कर्नाटक में गालियाँ गिनने वाले प्रचारक प्रधानमंत्री का स्तर 

जब सुप्रीम कोर्ट को सरकारी दबाव झेलना पड़ रहा है

 

और इंडियन एक्सप्रेस की स्वतंत्र पत्रकारिता का कॉकटेल

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर्नाटक में चुनाव प्रचारक की भूमिका में हैं और भाजपा की कमजोर स्थिति से कांग्रेस अगर उत्साहित लग रही है तो भाजपा ही नहीं, प्रधानमंत्री भी गालियां भुनाने जैसे काम कर रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री पद की मर्यादा छोड़कर कुछ भी बोल रहे हैं तो उसकी रिपोर्टिंग के अपने मायने और मुश्किलें हैं। मीडिया का एक वर्ग उनकी मदद करने का कोई मौका नहीं चूक रहा है और इसका पता हिन्दुस्तान टाइम्स की आज की लीड के शीर्षक, “कांग्रेस के घोषणा पत्र में बजरंगदल पर पीएफआई जैसा प्रतिबंध” और इंडियन एक्सप्रेस की लीड इसका जवाब के रूप में दिखाई दे रहा है। शीर्षक इस प्रकार है, “कांग्रेस आंतकवाद को प्रश्रय (तुष्टिकरण करती) देती है …. राम को ताले में बंद किया, अब हनुमान के पीछे : मोदी”। इंडियन एक्सप्रेस की इस लीड खबर के साथ आज उपशीर्षक है, “सोनिया गांधी को निशाना बनाया : बाटला हाउस के आतंकवादी की मौत के बाद (2008) कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता के आंखों में आंसू आ गए थे”। इसके साथ की खबर का शीर्षक है, “कांग्रेस ने बजरंग दल को पीएफआई के खाने में रखा, सत्ता में आने पर प्रतिबंध का वादा किया”।  

दिल्ली के अखबार जब कर्नाटक चुनाव प्रचार की खबर दे रहे हैं तो प्रचार से संबंधित क्या जानकारी नहीं दे रहे हैं उसकी चर्चा से पहले बता दूं कि प्रशासन के मोर्चे पर सरकार की क्या हालत है और आज की दूसरी प्रमुख खबरें क्या हैं। ज्यादातर खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने की है एक (अंतिम) हिन्दुस्तान टाइम्स के पहले पन्ने पर दिखी।  

  1. दो भाइयों पर सामूहिक बलात्कार का आरोप, दोनों यूपी पुलिस में कांंस्टेबल हैं। एक महिला को जबरन कैद में रखकर दो साल यातना देने का आरोप है। इस दौरान वह दो बार गर्भवती हुई और उसे मजबूरन गर्भपात कराना पड़ा। 
  2. उत्तराखंड के मंत्री ने ऋषिकेश में युवक की पिटाई की। वीडियो वायरल। 
  3. सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से कहा है कि एक सत्र न्यायाधीश से न्यायिक  कार्य लेकर उन्हें ज्यूडिशयल ऐकेडमी में भेजा जाए। जमानत नहीं देने पर जज को यह सजा दी गई है। 
  4. बदरीनाथ – केदारनाथ में दान मांगने वाले क्यूआर कोड के बारे में कोई भी जानकारी होने से इनकार करने के बाद मंदिर समिति ने कहा है कि ऑनलाइन दान के लिए उसका पेटीएम के साथ 2018 से एक गठजोड़ है और तब से 67 लाख रुपए प्राप्त हो चुके हैं। समिति ने कहा है कि उसकी जानकारी के बिना पेटीएम ने बड़े साइन बोर्ड रख दिए थे और पे-टीएम के अधिकारियों ने पूरे मामले पर अफसोस जताया है। 
  5. सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल ने 2002 के नरोदा गाम नरसंहार की उचित जांच नहीं की और यह साबित नहीं कर सका कि आरोपी अपराध स्थल पर मौजूद थे। इस मामले में फैसला मंगलवार को सार्वजनिक किया गया। इस मामले में सभी आरोपी बरी हो गये हैं। 1,728 पन्नों का आदेश में बरी करने के लिए एसआईटी को दोषी ठहराया गया है। (हिन्दुस्तान टाइम्स)

