दशहरे का अर्थ बुराई पर अच्छाई की जीत से लिया जाता है। इस अवसर पर रावण, मेघनाथ, कुंभकर्ण के पुतलों को आग के हवाले करते हैं। ये परम्परा न जाने कब से चली आ रही है लेकिन क्या कभी हमने ये जानने का प्रयास किया है कि इस परम्परा को चलाने वाले लोग कौन हैं? जो पुतले हम जलाते हैं इनको बनाता कौन है? वे किस स्थिति में हैं, उनके लिए रावण होने का अर्थ क्या है?
हम में से अधिकांश लोग इस बात को कम स्वीकार करते हैं कि राज्य का चरित्र ही शोषण करना है। हम लोग उस पीढ़ी से सम्बंधित हैं, जो किताब के किसी हिस्से में पढ़ लिया कि राज्य का काम लोक कल्याणकारी होता है। जो निहायत ही बकवास बात है।
जो लोग राज्य व उसकी संस्थाओं की कार्य प्रणाली को करीब से समझना चाहते हों उनके लिए राजस्थान के घुमन्तू समुदाय सबसे सटीक उदाहरण हैं। राजस्थान ऐसा राज्य है जहां सरकारें आती हैं और चली जाती हैं किन्तु घुमन्तू समुदाय की सुध लेने वाला कोई नहीं हैं।
जयपुर में सड़क के किनारे, पिछले 1 महीने से सैंकड़ों की संख्या में तम्बू लगे हैं। ये तम्बू घुमन्तू समुदायों के हैं जो बांस की लकड़ी से रावण बनाने में लगे हुए हैं। इन समुदायों में जोगी, बाँसफोड़, गुजराती देवी पूजक, बंगाली बंशीवाल इत्यादि घुमन्तू समुदायों के लोग हैं।
ये लोग सदियों से ऐसे ही रावण बनाने का कार्य करते आ रहे हैं। जो दशहरे के 2 महीने पहले राजस्थान के कोने -कोने, गुजरात और बंगाल से अपने पूरे परिवार समेत यहां आते हैं। अपने तम्बू लगाते हैं। रावण बनाते हैं और दशहरे के दूसरे दिन यहां से कूच कर जाते हैं।
अन्य वर्ष की भाँति इस वर्ष भी इन्होंने रावण बनाया है। इस बार लॉकडाउन की वजह से एक महीने पहले ही रावण बनाने का काम शुरू हुआ है। इन लोगों के पास अपनी कोई जमा पूंजी नहीं है और न ही सरकार इनको किसी प्रकार का कोई ऋण देती है।
मानसरोवर मेट्रो के पिलर नम्बर 24 के पास सड़क किनारे शारदा जोगी उम्र करीब 55 वर्ष ने तम्बू लगाया हुआ है। शारदा ने रावण बनाने के लिए 10 टका ब्याज पर पैसे उधारी में लिए हैं।
शारदा बात करने पर फूट फूटकर रोने लगती है। शारदा कहती हैं कि ‘पिछले वर्ष बारिश की वजह से सब रावण भीग गए थे। सरकार ने मुआवजे के नाम पर 500 रुपये की मदद की थी जबकि उस वर्ष हमारे ऊपर 30 हज़ार रुपये का कर्ज हो गया। हम आज तक उसका ब्याज चुका रहे हैं।’
शारदा आगे कहती हैं कि ‘इस वर्ष लॉक डाउन में सब काम बंद थे तो उस दौरान घर चलाने के लिए ब्याज में पैसा लिया, उम्मीद थी कि रावण बेचकर उधारी चुका देंगे। फिर रावण बनाने के लिए पैसा उधारी में लिया। हमने 5 फुट के 50 रावण बना लिए किन्तु एक भी ग्राहक नहीं आया है।’
शारदा कहती हैं कि ‘यदि रावण नहीं बिके तो ये कर्ज कैसे चुकाउंगी? मेरे पास तो ये तम्बू है। कोई आभूषण, जमीन जायदाद तो हैं नहीं। सरकार भी नहीं सुनती। हमारे रावण 20 दिन पहले ही बिकने लग जाते हैं। लेकिन अब हमारा कोई नहीं है।’
ये मात्र शारदा की हालत नहीं ऐसी ही हालात गुजरात से आये देवी पूजक समाज के बैजू मारू उम्र करीब 65/70 वर्ष की भी है। गुर्जर की थड़ी पर, सड़क किनारे करीब 50/60 रावण खड़े हैं।
बैजू मारू बताते हैं कि ‘रोड पर तो पहले से ही बैठे हैं अब और कहाँ जाये। बीबी- बच्चों के पुराने कपड़े, बर्तन बेचकर 2 हज़ार रुपये जोड़े थे। 8 हज़ार रुपये कबाड़ वाले से 10 टका ब्याज पर पैसा उधार लिये। बनिये से 1500 रुपये का राशन उधारी में लिया है। रावण बना लिए लेकिन एक भी ग्राहक नहीं आया है।’
