पहला पन्ना: जासूसी कांड में जिस HT के तमाम पत्रकार, उसने सिंगल कॉलम में दी ख़बर!

वैसे तो आज पेगासस से जासूसी करवाने की खबर बड़ी है लेकिन सरकार ने उससे इनकार किया है और कहा है कि इसका कोई ठोस आधार नहीं है और ना ही यह सच्चाई है। असल में पेगासस से 40 भारतीय पत्रकारों की जासूसी करवाने का मामला सामने आया है और यह जासूसी कब और क्यों करवाई गई यह भी साफ है। ऐसे मामलों में जासूसी का मकसद सबूत देने वालों के खिलाफ घोषित-अघोषित कार्रवाई करना होता है। प्रेस के लिए स्थितियां अनुकूल होंगी तो मय सबूत मामले आते ही रहते हैं और जासूसी के बावजूद भी आए हैं। पर अब परिस्थितिजन्य साक्ष्य होने, खुलासों को रोकने की कोशिशों और खुलासों के बावजूद कार्रवाई न करने के मामलों के बीच आज के खुलासे का यही होना था। तथ्य यह है कि पेगासस सॉफ्टवेयर बहुत महंगा है, सरकारों को ही बेचा जाता है और पूर्व में भी इससे जासूसी कराने के मामले सामने आए हैं। तब भी सरकार ने मना किया था पर यह नहीं कहा कि सरकार ने सॉफ्टवेयर नहीं खरीदा है या खरीदा है। सरकार का कहना है कि उन मामलों की जासूसी कराई जाती है जिनकी जरूरत समझी जाती है। सरकार अब भी यह नहीं कह रही है कि उसने महंगा सॉफ्टवेयर नहीं खरीदा है, अब कहा है कि इसके नियम हैं और मंजूरी देने का काम सिर्फ राष्ट्रहित में और निगरानी में होता है। 

इसके बावजूद यह तथ्य है और टाइम्स ऑफ इंडिया में सरकार के इस बयान या स्पष्टीकरण के साथ यह भी बताया गया है कि नौ (टेलीफोन) नंबर एलगार परिषद से सदस्यों के हैं। इसका शीर्षक है, “अनधिकृत निगरानी नहीं होती है।” पर अधिकृत निगरानी किसकी और क्यों होती है या हो रही है यह नहीं बताया है जबकि जिनकी निगरानी का मामला है उनमें केंद्रीय मंत्री भी हैं और पहले वाले मंत्री हटाए जा चुके हैं। कारण बताना जरूरी नहीं है इसलिए बताया नहीं गया है ना किसी की जानने में दिलचस्पी है। लेकिन आम लोगों की (अवैध) जासूसी अगर हो रही है तो सरकार का काम है कि उसकी जांच करवाये, रोके और जासूसी करने वालों के खिलाफ अगर जरूरी हो तो कार्रवाई करे। पर एलगार परिषद के मामले में मालवेयर के जरिए सबूत प्लांट करके गिरफ्तार करने के आरोपों की जांच में भी भयानक समय लग रहा है। जबकि सरकार का काम है कि नागरिकों की सुरक्षा की जाए। जासूसी अगर अधिकृत हो तो उसकी क्या बात करनी? इंडियन एक्सप्रेस ने मूल खबर के साथ एक और खबर में बताया है कि 40 पत्रकारों की सूची में एक्सप्रेस का भी पत्रकार है। लेकिन सबसे ज्यादा पत्रकारों वाले हिन्दुस्तान टाइम्स ने खबर को पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में निपटा दिया है। 

यह दिलचस्प है कि इन सबके बावजूद आज इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड है जबकि हिन्दुस्तान टाइम्स में यह पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में है, द हिन्दू और द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर नहीं है और टाइम्स ऑफ इंडिया में अधपन्ने पर है। इस आधार पर आप कह सकते हैं कि खबरें शाकाहारी और मांसाहारी की ही तरह नहीं होती हैं उनमें ‘हलाल’ और ‘झटका’ की तरह भेदभाव भी किया जाता है। खबरों का वर्गीकरण इसी तरह होता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब सब्जी काटने में भी हलाल और झटका होने लगेगा। लेकिन उसपर फिर कभी। फिलहाल, इमरजेंसी के दौरान मीडिया की आजादी का गला घोंटने के लिए परेशान रहने वाले लोग अपना गला घोंट दिए जाने के बावजूद बोलने की स्थिति में नहीं हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स के कई पत्रकारों की जासूसी किए जाने का आरोप है। जिन पत्रकारों के नाम हैं उनके काम और जासूसी का कारण भी स्पष्ट हैं। सरकार को नागरिकों की कितनी परवाह है वह जगजाहिर है। द हिन्दू में आज फोटोपत्रकार दानिश सिद्दीक के अंतिम संस्कार से जुड़ी एक तस्वीर पहले पन्ने पर है और खबर अंदर होने की सूचना। बाकी अखबारों में मुझे यह खबर पहले पन्ने पर नहीं दिखी।