इनके अलावा, द हिन्दू में आज की लीड है, “बिलकिस बानो मामले में अभियुक्त समय काटने के उपाय कर रहे हैं – सुप्रीम कोर्ट जज”। निश्चित रूप से यह बड़ा मामला है और कर्नाटक चुनाव प्रचार में जब प्रधानमंत्री वहां के लोगों से कह रहे हैं कि कांग्रेस का इतिहास और उसकी सोच कभी भूलनी नहीं है तो बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देकर बलात्कारियों को बचाने के लिए किए जाने वाले सरकारी और व्यवस्थागत उपायों के बारे में देश की जनता को बताना मीडिया और अखबार का काम है। लेकिन जर्नलिज्म ऑफ करेज की टैगलाइन वाले इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। यानी द हिन्दू की लीड इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर नहीं है और निश्चित रूप से यह संपादकीय आजादी है। इसी के फलस्वरूप बोफर्स से संबंधित कांग्रेस के खिलाफ खबरें इंडियन एक्सप्रेस के साथ द हिन्दू में भी छपती थीं। इंडियन एक्सप्रेस का भाजपाई कनेक्शन छिपा हुआ नहीं है। द हिन्दू के हिन्दुत्व के दर्शन नहीं ही होते हैं। 

बिलकिस बानो की खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर तीन कॉलम में दो लाइन के शीर्षक, “सुप्रीम कोर्ट में यू टर्न लेते हुए केंद्र और गुजरात ने बिलकिस के अभियुक्तों की माफी से संबंधित फाइल साझा करने की सहमति दी” के साथ है। यह इस खबर का दूसरा गंभीर पहलू है। पहले छपा था कि सरकार उसमें टाल मटोल कर रही है। तीसरा पहलू हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक है, “स्पष्ट है वे नहीं चाहते कि बिलकिस मामला मैं सुनूं”। इसे द टेलीग्राफ ने और अच्छे से लिखा है, “अदालत ने उस साजिश का खुलासा किया जो बिलकिस मामले को बेंच के सामने न आने देने के लिए की जा रही है”। शीर्षक से इस मामले को बहुत अच्छी तरह से समझा जा सकता है और फिर भी इस या किसी अन्य शीर्षक से इंडियन एक्सप्रेस में इसका पहले पन्ने पर नहीं होना मायने रखता है और जाहिर है इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर जो खबरें हैं वह भी उसकी पत्रकारिता का ही हिस्सा है जिसे पाठकों को वैसे ही समझना चाहिए जैसे प्रधानमंत्री चाहते हैं कि कर्नाटक के लोग कांग्रेस को जानें।  

बेशक, प्रधानमंत्री ने कहा है तो यह सब खबर है और लीड बनाना पत्रकारिता की दृष्टि से गलत नहीं है। लेकिन मुद्दा यह है कि सत्तारूढ़ दल के पास अपने प्रचार में कहने के लिए कुछ नहीं है या वह कांग्रेस के विरोध अथवा उसकी आलोचना से जीतने की उम्मीद कर रही है। यही नहीं, स्टार प्रचारक भी खुद को पड़ी गालियों के बाद विपक्ष की आलोचना ही कर रहे हैं। अपने काम तो नहीं ही गिना रहे हैं विपक्ष की उस नीति की आलोचना कर रहे हैं जो 10 साल में जरूरी हो गई है। खबर यह भी है जो बताई नहीं गई है। लोग यही समझेंगे तब भी। आप कह सकते हैं कि राजनीति में यह भी गलत नहीं है। मीडिया का उपयोग या दुरुपयोग होता रहा है लेकिन रिपोर्टिंग में यह बताने की जरूरत तो है कि भाजपा या सत्तारूढ़ दल चुनाव जीतने के लिए अपने काम नहीं गिना रही है कांग्रेस के दोष गिना रही है और यह काम प्रधानमंत्री खुद कर रहे हैं। राहुल गांधी के चुनौती देने के बावजूद। रैली में जो कहा जाता है वह रैली में मौजूद लोगों के लिए कहा जाता है। दिल्ली के पाठकों के लिए उसकी रिपोर्टिंग का एक स्तर और अंदाज होना चाहिए जो इन खबरों या इनकी प्रस्तुति में नहीं है। यह स्थानीय अखबार में होता तो फिर भी रेखांकित करने की जरूरत नहीं होती। 

