धर्म आधारित आरक्षण न होने के गृहमंत्री के दावे पर मीडिया मौन, जबकि सिखों, बौद्धों को आरक्षण है

राजनीति तो राजनीति, पत्रकारिता का क्या कहा जाए

 

आज (रविवार, 23 अप्रैल 2023) के दैनिक हिन्दुस्तान में पहले पन्ने पर तीन कॉलम की एक खबर का शीर्षक है, किसी को भी धार्मिक आधार पर आरक्षण देना असंवैधानिक – (अमित) शाह। आप जानते हैं कि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं और हारने को तो यहां पिछली बार भी भाजपा हारी थी लेकिन दल बदल कर सरकार बना ली थी जो 40 प्रतिशत कमीशन के लिए बदनाम रही। और उससे संबंधित कई किस्से हैं पर अभी वह मुद्दा नहीं है। मुद्दा है कर्नाटक चुनाव और कर्नाटक में मुसलमानों के लिए आरक्षण खत्म किया जाना और उसके बारे में यह दावा किया जाना कि धार्मिक आधार पर आरक्षण असंवैधानिक है। आरक्षण जब था और अभी खत्म किया गया है तो निश्चित रूप से पहले की सरकार ने असंवैधानिक कार्य किया है और अगर किया है तो क्या यह चुनाव में भुनाने वाला मामला है या इसपर बात-विचार कर इसे निपटाया जाना चाहिए? 

यह भी संभव है कि धार्मिक आधार पर आरक्षण भाजपा की राय है और वह उसे प्रचारित प्रसारित कर रही है ताकि चुनाव में फायदा हो। भाजपा को ऐसा करना चाहिए कि नहीं मैं उसकी बात नहीं करूंगा मैं इसे अखबार में छापना चाहिए कि नहीं उसपर बात करना चाहूंगा। मेरे ख्याल से एक राय तो यह हो सकती है कि गृहमंत्री ने कहा है तो खबर है और छापने में क्या दिक्कत है। लेकिन मुझे लगता है कि गृह मंत्री ने जो कहा है वह सही है यह तय नहीं है और इसे अभी तय होना है। ऐसे में चुनाव के समय उनके इस कहे को प्रचारित करने की जरूरत नहीं है। अमित शाह रैली में ऐसे दावे करें और अगर गलत है तो इसे देखना चुनाव आयोग का काम है, चुनाव लड़ने वालों के ऊपर है कि वे इसका विरोध करें, शिकायत करें या मुकाबला करें। 

अव्वल तो चुनाव प्रचार में झूठ नहीं बोलना चाहिए लेकिन आप झूठ को ही सच मानते हों तो आप भी क्या कर सकते हैं। वह तो वोटर को तय करना है। पर अखबार की भूमिका तो बहुत साफ है। अमित शाह ने कहा है यह तो ठीक है लेकिन वह तथ्य नहीं है तो पाठक को गलत सूचना अमित शाह नहीं दे रहे हैं, अखबार दे रहा है और अखबार की जिम्मेदारी है कि वह पाठक को गलत सूचना नहीं दे। कल को कोई पाठक इस आधार पर अपनी राय बना सकता है, परीक्षा में जवाब दे सकता है या इस आधार पर किसी से बहस करके या वोट देकर बेवकूफ बन सकता है। इसलिए मेरी पक्की राय है कि ऐसी खबर नहीं छापनी चाहिए। फिर भी पत्रकारीय नैतिकता के कारण भाषण की रिपोर्टिंग जरूरी हो तो इसके साथ ही यह बताया जाना चाहिए कि इस मामले में तथ्य क्या है। अंग्रेजी अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस भी अक्सर स्थिति स्पष्ट कर देते हैं। 

हिन्दी अखबार ऐसा करने लगें तो हिन्दी पट्टी में हिन्दू-मुसलमान करना मुश्किल हो जाएगा और उसका नुकसान भाजपा को ज्यादा होगा इसलिए ऐसा शायद ही हो पर यह गलत तथ्य प्रचारित करने का मामला तो हो ही सकता है। आइए, देखें इस मामले में वास्तविकता क्या है। अखबार में खबर देखते ही मुझे याद आया कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। इसके अलावा, भाजपा ने राज्य में लगभग पांच साल शासन किया। इस दौरान कर्नाटक में हिजाब का मुद्दा गर्म रहा और चुनाव की घोषणा होने से पहले आरक्षण खत्म कर दिया गया। इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और मामला अदालत में है तो इसपर अपनी राय का कोई मतलब नहीं है क्योंकि फैसला तो सुप्रीम कोर्ट का ही माना जाएगा। स्टेट्समैन डॉट कॉम की 12 अप्रैल 2023 की एक खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है कि वह 1950 के राष्ट्रपति के एक आदेश को चुनौती देने वाली लगभग दो दशक पुरानी याचिकाओं पर विचार करेगा जिसमें मुस्लिम और इसाई समुदाय के अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षण की सुविधा से बाहर रखा गया था। खबर के अनुसार 1950 के राष्ट्रपति के आदेश को दो बार संशोधित किया गया है और इसमें सिखों व बौद्धों को शामिल किया गया है। 

इस मामले पर कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद 11 जुलाई को सुनवाई होनी है और अमित शाह अपने भाषण का राजनीतिक लाभ उठा ले जाएंगे या रोका नहीं गया तो उठाने की कोशिश करते रह सकते हैं। दूसरी ओर, यह तथ्य सही या गलत तो अदालत के फैसले के बाद ही होगा। लेकिन मुझे लगता है कि देश में जाति के आधार पर आरक्षण है और सभी धर्मों में जातियां होती हैं और वहां भी जाति का आधार वही है जो हिन्दुओं में है तो धर्म की बजाय आरक्षण का लाभ पाने वाली जातियों के नाम लिखे जा सकते थे। अगर दूसरे धर्मों की जातियों को छोड़ दिया जाए तो जाहिर है आरक्षण सिर्फ हिन्दुओं के लिए हुआ और अगर ऐसा ही रहता तो एक बात थी लेकिन उसमें सिखों और बौद्धों को शामिल किया जा चुका है तो बाकी की जातियों को शामिल नहीं करने का कोई कारण नहीं है। पर यह तो बाद की बात है। भाजपा की राजनीति यह रही है कि कांग्रेस अगर मुसलमानों के हित में बात करे तो उसे तुष्टीकरण कहती है और खुद हिन्दू हित की बात करती है। और यह हिन्दुओं का तुष्टिकरण या उन्हें खुश करना नहीं है। यह अलग बात है कि हिन्दुओं को खुश करने के लिए मुसलमानों को नाराज या असंतुष्ट भी किया जाता है और वह भी मुद्दा नहीं है। दुखद यह है कि ऐसा कोई मामूली नेता नहीं कर रहा है वह व्यक्ति कर रहा है जो संवैधानिक पद पर है और जिसने बगैर भेदभाव काम करने की शपथ ली है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

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