बैजू आगे कहते हैं कि ‘यदि रावण नहीं बिके तो हम लोग क्या करेंगे? सरकार केवल अमीरों की सुनती हैं। हमारे पास कोई सहायता नहीं हैं। हमारे पास कुछ नहीं तो हमारा दर्द कोई नहीं सुनता। न कोई अखबार हमारा दर्द दिखाता और न कोई सरकारी अधिकारी सुनता।’
जयपुर शहर में करीब 400- 500 परिवार रावण बनाने के कार्यों में लगे हुए हैं। जिसमें एक परिवार में 8 से 10 सदस्य हैं। इस तरह 4 से 5 हज़ार लोग अपने जीवन का तमाशा देख रहे हैं। इन लोगों के लिए न राज्य का कोई मतलब न सविधान के कोई मायने।
प्रख्यात राजनीति शास्त्री योगेंद्र यादव राजनीति विज्ञान की एनसीइआरटी की पुस्तक में लिखते हैं कि संविधान और संस्थाएं कुछ कारण देते हैं ताकि लोग उनका सम्मान करें, किन्तु घुमन्तू समुदायों के पास ऐसा कोई कारण नहीं हैं कि वे इस राज्य और उसकी संस्थाओं को अपना कह सकें।
शर्म की बात देखिये राजस्थान सरकार के शिल्प कला बोर्ड ने एक बार उनसे मिलना तो दूर रहा, सड़क पर चलते हुए गाड़ी को रोककर एक बार इन लोगों को झांककर तक नहीं देखा। राजस्थान सरकार गांधी के नाम को भी क्यों शर्मिंदा कर रही है?
इन समुदायों में कोई 5 महीने की गर्भवती है तो कोई महिला 6 महीने की गर्भवती हैं। वे लैंप पोस्ट की लाइट में इस आश में रात-रात भर रावण बना रही हैं कि आमदनी का और तो कोई जरिया है नहीं, जब बच्चा होगा तो उस दौरान कुछ पैसा पास रहेगा तो घर चलाने में आसानी होगी।
जालौर ज़िले से आये 70 वर्ष के बंशी जोगी इसलिए रावण बना रहे हैं कि अपने फेफड़ों का इलाज करवा सकें लेकिन उनकी ये उम्मीद भी धीरे धीरे उनके फेफड़ों की तरह से ही दम तोड़ रही है।
गांधी की बात करने वाले राजस्थान सरकार के पास इन समुदायों हेतु 5 किलो आटा भी नहीं है जबकि सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग ने अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के नाम पर दीवारें पुतवाने में लाखों रुपये खर्च कर दिए।
सामाजिक न्याय विभाग के पास ग्रैफिटी करवाने का बजट है किंतु जो घुमन्तू समुदाय के लोग तम्बू ठेरों में रहते हैं। खेल तमाशा दिखाकर अपनी आजीविका चलाते हैं उनके लिए कुछ नहीं हैं।
गांधी को किसी और को पढ़ाने की बजाय कांग्रेस सरकार को गांधी को कई दफा पढ़ना चाहिए। यही होता है जब राजनीतिक संगठन के नाम पर महज एनजीओ की फ़ौज होती है। राजस्थान में आज यही हो रहा है। एनजीओ को राजनीतिक दल का कार्यभार सौंपा हुआ है। सब जानते हैं कि एनजीओ का अपना गणित होता है। इस गणित में इंसान नहीं होते महज आंकड़े होते हैं।
क्या हो सकता है?
हमें सरकारों से ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिये। इसके लिए हमें समाज के स्तर पर आगे आना होगा। इसका उदाहरण हाल ही में हमें दिल्ली में बाबा का ढाबा में देखने को मिला है। यदि समाज के लोग सामने आयें तो इनके रावण बिक सकेंगे। क्या हुआ मेला नहीं भरेगा तो, कोई जलाना ही जरूरी नहीं हैं। हम इस 400/500 रुपये के रावण को खरीद सकते हैं।
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अश्वनी कबीर, स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं। घुमन्तू समूदायों के लिए काम करने वाली संस्था नई दिशायें के संयोजक हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ हैडलबर्ग में पीएचडी हेतु प्रो रामचन्द्र गुहा और शेखऱ पाठक के स्टूडेंट हैं।