अगर इन दोनों खबरों को इतना ही महत्वपूर्ण मान लें और हिन्दुस्तान टाइम्स ने भी माना ही है तथा लीड भले कांग्रेस का घोषणा पत्र है उसपर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया साथ ही है। मैंने पहले लिखा है कि यह स्थानीय अखबार के लिए भले बड़ी खबर है दिल्ली के लिए नहीं है और खासकर तब जब दिल्ली के मशहूर या प्रतिष्ठित तिहाड़ जेल में एक गैंगस्टर को चाकू घोंप कर मार दिया जाए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे लीड बनाया है और यह यूं ही नहीं है। कर्नाटक चुनाव की खबर यहां लीड के बराबर में टॉप पर है और खबरों को महत्व देने में गलती नहीं की गई है। इंडियन एक्सप्रेस में तिहाड़ वाली खबर सिंगल कॉलम में निपटा दी गई है और वह भी टॉप पर नहीं है। ऐसा दूसरे अखबारों में भी है। जेल में किसी कैदी का मारा जाना, वह भी चाकू घोंपकर बहुत महत्वपूर्ण है और अधिकारियों की घनघोर लापरवाही तथा नालायकी से ही संभव है। लेकिन बुलडोजर न्याय के इस दौर में जब माफिया को मिट्टी में मिला देने की घोषणा की जाती है और दंगाइयों को उल्टा लटका कर सीधा करने की घोषणा की जा चुकी है तो सुप्रीम कोर्ट के कहने पर एफआईआर हो फिर भी गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है तो खबरों का चयन भी मुश्किल हो गया होगा।

कर्नाटक में कांग्रेस के वादे  

अगर कर्नाटक चुनाव प्रचार की खबरें ही दिल्ली में देनी हैं तो मुझे लगता है कि बजरंग दल पर प्रतिबंध का वादा बड़ी खबर है और इसपर कांग्रेस का पक्ष लेकर इसे कायदे से छापा जाना चाहिए था। निर्णय जनता को करना है और इससे बेहतर समय नहीं हो सकता है। मुझे लगता है, भाजपाई जवाब कमजोर है और कांग्रेस का दांव जरूरत से तगड़ा इसलिए मीडिया ने इसे गोल कर दिया है। भाजपा को राष्ट्रीय स्तर की बदनामी से बचाने की कोशिश की है जो बिल्किस बानो वाले मामले से भी स्पष्ट है। हिन्दुत्व की उसकी रणनीति को कांग्रेस की खुली चुनौती है और अदालतों का समर्थन नहीं है। इसलिए मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण और गौर करने लायक है। अगर प्रधानमंत्री गालियों का हिसाब रखते हैं तो उनकी और उनकी पार्टी की सांप्रदायिकता का साथ देने वालों का भी हिसाब रखा जाना चाहिए। 

टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के अनुसार कर्नाटक कांग्रेस ने मुस्लिम आरक्षण बहाल करने, आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 50 से 75 प्रतिशत करने का भी वादा किया है पर यह दूसरे अखबारों में इतनी प्रमुखता से नहीं है। आप जानते हैं कि केंद्रीय गृहमंत्री ने इस आरक्षण को संविधान विरोधी बताया है। इन खबरों के साथ एक खबर अंदर के पन्नों पर होने की सूचना है, चुनाव आयोग ने पार्टियों को संयम बरतने के लिए कहा। ऐसे में भाजपा (और प्रधानमंत्री) बजरंग दल को हनुमान भक्त कह रहे हैं तो खबर उनकी मानसिक स्थिति की होनी चाहिए। यह बताया जाना चाहिए कि उनकी सोच कैसी है पर वह सब कहां संभव है। द हिन्दू की खबर के अनुसार कांग्रेस ने घृणा फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई का भी वादा किया है।