इन और ऐसी खबरों के बीच आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड है, “सरकार संसद में सभी विषयों पर रचनात्मक बहस के लिए तैयार है:प्रधानमंत्री। इससे संबंधित दूसरी खबर द टेलीग्राफ में है, स्थान पार्लियामेंट ऐनेक्स होने का विवाद। कहने का मतलब यह कि टाइम्स ऑफ इंडिया की मानें तो प्रधानमंत्री ने कहा है कि सरकार संसद में सभी विषयों पर रचनात्मक बहस के लिए तैयार है लेकिन यह बहस संसद में नहीं, ससंद भवन एनेक्स या पार्लियामेंट एनेक्स में होगी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी अपनी मूल खबर के साथ इंट्रो लगाया है, कोविड पर ऐनेक्स में प्रधानमंत्री के भाषण पर विपक्ष ने एतराज किया। टेलीग्राफ की खबर के अनुसार सांसदों को संसद भवन की बजाए पार्लियामेंट ऐनेक्स में प्रधानमंत्री द्वारा संबोधित किए जाने का प्रस्ताव है। विपक्ष ने इसे बेहद असामान्य कहा है और सांसदों को संसद में ही संबोधित करने की मांग की है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री का दावा तो प्रशंसनीय है ही उसे लीड बना देना भी कम वीरता नहीं है। उल्लेखनीय है कि यह खबर द हिन्दू में भी लीड है। 

कोरोना प्रबंध के लिए प्रधानमंत्री ने जब उत्तर प्रदेश की तारीफ की थी तो 17 जुलाई को मैंने लिखा था, “अगर उत्तर प्रदेश की चिन्ता प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को नहीं है या उत्तर प्रदेश ही उन्हें सबसे ठीक लगता है तो क्या देश के बाकी हिस्सों के मामले में उनकी राय सही मानी जा सकती है? ….. द हिन्दू में एक तरफ शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, महामारी के बीच उत्तर प्रदेश कांवड़ यात्रा जारी नहीं रख सकता है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री ने कहा है, महाराष्ट्र और केरल में बढ़ते मामले चिन्ता का कारण हैं।” आज के इंडियन एक्सप्रेस में खबर है, “कोविड के मामलों में वृद्धि नहीं, केरल दबाव में आया, बकरीद के लिए पाबंदियों में ढील दी”। टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर है, “आईएमए ने केरल से कहा, ईद पर पाबंदियों में ढील का आदेश वापस लिया जाए”। आईएमए की अपील तो जो है सो है ही, उसे दिल्ली में पहले पेज पर कब छापा जाता है और कब नहीं, यह ज्यादा दिलचस्प लगता है। मुझे दिल्ली के मामले में दिल्ली के अखबारों में आईएमए की अपील पहले पन्ने पर कम याद है, बंगाल के डॉक्टर के मामले में आईएमए की अपील ज्यादा याद है। बाद में दूसरे राज्यों के डॉक्टर से संबंधित किसी मामले में भी आईएमए की अपील पहले पन्ने पर याद नहीं है।  

संसद सत्र के दौरान किसानों को संसद पर प्रदर्शन की अनुमति नहीं देने की खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर है लेकिन इसके लिए मेट्रो के कितने स्टेशन कितने दिन बंद रहेंगे यह भी दिलचस्प है। हालांकि, यह स्थानीय पन्नों का मामला है। कल सोशल मीडिया में इसकी भी चर्चा थी। लेकिन प्रधानमंत्री अगर “संसद में सभी विषयों पर रचनात्मक बहस के लिए तैयार हैं तो बाहर प्रदर्शन रोकने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं या सरकार का विरोध करने के अधिकारों का क्या हाल है वह भी पहले पन्ने की खबर है। लेकिन राजद्रोह से लेकर लोकतंत्र और देशभक्ति ही नहीं शिक्षा और ज्ञान की परिभाषा में भी लगी सरकार को मीडिया सच बताता रहता तो ये हाल कहां होता? 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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