छपी आप समझ सकते हैं।
खबरें जो दूसरे अखबारों में नहीं हैं
- पश्चिम बंगाल भाजपा अपने लोगों को संभालने में व्यस्त (द हिन्दू)
- कुम्भ में फर्जी कोविड जांच के आरोपों की जांच चल रही है (द हिन्दू)
- कैसे एलआईसी के एक एजेंट की तलाश से कुंभ में कोविड जांच घोटाले की पोल खुली। (टाइम्स ऑफ इंडिया)
- कर्नाटक हाईकोर्ट ने सरकार से कहा है कि इसका कोई मतलब नहीं है कि पुलिस जांच रिपोर्ट मीडिया से साझा करे और राज्य सरकार को चाहिए कि इस दिशा में व्यापक दिशा निर्देश तैयार करे। (टाइम्स ऑफ इंडिया)
- अमेरिका में पढ़ने वाले बच्चों को वहां पहुंचाने के लिए अभिभावक विमान चार्टर कर रहे हैं।
- गूगल ने जेएनयू में मारपीट के मौके का चैट देने के लिए पुलिस से अदालत का आदेश मांगा
- कोरोना वायरस के नए रूपांतर की सूचना दी गई थी, चेतावनी नहीं – सरकारी प्रतिनिधि (द टेलीग्राफ)।
पश्चिम बंगाल भाजपा
पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद हिंसा को भाजपा ने बहुत बड़ा मुद्दा बनाया था और इसमें राज्यपाल भी कूद पड़े थे। इसका असर यह हुआ कि राजभवन में अपने रिश्तेदारों (परिचितों) को भर लेने की पोल खुली लेकिन राज्यपाल कहां मानने वाले थे। विधायकों की बैठक बुलाई तो 24 बैठक में शामिल नहीं हुए। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राज्य में भाजपा की हालत का तो पता चलता ही है चुनाव बाद हिंसा के शोर की भी पोल खुलती है। लेकिन खबर छपे तब न?
इसी तरह दूसरी खबर कुंभ में फर्जी कोविड जांच से संबंधित है। द हिन्दू की खबर (शीर्षक) से लग रहा है कि सरकार को सूचना मिली और जांच चल रही है। सब चंगा सी और कहीं कोई कमी नहीं है – के अंदाज में। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक ही अलग है। क्योंकि असली खबर वही है। बाकी तो हेडलाइन मैनेजमेंट का प्रभाव। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के अनुसार फरीदकोट के विपन मित्तल को 22 अप्रैल को कोविड टेस्ट की रिपोर्ट एसएमएस से मिली। जबकि उन्होंने कोई जांच ही नहीं करवाई थी। तब से वे इस मामले में लगे रहे।
आईसीएमआर को लिखा, आरटीआई डाली तब जाकर पोल खुली और अब खबर ऐसे छपी है जैसे सरकार को ही सूचना मिली हो और वह खुद जांच करवा रही है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।