गाली नंबर 32 

बिलकिस बानो का मामला तो सर्वविदित है पर इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर नहीं है। ऐसे में कुछ और खबरें जो द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर हैं लेकिन मेरे चार अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं हैं उन्हें जानना दिलचस्प रहेगा। खासकर कर्नाटक चुनाव में प्रधानमंत्री के प्रचार को अगर दिल्ली के अखबारों में महत्व मिल रहा है तो अखबारों का काम है कि वे पाठकों को यह भी बताते (पहले पन्ने पर) कि प्रधानमंत्री अगर खुद को पड़ने वाली गालियों का हिसाब रखते या किसी से ऱखवाते हैं तो एक गाली के मामले में चूक गए हैं और गाली नंबर 32 अल्पेश ठाकुर की है। वे अब वाशिंग मशीन में धुलकर भाजपा में हैं और इस गाली का श्रेय कांग्रेस को नहीं दिया जाना चाहिए। इस गाली का महत्व इसलिए भी है कि प्रधानमंत्री ने नब्बे के करीब नहीं कहा, नब्बे से ज्यादा नहीं कहा बिल्कुल 91 कहा है तो एक-एक गालियों का हिसाब होना चाहिए। और प्रधानमंत्री के स्तर पर अगर ऐसी चूक है तो निश्चित रूप से पहले पन्ने की खबर है लेकिन दूसरे अखबारों में मुझे नहीं दिखी। और खबर नहीं होने का कोई कारण नहीं है क्योंकि खबर तो अल्ट न्यूज की है। 

अडानी के ऑडिटर का इस्तीफा 

राहुल गांधी की सदस्यता खत्म होने के बाद अडानी का मामला शांत है। संभव है सरकार को उम्मीद होगी कि अब इसपर कौन बोलने की हिम्मत करेगा लेकिन मामला चल रहा है और जिन्दा है। द टेलीग्राफ की आज की लीड बताती है कि अडानी के ऑडिटर ने इस्तीफा दे दिया है। फ्लैग शीर्षक है, हिन्डन बर्ग की रिपोर्ट में जिस मामूली या बहुत छोटी ऑडिटर फर्म का जिक्र आया था उसने पूर्व व्यस्तता को कारण बताकर छोड़ दिया है। हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट ने समूह के प्रमुख अडानी एंटरप्राइजेज और अडानी टोटल गैस में स्वतंत्र ऑडिटर के रूप में शाह धनधरिया एंड कंपनी की नियुक्ति पर सवाल उठाया था। उसने तर्क दिया था कि फर्म के पास इतने बड़े काम को संभालने के लिए अनुभव की कमी थी। इसमें केवल चार भागीदार और 11 कर्मचारी थे और यह एक छोटे, किराए के अपार्टमेंट स्थित ऑफिस से संचालित होता। शाह धंधारिया ने मंगलवार को अपने त्याग पत्र में कहा, “हमारा इस्तीफा पर्याप्त उपयुक्त ऑडिट साक्ष्य प्राप्त करने में असमर्थता का परिणाम नहीं है।”

हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट में गौतम अडानी और उनके सहयोगियों पर शेयर की कीमतों में हेरफेर करने और विदेशों में स्थित अपारदर्शी फर्मों के माध्यम से समूह की घरेलू कंपनियों में फंड डालने का आरोप था। 24 जनवरी को आई इस रिपोर्ट ने शेयर बाजारों में भूचाल ला दिया था और अडानी समूह के बाजार पूंजीकरण का लगभग 140 अरब डॉलर साफ हो चुका है। पिछले दो वर्षों में अडानी फर्मों के मूल्यांकन में शानदार उछाल ने गौतम अडानी को बहुत आगे बढ़ा दिया था – जिसे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माना जाता है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने बड़े और अधिक विश्वसनीय लेखा परीक्षकों की अनदेखी करते हुए एक अपेक्षाकृत अज्ञात फर्म को ऑडिट का इतना बड़ा काम देने के अडानी समूह के फैसले पर सवाल उठाया था। अखबार ने लिखा है, यह तुरंत स्पष्ट नहीं था कि चार्टर्ड अकाउंटेंसी फर्म अडानी एंटरप्राइजेज से भी अपने पांव खींच लेगी। समूह के फ्लैगशिप के निदेशक मंडल की बैठक गुरुवार, 4 मई को बैठक होने वाली है ताकि इसके वित्तीय परिणामों पर विचार किया जा सके।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं

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